पृष्ठ

शनिवार, जुलाई 31, 2010

दवा कंपनियां अटका देती हैं कानून

Drug Trial : A Money Game to treat Man as Guinea-pig


साढ़े चार वर्ष से केंद्र सरकार नहीं कर सकी फैसला
 आईसीएमआर की सिफारिश के बावजूद संसद नहीं पहुंच सका  बिल 

बहुराष्टï्रीय दवा कंपनियों द्वारा विकसित की गई दवाओं और टीकों के लोगों पर ïपरीक्षण (ड्रग ट्रायल) को काबू करने के लिए भारत सरकार के पास भी एक कानून (बायोलॉजिकल रिसर्च ह्युमन सब्जेक्ट्स प्रमोशन एंड रेग्यूलेशन बिल) साढ़े चार वर्ष से अटका हुआ है। इस देरी का कारण अरबों रुपए के बजट वाली दवा कंपनियों को माना जाता है। ताज्जुब तो यह है कि इस कानून को संसद में पेश करने के लिए भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद (आईसीएमआर) कई बार सिफारिश कर चुकी है।

नागरिकों को अनजान दवाइयों के प्रभाव से बचाने के लिए 2005 में केंद्र सरकार ने ड्रग एंड कॉस्मेटिक एक्ट में संशोधन किया। इसी के बाद ड्रग ट्रायल करने का कार्य विधिवत शुरू हुआ। इसके पहले बगैर किसी नियंत्रण या जानकारी के ट्रायल होते थे, किंतु एक्ट में संशोधन भी बेहद लचर साबित हुआ। न तो इसमें कड़ी सजा का प्रावधान है और न ही किसी भी डॉक्टर पर निगरानी करने की कोई व्यवस्था। यही वजह है कि दवा कंपनियों ने तेजी से देशभर में पांव पसारे और उन डॉक्टरों का चयन किया जिन पर मरीजों को अटूट भरोसा रहता है। डॉक्टरों ने भी 'शोधÓ के नाम पर धड़ाधड़ रोगियों को प्रयोगशाला बनाना शुरू कर दिया। आईसीएमआर को इसकी भनक लगी तो अक्टूबर 2006 में 120 पेज की एक गाइडलाइन जारी की गई। इसका भी देशभर में जमकर उल्लंघन हुआ।

गाइडलाइन बनाने के बीच में ही आईसीएमआर ने बायोलॉजिकल रिसर्च ह्युमन सब्जेक्ट्स प्रमोशन एंड रेग्यूलेशन बिल का खाका तैयार किया। इसे जनवरी 2006 में विधि विभाग के पास भेजा गया। वहां से इसे मंजूरी भी मिल गई, लेकिन इसके बाद से यह फाइलों में खो गया।

कानून के बगैर काबू संभव नहीं
आईसीएमआर निदेशक डॉ. वीएम कटोच ने 'पत्रिकाÓ से चर्चा में बताया जब तक कानून नहीं लाया जाएगा, ड्रग ट्रायल्स पर काबू पाना कठिन है। हम केवल गाइडलाइन जारी कर सकते हैं, उसके पालन करवाने को लेकर कोई तंत्र मौजूद नहीं है।

एमसीआई ने भी बदले नियम
आईसीएमआर की तरह ही मेडिकल काउंसिल ऑफ इंडिया (एमसीआई) को भी ड्रग ट्रायल घपले की जानकारी मिल चुकी थी। यही वजह कि एमसीआई सचिव डॉ. एआरएन सेतलवाड़ ने 10 दिसंबर 2009 को सभी मेडिकल कॉलेजों को पत्र लिखकर इंडियन मेडिकल काउंसिल नियम 2000 में संशोधन की जानकारी दी थी। इसमें सभी डॉक्टरों से कहा गया था कि ट्रायल के जरिए आने वाली राशि को जनता के सामने रखा जाए और ऐसे ही ट्रायल किए जाएं जिनके परिणाम देश के लिए हितकर हों। 

मप्र नर्सिंगहोम एक्ट भी अधूरा
मप्र सरकार ने 17 जनवरी 2007 से नर्सिंगहोम एक्ट लागू किया है। इसमें भी ड्रग ट्रायल को काबू करने का कोई इंतजाम नहीं है। यही वजह है कि राज्य सरकार को अब तक यह पता नहीं है कि निजी अस्पतालों में कौन डॉक्टर किस मरीज पर किस दवा का प्रयोग कर रहा है। एक अनुमान के मुताबिक अकेले इंदौर में करीब 60 डॉक्टर ट्रायल में लिप्त हैं। सीएमएचओ डॉ. शरद पंडित ने बताया फिलहाल किसी भी अस्पताल की एथिकल कमेटी की जानकारी हमें नहीं है। यह मामला पहली बार प्रकाश में आया है। अब वरिष्ठ कार्यालय के ध्यान में लाया जाएगा। 


एक मरीज पर मिलते दो से पांच लाख
ड्रग ट्रायल के खेल में धन के प्रभाव को इसी से मापा जा सकता है कि अधिकांश कंपनियां ट्रायल करने वाले डॉक्टर को एक मरीज के एवज में दो से पांच लाख रुपए तक देती है। इंदौर के एमजीएम मेडिकल कॉलेज में ही वर्ष 2008-09 में डॉ. अशोक वाजपेयी और डॉ. संजय अवासिया को दमे के रोगियों पर मोमेटासोन और फॉरमेट्रोल नामक दवा को दो मरीजों पर इस्तेमाल करने पर 6 लाख 36 हजार रुपए मिले थे। डॉ. अपूर्व पुराणिक को डोनेपेझिजल एआर दवा के प्रयोग के लिए प्रति मरीज 1.10 लाख रुपए मिले।


उम्रकैद से कम नहीं

चिकित्सा क्षेत्र में तरक्की हो इसके लिए ड्रग ट्रायल की जरूरत से कोई इनकार नहीं कर सकता, लेकिन इससे गुजरने वाले मरीजों के हितों की रक्षा कौन करेगा? उन डॉक्टरों पर निगरानी का तंत्र क्या हो, इसके लिए मध्यप्रदेश सरकार ने अब तक कोई कदम नहीं उठाया था। देर से ही सही, कायदे-कानून की घोषणा का स्वागत किया जाना चाहिए।

दरअसल, सवाल विश्वास का है। वह विश्वास जो मरीज अपने डॉक्टर की आंख में देखता है, उसे भगवान मानता है। चंद डॉक्टरों की हरकतों से अगर समूचे चिकित्सा  जगत की साख संकट में पड़ जाए तो यह ठीक नहीं होगा। ड्रग ट्रायल से जुड़े तमाम पहलुओं की जांच-पड़ताल में चौंकाने वाले और दु:खद पहलू सामने आए। सरकार की भी कलई खुल गई। निजी अस्पतालों की दूर उसे तो यह भी पता नहीं कि सरकारी मेडिकल कॉलेजों में ड्रग ट्रायल के नाम पर मरीजों के साथ क्या हो रहा है। ऐसे हालात में आंख पर पट्टी बांधकर ड्रग ट्रायल की पैरोकारी करने वालों से पूछा जाना चाहिए कि इस अराजकता से आखिर लाभ किसे है? इस तकनीकी विषय पर आम आदमी की कम जानकारी का धंधेबाजों ने जमकर फायदा उठाया है। राज्य ही नहीं केंद्र सरकार भी इस विषय में बहुत गंभीर नहीं दिखती। ट्रायल में धंधेबाजों की घुसपैठ को देखकर भारतीय चिकित्सा और अनुसंधान परिषद ने चार साल पहले कानून संशोधन सुझाए।   

विधि विभाग की अनुमति भी मिल गई, इसके बावजूद बहुराष्ट्रीय कंपनियों को फायदा पहुंचाने के लिए आज तक सख्त कानून के लिए कोई संशोधन नहीं किया गया। यही वजह है कि दुनिया भर में सबसे ज्यादा ड्रग ट्रायल भारत में हो रहे हैं। मप्र सरकार को ड्रग ट्रायल पर बेहद सख्त नियम कानून बनाने होंगे। दोषी डॉक्टर को उम्रकैद से कम का प्रावधान न हो। नियमों का उल्लंघन करने वाले की डिग्री छीनी जानी चाहिए।
News in PATRIKA ON 31th July 2010

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें