पृष्ठ

बुधवार, जुलाई 21, 2010

दवा आजमाइश के खेल में गुम रोगी

 बिगड़ी तबीयत दुरस्त करवाने के इरादे से डॉक्टर की शरण में जाने वाले रोगी खतरे में है। खतरा भी उस डॉक्टर से जिसे वह भगवान मान रहा है। डॉक्टर मरीज पर मरीज पर ऐसी दवा आजमाने की जल्दी में है, जो बाजार में आई ही नहीं। दवा बनाने वाली विदेशी कंपनी दवा आजमाईश (ड्रग ट्रायल) के एवज में डॉक्टर को मोटी रकम देती है। इस रकम के लालच में डॉक्टर मरीज को चूहा मानकर आजमाईश में जुट चुके हैं। यह काम सरकारी के साथ ही प्रायवेट अस्पतालों और क्लिनिकों में धड़ल्ले से चल रहा है। 


हिंदुस्तानियों को चूहा मानकर विदेशी कंपनियां ड्रग ट्रायल के नाम पर गुमनाम दवाइयों का प्रयोग करके देश के चंद डॉक्टरों की जेबें भर रही हैं, लेकिन केंद्र और राज्य दोनों ही सरकारों के पास इसका कोई लेखा-जोखा उपब्ध नहीं है। देशभर में ट्रायल करने वाले डॉक्टरों की न तो पड़ताल की गई और न ही इसके लिए कोई व्यवस्था बनी है, जबकि ये डॉक्टर देश के गरीब और अनपढ़ मरीजों को अपना निशाना बनाते हैं। एक अनुमान के मुताबिक वर्तमान में ट्रायल का भारत में 1500 करोड़ का कारोबार जारी है, जो 2012 तक बढ़कर 2760 करोड़ तक पहुंच जाएगा। 

बात मध्यप्रदेश की औद्योगिक राजधानी और तेजी से मेडिकल हब के रूप में विकसित होते शहर इंदौर की करें तो पता चलता है कि एमजीएम मेडिकल कॉलेज से जुड़े अस्पतालों में आने वाले मरीज यहां के डॉक्टरों की नजर में चूहे से ज्यादा अहमियत नहीं रखते हैं। देशी-विदेशी दवा कंपनियों में निर्माणाधीन दवा और टीके मरीजों पर धड़ल्ले से इस्तेमाल हो रहे हैं। कंपनियां डॉक्टरों को चुनती हैं और इसके बाद शुरू हो जाता है खेल। पांच वर्ष में ही छह डॉक्टरों ने ड्रग ट्रायल के नाम पर 1170 बच्चों समेत 1521 मरीजों पर प्रयोग करके दो करोड़ का कारोबार किया। सूत्रों के मुताबिक, कई ऐसी दवाओं के प्रयोग भी हो रहे हैं जिन्हें भारत सरकार से अनुमति नहीं है। वैसे तो निगरानी के लिए एथिकल कमेटी (नैतिक समति) है, पर उसे दवाओं व कंपनियां के नाम की ही जानकारी दी जाती है। मरीज, राशि और हिसाब की जानकारी उसे कम ही होती है। कमेटी की अनदेखी का फायदा उठाकर शिशु रोग विशेषज्ञ डॉ. हेमंत जैनï ने ५६ लाख कमाए और ब्रोंकाइटिस, पोलियो, बीपी, हेपेटाइटिस बी, टिटनेस से पीडि़त बच्चों पर प्रयोग कर दिए। दिल के रोगी मेडिसिन प्रोफेसर डॉ. अनिल भराणी, न्यूरोलॉजी से पीडि़त डॉ. अपूर्व पुराणिक, दमे के रोगी डॉ. अशोक वाजपेयी, डॉ. संजय अवासिया व डॉ. सलिल भार्गव, आंखों का मर्ज लेकर आए डॉ. पुष्पा वर्मा और हड्डी चटकने के कारण अस्पताल पहुंचे डॉ. प्रदीप भार्गव के लिए कमाई का जरिया बने। सभी ने दवा आजमाई और लाखों रुपए जुटा लिए। यही हाल निजी अस्पतालों का भी है। टोटल, सीएचएल अपोलो, चोइथराम, चरक, ग्रेटर कैलाश जैसे अस्पतालों में यह धंधा जोरों पर है। कुछ मनोचिकित्सक तो अपने क्लिनिक से यह काम चला रहे हैं।

लगभग ऐसा ही दृश्य दूसरे शहरों और राज्यों का भी है। दरअसल, विदेशी कंपनियों ने क्विंटल और बायोटेक जैसी स्पांसर एजेंसियों के जरिए तीन वर्ष में पूरे देश में नेटवर्क फैला लिया है। केंद्र सरकार के आंकड़े बताते हैं देश में चारों चरणों तक के ट्रायल चलते हैं। सभी जानलेवा हैं, लेकिन फेज वन और टू अधिक खतरनाक हैं। वर्ष 2009 में ही फेज वन की 33 और फेज टू की 53 ट्रायल हुई हैं। सबसे अधिक कारोबार महाराष्टï्र में हो रहा है। कर्नाटक और आंध्रप्रदेश दूसरे-तीसरे स्थान पर हैं। शहरों में बैंगलूरु सबसे आगे है। पूणे और मुंबई इसके बाद आते हैं। इन शहरों में बड़े पैमाने पर ड्रग ट्रायल किए जाते हैं। विदेशी कंपनियों ने मप्र में इंदौर और राजस्थान में जयपुर को गढ़ बनाया है। वर्ष 2006 से 2009 तक इंदौर में क्रमश: तीन, दो, 13 और 38 ट्रायल हुए हैं, जबकि जयपुर में तीन, 11, 36 और 70 ट्रायल हुए हैं। 

वैसे, भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद (आईसीएमआर) ने मरीजों का दवा आजमाइश से बचाने के लिए 2006 में गाइडलाइन बनाई थी। इसमें जिक्र था कि जिस मरीज पर दवा का प्रयोग शुरू होगा, उसे पूरी जानकारी दी जाएगी। यह भी बताया जाएगा कि दवा के विपरीत प्रभाव से उसकी जान भी जा सकती है। अफसोस इस गाइडलाइन का रत्तीभर भी पालन देश में नहीं हो रहा है। राशि ही इतनी मोटी मिलती है कि डॉक्टर बगैर सोचे-समझे प्रयोग करना शुरू कर देता है। केंद्र सरकार द्वारा गठित क्लिनिकल ट्राइल्स रजिस्ट्री इंडिया (सीटीआरआई) में रजिस्ट्रेशन करवाने और दवा कंपनी की मदद के लिए बनाई जाने वाली एथिकल कमेटी से अनुमति लेने के बाद डॉक्टर धड़ाधड़ प्रयोग शुरू कर देता है। उसे किसी का डर भी नहीं है, क्योंकि उसकी निगरानी का न तो राज्यों ने और न ही केंद्र ने कोई इंतजाम किया है। मप्र के ड्रग कंट्रोलर राकेश श्रीवास्तव कहते हैं कि उन्हें न तो ट्रायल की जानकारी है और न ही इससे प्रभावित होने वाले मरीजों की। राज्य के स्वास्थ्य मंत्री महेंद्र हार्डिया तो पूछते हैं यह ड्रग ट्रायल क्या होता है?  सीटीआरआई की उप संचालक डॉ. आभा अग्रवाल का व्यक्तव्य भी चौंकाता है। वे कहती हैं ट्रायल के लिए रजिस्ट्रेशन करना हमारा काम होता है। इसके बाद हम निगरानी नहीं करते हैं। ट्रायल के लिए एथिकल कमेटियां सर्वाधिक जिम्मेदार हैं। कितनी राशि आती है और कैसे डॉक्टर को मिलती है, इसकी कोई जानकारी नहीं। यह भी पता नहीं है कि दवा आजमाइश से मरीज पर क्या असर होता है।

डॉक्टर इस बात को जानते हैं कि ट्रायल जानलेवा होती हैं, लेकिन वे इसे हमेशा से ही छुपाते रहे हैं। मौतों की आधिकारिक जानकारी किसी के पास नहीं है। जन स्वास्थ्य अभियान जैसे कुछ संगठनों ने अपने स्त्रोतों से जो जानकारी जुटाई है, वह चौंकाने वाली है। इसके मुताबिक देशभर में वर्ष 2007 में 132, 2008 में 229 और 2009 में 308 लोगों की ट्रायल के दौरान मौत हुई है।

दवा आजमाइश के इस खेल में सबसे बड़ा सवाल मानव के जीवन जीने के अधिकार का है। कुछ डॉक्टर उसका यह हक छीन रहे हैं और मनुष्य को इसका पता भी नहीं चलता। रुपए के खातिर शुरू हुआ यह खेल समय रहते रुकना चाहिए। बेहद जरूरी है कि भारत सरकार अपने नागरिकों को दलाल रूपी डॉक्टरों से बचाने के लिए सख्त कानून बनाए। वर्ष 2005 की तरह ड्रग एंड कॉस्मेटिक एक्ट में संशोधन करने से हल नहीं निकलेगा क्योंकि उस संशोधन के बाद तो ट्रायल को बढ़ावा मिला।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें