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मंगलवार, अगस्त 31, 2010

ड्रग ट्रायल के लिए मेडिकल कॉलेज को बता दिया स्पांसर कंपनी

एमवाय अस्पताल में हायरपरटेंशन के रोगियों पर हो रहा प्रयोग


बहुराष्टरीय कंपनियों द्वारा विकसित दवा के मरीजों पर प्रयोग (ड्रग ट्रायल) के लिए एमवाय अस्पताल के दो डॉक्टरों ने एमजीएम मेडिकल कॉलेज को स्पांसर कंपनी बना दिया। ये डॉक्टर किसी दवा कंपनी के लिए अस्पताल में आने वाले हायपर टेंशन के रोगियों पर टेडलाफिल नामक दवा का प्रयोग कर रहे हैं। कान खड़े करने वाला तथ्य यह है कि कॉलेज को पता ही नहीं है कि उसे स्पांसर बना दिया गया है।

मेडिसिन विभाग के प्रोफेसर डॉ. अनिल भराणी और असिस्टेंट प्रोफेसर डॉ. आशीष पटेल ने 1 जुलाई 2010 को केंद्र सरकार के क्लिनिकल ट्रायल रजिस्ट्री इंडिया (सीटीआरआई) में प्लोमोनरी हायपर टेंशन के 60 मरीजों पर प्रयोग के लिए रजिस्ट्रेशन करवाया। डॉ. भराणी प्रमुख जबकि डॉ. पटेल सहयोगी इन्वेस्टिगेटर हैं। दोनों डॉक्टर रोगियों को टेडलाफिल नाम की दवा देकर उसका असर जांच रहे हैं।

किसके पास रहेंगे वित्तीय अधिकार?
विश्व स्वास्थ्य संगठन के मुताबिक स्पांसर व्यक्ति या संस्था ट्रायल पर होने वाले समस्त खर्च के लिए जवाबदेह होती है। ट्रायल के बाद दवा को बाजार में उतारने के पहले उसके वित्तीय अधिकार स्पांसर कंपनी ही बेचती है। दवा उत्पाद से जुड़े जानकारों के मुताबिक आम तौर पर किसी दवा के अधिकार करोड़ों में बेचे जाते हैं। अहम सवाल यही है कि इस ट्रायल के नतीजों के वित्तीय अधिकार किसके पास रहेंगें और उन्हें कौन बेचेगा?

आर्थिक अपराध की श्रेणी में शामिल
किसी सरकारी कर्मचारी द्वारा अपने संस्थान को कंपनी की तौर पर पेश करके कहीं से रुपए कमाना आर्थिक अपराध की श्रेणी में आता है। सरकार यदि मामले की तह तक जाए, तो यह बड़ी आर्थिक गड़बड़ी साबित होगा।


सूचना का अधिकार में भी नहीं दे रहे जानकारी
इस संबंध में संबंधित डॉक्टरों ने चर्चा करना चाही तो उन्होंने बात करने से मना कर दिया। डॉ. पटेल चाहते थे कि इस संबंध में कोई भी जानकारी लिखित में ही दी जा सकती है। 'पत्रिकाÓ ने सूचना का अधिकार का इस्तेमाल किया गया, तो मेडिसिन विभाग ने लिखित में दिया कि गोपनीयता की शर्त के कारण यह जानकारी नहीं दी जा सकती है।


मर्ज और दवा दोनों ही खतरनाक

मर्ज: रूक जाती है फेफड़े की रक्तवाहिनी
दिल से खून को पूरे शरीर में ले जाने वाली रक्त नलिकाएं पल्मोनरी वैसल्स (धमनियां) कहलाती हैं। फेफड़ों में मौजूद धमनियों में जब रूकावट आती है तो ब्लड प्रेशर बढ़ता है और दिल के दाएं हिस्से में तेज दर्द उठता है। कभी कभी इसे दिल की धड़कन हमेशा के लिए रूक जाती है। इसे ही प्लमोनरी हायरपर टेंशन (पीएचटी) कहते हैं।

दवा: नपुंसक बना सकती है टेडलाफिल 
- पुरुष जननांग छह घंटे तक उत्तेजित अवस्था में आ सकता है। इससे ताजिंदगी नपुंसक होने का खतरा भी रहता है।
- 0.1 प्रतिशत मरीजों में रंग पहचानने की शक्ति समाप्त हो जाती है। वे नीले-हरे रंग में अंतर नहीं कर पाते। 
- चेहरे पर सूजन, शरीर में झुनझुनी, थकान और दर्द हो सकता है।
- ब्लड प्रेशर में बहुत अधिक उतार-चढ़ाव, अचानक हार्ट अटैक, बेहोशी, सांस की गति बढऩा भी संभव है।
- पांच प्रतिशत रोगियों में अत्यधिक पीठ या कमर का दर्द होता है। 


मैं कुछ नहीं बता सकता
क्या आप टेडलाफिल के ड्रग ट्रायल की जानकारी देंगे?
मौखिक कुछ नहीं दूंगा, लिखित में मांगे।
परंतु सीटीआरआई ने तो आपको जनता के सवालों का जवाब देने के लिए जिम्मेदार बताया है?
वह सही है, लेकिन मैं आपको मौखिक कुछ नहीं बता सकता।
मुझे सिर्फ इतना बता दें कि क्या ट्रायल के लिए कॉलेज को स्पांसर बनाया गया है?
कहना, मैं आपको कुछ नहीं बता सकता।
(डॉ. आशीष पटेल से  चर्चा)

'किसी को तो बताना ही था स्पांसरÓ 
टेडलाफिल दवा के ट्रायल में मेडिकल कॉलेज को स्पांसर क्यों बनाया गया?
सीटीआरआई में किसी को स्पांसर बताना जरूरी था, इसलिए ऐसा कर दिया।
इसमें वित्तीय मदद कहां से मिल रही है?
उसकी जरूरत ही नहीं है। दूसरे ट्रायल चल रहे हैं, तो यह भी साथ में हो रहा है। इससे जूनियर्स को सीखने को मिलेगा।
वित्तीय अधिकार किसे बेचे जाएंगे?
इसकी कोई जरूरत ही नहीं पड़ेगी। एक कंपनी ने कहा और हम ट्रायल कर रहे हैं, इसमें वित्तीय अधिकार की बात ही कहां आई?
(डॉ. अनिल भराणी से चर्चा)


मुझे इस मामले की कोई जानकारी नहीं है। मैं इसकी जांच करूंगा और फिर ही कोई कोई टिप्पणी कर सकूंगा।
- डॉ. एमके सारस्वत, डीन, एमजीएम मेडिकल कॉलेज

पत्रिका: ३० अगस्त २०१० 

बुधवार, अगस्त 25, 2010

मध्यप्रदेश में व्हीसल ब्लोअर पर सरकारी तंत्र का हमला

Dr. Aanad Rai


व्हीसल ब्लोअर यानी भ्रष्टाचार या गड़बडिय़ों को देखकर सरकार को सचेत करने वाला बंदा। लुप्त होती जा रही 'व्हीसल ब्लोअरÓ की इस प्रजाति को बचाने के लिए भारत सरकार संजिदा दिखती है और यही वजह है कि एक ऐसे कानून का मसौदा तैयार किया जा चुका है जिससे यह 'कौमÓ संरक्षित रहेगी। परंतु, मध्यप्रदेश में यह कौम खतरे में है। 'बीमारूÓ की श्रेणी से उबर नहीं पा रहा मध्यप्रदेश 'संगठित और सरकारी भ्रष्टाचारÓ की गिरफ्त में है। ब्यूरोक्रेट जोशी दंपत्ति के पास से मिली अरबों की चल-अचल संपत्ति से इस धारणा पर मुहर भी लगी है। बावजूद इसके राज्य में 'सचेतकÓ को सुरक्षित रखने की कोई कोशिश नजर नहीं आती।

ताजा उदाहरण, एक सरकारी डॉक्टर का है, जिसका नाम आनंद राय है। वे 21 अगस्त की रात तक इंदौर के एमजीएम मेडिकल कॉलेज के नेत्र रोग विभाग में सिनीयर रेसीडेंट थे। उस रात एक बजे तक चिकित्सा शिक्षा विभाग भोपाल और कॉलेज डीन के कक्ष में समानांतर बैठकें होती रहीं। आखिर में हुआ कि राज्य में जारी जूनियर डॉक्टरों की हड़ताल को उकसाने के आरोप में डॉ. राय को बर्खास्त कर दिया जाए। आरोप का आधार एक खबर को बनाया गया, जिसमें डॉ. राय ने इंदौर जूनियर डॉक्टर्स एसोसिएशन का संरक्षक होने के नाते कहा था 'मैं जूडॉ की मांगों का नैतिक समर्थन करता हूं।Ó 

सवाल है, फिर डॉ. राय को बगैर नोटिस दिए, देर रात तक बैठक करके ताबड़तोड़ बाहर क्यों किया गया? क्या  चिकित्सा शिक्षा विभाग या कॉलेज प्रबंधन की डॉ. राय से जाति दुश्मनी है? क्या डॉ. राय के कहने भर से राज्यभर के जूनियर डॉक्टर हड़ताल कर रहे हैं? क्या डॉ. राय का एक बयान ही उनकी बर्खास्तगी का कारण है या बर्खास्तगी की पृष्ठभूमि पहले से ही तैयार थी ? क्या डॉ. राय व्हिसल ब्लोअर हैं, इसलिए उन्हें सिस्टम से बाहर कर दिया गया?

सवालों का जवाब तलाशने के लिए फ्लैश बैक में जाना होगा। 15 अक्टूबर 2007 को मप्र हाईकोर्ट जस्टिस आरएस झा ने चिकित्सा शिक्षा विभाग को अंतरिम आदेश दिया कि एमजीएम मेडिकल कॉलेज के नेत्र रोग विभाग में सिनीयर रेसीडेंट के पद पर भर्ती के लिए डॉ. आनंद राय की अर्जी भी मंजूर की जाए। इसके बाद ही उन्हें राहत मिली। पहले विभाग का तर्क था कि डॉ. राय ने पीजी डिप्लोमा किया है, इसलिए उन्हें पात्रता नहीं है। डॉ. राय ने भारतीय चिकित्सा परिषद (एमसीआई) के दस्तावेजों के आधार पर कोर्ट में केस दायर किया था। बहरहाल, साक्षात्कार में योग्यता के आधार पर उन्हें चयनित कर लिया गया। इसके बाद यह कहकर नियुक्ति को रोक दिया गया कि याचिका हाईकोर्ट में खत्म नहीं हुई है। डॉ. राय फिर से जबलपुर हाईकोर्ट की शरण में गए। जस्टिस दीपक मिश्रा व आरके गुप्ता की युगलपीठ ने आदेश दिया कि डॉ. राय की याचिका समाप्त हो गई है। मजबूरन, विभाग को 'मुंह बिगाड़करÓ डॉ. राय को नौकरी पर रखा।

डॉ. राय वर्ष 2005 से 07 तक पीजी छात्र थे और तब जूनियर डॉक्टर्स एसोसिएशन इंदौर के अध्यक्ष, प्रदेश के महासचिव और प्रवक्ता रहे। उनके दौर में भी हड़तालें हुई और वे सरकार के निशाने पर आए गए। सीनियर रेसीडेंट बनने के बाद उन्हें सिस्टम की खामियां महसूस हुई। उन्हें लगा कि मेडिकल कॉलेजों से जुड़े अस्पतालों में हड़ताल के दौरान भी व्यवस्थाएं माकूल रखने के लिए एमसीआई मापदंड के मुताबिक हर कॉलेज में सीनियर व जूनियर रेसीडेंट की पर्याप्त भर्ती की जाना चाहिए। इसे लेकर उन्होंने 'सूचना का अधिकारÓ का हथियार अपनाया और केंद्र व राज्य सरकार से हजारों जानकारियां बटौरी। इस दौरान ही उनकी विभाग के संचालक, प्रमुख सचिव और मंत्री से वैचारिक टकराहट शुरू हुई। उनके तर्कों को कोई मानने को तैयार नहीं हुआ तो वे जबलपुर हाईकोर्ट पहुंच गए। वहां 6302/2010 नंबर से एक याचिका दायर की, जिसमें रेसीडेंट डॉक्टरों की संख्या, अधिकारों और नियमित नियुक्ति के मामले उठाए गए हैं। याचिका में हाईकोर्ट से दो बार विभागीय अधिकारियों को दो बार नोटिस भी हो भी हो चुके हैं। यह और बात है कि सरकार ने अब तक जवाब नहीं दिया है।

तीन वर्ष में ही डॉ. राय एक व्हिसल ब्लोअर के रूप में उभरे हैं। वे अब तक चिकित्सा शिक्षा विभाग के डॉक्टरों की चल-अचल संपत्ति, राज्य के मेडिकल कॉलेजों की एमसीआई मान्यता, राज्य में स्वास्थ्य नीति की कमी, मेडिकल यूनिवर्सिटी की गैरमौजूदगी के साथ ही सीनियर डॉक्टरों की प्रायवेट प्रेक्टिस, ड्यूटी ओवर्स में डॉक्टरों का ड्यूटी से गायब रहना, सरकारी अस्पतालों में गरीब मरीजों की अनदेखी, मरीजों को प्रायवेट लेबोरेटरी व अस्पतालों में रैफर करना, ग्रामीण स्वास्थ्य सेवाओं में पसरा भ्रष्टाचार जैसे कई मसले उठा चुके हैं। उनका हथियार सूचना का अधिकार रहा है।

जुलाई 2010 में डॉ. आनंद राय ने बहुराष्टï्रीय कंपनियों द्वारा विकसित दवाइयों के मरीजों पर परीक्षण (ड्रग ट्रायल) का खुलासा किया। इसके लिए उन्होंने मीडिया और विधायकों को जरिया बनाया। मीडिया ने खबरें प्रकाशित की और विधायकों ने विधानसभा में सरकार से सवाल पूछे। करोड़ों अरबों के ड्रग ट्रायल के खेल की पोल खुलने से पूरे राज्य की स्वास्थ्य सेवाओं और डॉक्टरों के 'नोबलÓ चरित्र पर प्रश्नचिह्न उठ खड़ा हुआ। सरकार अनुत्तरित रही और राज्य के आर्थिक अपराध अनुसंधान ब्यूरो व लोकायुक्त ने ट्रायल में लिप्त कुछ नामचीन डॉक्टरों की जांच शुरू कर दी। जैसा कि राज्य में होता आया है, सरकार ने लीपापोती शुरू कर दी। मरीजों और सरकार की आंखों में साफ-साफ धूल छोंकने वाले डॉक्टरों को 'शोधार्थीÓ (रिसर्चर) बताया गया। हालांकि, सरकार का यह कृत्य जनता को हजम नहीं हो रहा है। डॉ. राय स्वास्थ्य समर्पण सेवा समिति नाम के एक संगठन से भी जुड़े हैं। इसी संगठन के जरिए उन्होंने 'ट्रायलÓ मुद्दे को उठाया है।

ड्रग ट्रायल के बाद से ही पूरा सरकारी तंत्र डॉ. राय को 'निपटानेÓ की जोड़तोड़ में था। अगस्त में शुरू हुई जूनियर डॉक्टरों की हड़ताल में तंत्र कामयाब हो गया। डॉ. राय इंदौर जूनियर डॉक्टर्स एसोसिएशन के संरक्षक हैं और इसी नाते हड़ताल के दौरान उन्होंने एक-दो बार मीडिया में कहा था 'मैं जूडॉ की मांगों का नैतिक समर्थन करता हूं।Ó बस फिर क्या था, इस बयान को आधार बनाकर उन्हें 'बाहरÓ का रास्ता दिखा दिया। हद तो यह हो गई कि उनकी बर्खास्तगी को एक विज्ञापन के जरिए प्रमुख अखबारों में प्रकाशित करवाया गया, जिसमें संभवत: कुछ लाख रुपए खर्च हुए होंगे। 

 प्राकृतिक न्याय के तहत डॉ. राय ने फिलहाल कॉलेज को एक नोटिस दिया है, निश्चत तौर पर इसका उन्हें इसका नकारात्मक जवाब मिलेगा। इसके बाद ही वे कोर्ट की दहलीज पर जाकर न्याय मांग सकते हैं। खुशी इस बात की है कि डॉ. राय निराश नहीं हुए हैं। उनका कहना है मुझे सिर्फ और सिर्फ ड्रग ट्रायल खुलासे के कारण हटाया गया है। सरकार संदेश देना चाहती है कि सरकारी तंत्र के भीतर जो व्यक्ति 'आवाजÓ उठाऐगा, उसे इसी तरह दबा दिया जाएगा। मैं इससे घबराने वाला नहीं हूं, न्याय पाकर ही दम लूंगा।  

इस जिंदा उदाहरण से साबित होता है ...
मध्यप्रदेश में व्हीसल ब्लोअर सरकारी तंत्र के निशाने पर हैं।

सोमवार, अगस्त 23, 2010

व्हिसल ब्लोअर की सफाई ?

चिन्मय मिश्र 
 
ये  किस तरह का समय है, जब पेड़ों के बारे में बात करना लगभग अपराध है।

मध्यप्रदेश में चल रही जूनियर डॉक्टरों की हड़ताल की आड़ में डॉ. आनंद राय की बर्खास्तगी उन सभी सरकारी कर्मचारियों के लिए चेतावनी है, जो प्रशासन में व्याप्त भ्रष्टाचार के खिलाफ आवाज उठा रहे हैं। डॉ. राय ने इंदौर के महात्मा गांधी स्मृति चिकित्सा महाविद्यालय व महाराजा यशवन्त राव अस्पताल में बिना अनुमति के बहुराष्ट्रीय दवाई कंपनियों के लिए किए जा रहे ड्रग ट्रायल का पर्दाफाश किया था। उनकी बर्खास्तगी के आदेश को मीडिया के लिए भी एक चेतावनी माना जा सकता है। क्योंकि डॉ. राय द्वारा किए गए रहस्योद्घाटन को अंतत: मीडिया ने ही व्यापक समाज तक पहुंचाया था। इसलिए यह आदेश मीडिया को भी उसकी हैसियत बताने का तरीका है कि वे भले ही समाज हित के लिए अपना सर्वस्व दांव पर लगा दें, लेकिन प्रशासन वही करेगा जो कि उसके स्वयं के हित में है।

इस आदेश का अध्ययन इसलिए भी महत्वपूर्ण हो जाता है क्योंकि हड़ताल की वजह से जहां अन्य जूनियर डॉक्टर्स को 15 दिनों के लिए निलंबित किया गया है, वहीं डॉ. राय के अनुसार उन्होंने हड़ताल की अवधि में भी ओपीडी और इमरजेंसी विभाग में अपनी सेवाएं दी थी। इसके बावजूद सूत्रों का कहना है कि उन्हें 'बेहतरीÓ के लिए बर्खास्त किया गया है। सवाल उठता है कि यह किसकी बेहतरी के लिए किया गया है? हड़ताल के दौरान भी अपना काम करना क्या 'बेहतरी  की श्रेणी में नहीं आता? दरअसल बात बहुत दूर तक जा रही है। एक ओर सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाओं की बदहाली तो चर्चा में थी ही, वहीं दूसरी ओर मई में प्रधानमंत्री कार्यालय द्वारा चार बहुराष्ट्रीय दवाई कंपनियों  नोवारिटस, बीएमएस, इलिलिली और फाइजर के सर्वोच्च अधिकारियों के साथ बैठक में भारतीय दवाई निर्माताओं का मानना है कि देश में निर्मित 'जेनेरिकÓ दवाइयों के कारण भारत व तीसरी दुनिया के देशों और कुछ हद तक विकसित देशों में भी दवाई की कीमतें काबू में रहती हैं। यदि बहुराष्ट्रीय कंपनियों की बात मान ली जाती है, तो आम आदमी को जीवनरक्षक दवाइयों के लिए काफी अधिक मूल्य देना होगा।

इसी दौरान मंदसौर स्थित पशुपतिनाथ मंदिर के लिए सरकारी तौर पर चंदा इकठ्ठा  करना भी गंभीर मामला है। कहा जा रहा है कि पिछले वर्ष तत्कालीन कलेक्टर ने 'मनोकामना अभिषेक योजना के माध्यम से 4.5 करोड़ रुपये इकठ्ठा किए थे और इस बार तो जिलेभर में  मनोकामना अभिषेक वर्ष २०१० समारोहित कर पांच करोड़ रुपये इकठ्ठा करने की योजना है। इस हेतु सरकारी अधिकारियों को नोडल ऑफिसर नियुक्त कर दिया गया है और रसीद कट्टे छपवाकर 'टारगेटÓ तय कर वितरित कर दिए गए हैं।

सरसरी तौर पर देखने में उक्त दोनों मामलों में कोई समानता नजर नहीं आएगी, परन्तु गहराई से देखने पर समझ में आता है कि दोनों मामलों में शासन-प्रशासन अपनी तरह से मूल्य व मानक तय कर रहा है। 'व्हिसल ब्लोअरÓ बिल को अभी कैबिनेट से ही सहमति मिली है, अतएव प्रशासन में रहकर भ्रष्टाचार उजागर करने वालों की अभी खैर नहीं है। इस अधिनियम के अभाव में सूचना का अधिकार कानून को लेकर अमित जेठवा जैसे भ्रष्टाचार उजागर करने वालों का हश्र हम देख चुके हैं।

सरकारें भी चाहती हैं कि व्हिसल ब्लोअर अधिनियम पारित होने से पहले जितनी 'सफाईÓ संभव हो कर ली जाए परन्तु यह विध्वंसकारी परिपाटी है जिससे सार्वजनिक क्षेत्र को बचाया जाना चाहिए। दहशत फैलाने की कोशिशों के समक्ष चुप बैठना भी समझदारी नहीं है।


चिन्मय मिश्र  सामाजिक कार्यकर्ता  हैं.
पत्रिका : २३ अगस्त २०१०

शुक्रवार, अगस्त 20, 2010

ड्रग ट्रायल से 51 रोगियों पर साइड इफेक्ट

- विधानसभा के दस्तावेज में मंत्री ने मंजूर की सच्चाई

बहुराष्टï्रीय कंपनियों द्वारा विकसित दवा के मरीजों पर प्रयोग (ड्रग ट्रायल) से राज्य के सरकारी मेडिकल कॉलेजों में 51 रोगियों पर साइड इफेक्ट हुए हैं। ये मरीज पिछले पांच वर्ष में कॉलेजों से जुड़े अस्पतालों में इलाज के लिए गए थे।

यह जानकारी विधानसभा से जारी एक दस्तावेज में उपलब्ध है। चिकित्सा शिक्षा राज्य मंत्री महेंद्र हार्डिया ने विधानसभा में यह जानकारी दी थी। उन्होंने यह भी बताया था कि पांच वर्ष में 2365 रोगियों पर ट्रायल हुआ। इसमें 1644 बच्चे और 721 वयस्क हैं।

कुछ की मौत की आशंका
आशंका है कि जिन मरीजों पर दुष्प्रभाव हुआ है, उनमें से कुछ की मौत भी हुई होगी। वैसे भी, सूचना का अधिकार में प्राप्त एक दस्तावेज में जबलपुर के कैंसर अस्पताल में एक महिला रोगी की मौत की पुष्टि हो चुकी है। इंदौर के चाचा नेहरू बाल चिकित्सालय में पदस्थ शिशु रोग विशेषज्ञ डॉ. हेमंत जैन ने भी मंजूर किया है कि ट्रायल के दौरान एक बच्चे की मौत हुई थी और इसकी जानकारी एथिकल कमेटी को दे दी गई थी।

सूची का वादा किया था, पर नहीं दी
रतलाम के विधायक पारस सकलेचा ने बताया 30 जुलाई को ट्रायल के मसले पर ध्यानाकर्षण प्रस्ताव विधानसभा में रखा था। बहस के आखिर में चिकित्सा शिक्षा राज्य मंत्री ने वादा किया था कि सभी मरीजों की सूची दी जाएगी, किंतु अब तक यह प्राप्त नहीं हुई है। इसके लिए चिकित्सा शिक्षा प्रमुख सचिव आईएस दाणी से भी चर्चा की है। 

पत्रिका: १९ अगस्त २०१० 

शुक्रवार, अगस्त 13, 2010

फोन, फैक्स नंबरों और ई-मेल पर नजर

- ड्रग ट्रायल पर ईओडब्ल्यू की घेराबंदी
- एमजीएम मेडिकल कॉलेज के अस्पतालों में अवैध कनेक्शन



बहुराष्टरीय कंपनियों द्वारा विकसित दवा के मरीजों पर परीक्षण (ड्रग ट्रायल) से जुड़े मामले की जांच कर रहे आर्थिक अपराध अन्वेषण ब्यूरो (ईओडब्ल्यू) की नजर उन फोन और फैक्स नंबरों और ई-मेल पतों पर भी है, जिनके जरिए यह कारोबार एमजीएम मेडिकल कॉलेज में फैला। इन नंबरों की जानकारी के आधार पर पैसे के लेन-देन की बात को पुख्ता किया जा सकेगा।

सूत्रों से मिली जानकारी के मुताबिक ईओडब्ल्यू ने कुछ ईमेल और फोन व फैक्स नंबर जुटा लिए हैं। 'पत्रिकाÓ को मिली जानकारी के मुताबिक ये ऐसे फोन और फैक्स नंबर हैं, जिन्हें कॉलेज से जुड़े अस्पतालों में लगाने के लिए किसी की अनुमति भी नहीं ली गई। एक तरह से ये सभी नंबर 'अवैधÓ हैं।

डीन के भी होंगे बयान
ईओडब्ल्यू मेडिकल कॉलेज डीन डॉ. एमके सारस्वत के बयान भी लेगा। संभवत: यह बयान 15 अगस्त के बाद लिया जाएगा। उनसे पूछा जा सकता है कि किस डॉक्टर ने कितने रुपए कॉलेज के स्वशासी निकाय में जमा करवाए और उन रुपयों का क्या इस्तेमाल किया गया।

मप्र नियमावली की भी घेराबंदी
ईओडब्ल्यू ने ट्रायल करने वालों डॉक्टरों पर मप्र के उन नियमों से भी घेराबंदी करने का मन बनाया है, जो यहां काम करने वाले हर सरकारी कर्मचारी के लिए पालन करना अनिवार्य है। मप्र सिविल सेवा आचरण नियम 1965 के नियम 14 के मुताबिक प्रथम और द्वितीय श्रेणी अफसर 1500 रुपए से अधिक का उपहार नहीं ले सकता है। यदि वह ऐसा करता है तो इसकी जानकारी एक माह के भीतर सरकार को देना अनिवार्य है। नियम 14 के उपनियम पांच के मुताबिक कोई भी सरकारी कर्मचारी एकाउंट पेयी चेक के जरिए 2000 रुपए से अधिक प्राप्त नहीं कर सकेगा। नियम से अधिक प्राप्त करना रिश्वत की श्रेणी में रखा गया है।


फोन / फैक्स नंबर         यहां है कनेक्शन

0731 2512513        चाचा नेहरू अस्पताल 
0731 4048207        नेत्ररोग विभाग 
0731 4066606        मनोरोग विभाग 
0731 2711611        ज्ञानपुष्प सेंटर
0731 2711623        ज्ञानपुष्प सेंटर
0731 2491214        मेडिसिन विभाग
0731 2526839        मेडिसिन विभाग


पत्रिका : १४ अगस्त २०१०

ईओडब्ल्यू ने छह डॉक्टरों से मांगा करोड़ों हिसाब

- एआईजी ने इंदौर में शुरू की जांच



बहुराष्टरीय कंपनियों द्वारा विकसित दवा के मरीजों पर प्रयोग (ड्रग ट्रायल) मामले में आर्थिक अपराध अनुसंधान ब्यूरो (ईओडब्ल्यू) ने सख्त रवैय्या अपनाते हुए छह डॉक्टरों से पाई-पाई का हिसाब मांगा है। इसके लिए डॉक्टरों को व्यक्तिगत रूप से बुलाया भी गया है। डॉक्टरों और उनके परिजन के बैंक खातों की जानकारियां भी जुटाई जा रही है।

'पत्रिकाÓ में प्रकाशित खबरों के आधार पर स्वास्थ्य समर्पण सेवा समिति नामक डॉक्टरों के संगठन के अध्यक्ष डॉ. आनंद राजे ने एमजीएम मेडिकल कॉलेज से जुड़े अस्पतालों में ट्रायल करने वाले छह डॉक्टरों के खिलाफ ईओडब्ल्यू आईजी के समक्ष भोपाल में शिकायत दर्ज करवाई थी। मामले की पड़ताल की जिम्मेदारी भोपाल पदस्थ डीआईजी प्रियंका मिश्रा को सौंपी गई है। बुधवार को वे इंदौर में ही थीं। सूत्रों के मुताबिक उन्होंने कॉलेज प्रबंधन से छहों डॉक्टरों की संपूर्ण जानकारी मांगी है। ट्रायल करवाने वाली कंपनी से मिलने वाले रूपए से लेकर मरीज के नाम पते तक पूछे गए हैं। शिकायत के मुताबिक छह डॉक्टरों ने सरकारी पद का दुरुपयोग करके मरीजों की जान जोखिम में डाली और अकूत संपत्ति जुटाई है।


छह डॉक्टर और दो करोड़ का हिसाब 

एक-
डॉ. हेमंत जैन, प्रोफेसर, शिशु रोग विभाग
राशि- 56  लाख
अवधि-  2005 से अब तक
मरीज- 1170
रोग - बच्चों में ब्रोंकराइटिस, पोलियो, बीपी, हेपेटाइटिस बी, टीटनेस।

दो-
डॉ. अनिल भराणी, प्रोफेसर, मेडिसिन विभाग
राशि- 44 लाख
अवधि- 2005 से अब तक
मरीज - 237
रोग- कोरोनरी सिंड्रोम, विटामिन से लकवा, सेकंड स्ट्रोक, स्टेबल एंजाइमा, हार्ट अटैक।


तीन-
डॉ. अपूर्व पुराणिक, प्रोफेसर, मेडिसिन विभाग
राशि- 42 लाख
अवधि- 2007 से अब तक
मरीज - 39
रोग- पार्किंसन्स, सिवीयर डेमेंशिया, अलझाइमर।

चार-
डॉ. अशोक वाजपेयी, पूर्व एचओडी, मेडिसिन (हाल ही में वीआरएस)
राशि- 41.37 लाख
अवधि- 2005 से अब तक
मरीज - 28
रोग- सीओपीडी, अस्थमा, निमोनिया।
(एसो. प्रोफेसर संजय अवासिया भी भागीदार)


पांच-
डॉ. सलिल भार्गव, अधीक्षक, एमवायएच
राशि-4.5 लाख
अवधि- 2005 से 08 तक
मरीज - 43
रोग- सीओपीडी, डायबिटीक नेफ्रोपेथी। 


छह -
डॉ. पुष्पा वर्मा, प्रोफेसर, नेत्ररोग विभाग

राशि- अज्ञात
अवधि- 2005 से अब तक
मरीज- 35 से अधिक
रोग- अज्ञात।



'ड्रग ट्रायल केस की जांच के लिए एक दल इंदौर में है। आर्थिक मामलों से जुड़े सभी पहलूओं की पड़ताल की जा रही है।Ó 
- अजय शर्मा, आईजी, ईओडब्ल्यू

News in Patrika on 13th August 2010 

सरकार ने छुपाई ड्रग ट्रायल की जानकारी

- विधायकों को नहीं मिला जवाब
- ध्यानाकर्षण प्रस्ताव में किया वादा भी नहीं निभाया

बहुराष्टरीय कंपनियों द्वारा विकसित दवा और टीकों के मरीजों पर परीक्षण (ड्रग ट्रायल) की जानकारी सरकार द्वारा छुपाई जा रही है। यह आरोप दो विधायकों ने लगाया है। दोनों विधायकों ने ट्रायल के लिए विधानसभा में प्रश्नों के जवाब अब तक नहीं दिए गए हैं। इतना ही नहीं एक विधायक को वह जानकारी भी नहीं दी गई है जिसका वादा ध्यानाकर्षण प्रस्ताव के दौरान राज्य मंत्री ने विधानसभा में किया था।

सरदारपुर के विधायक प्रताप ग्रेवाल और रतलाम के विधायक पारस सकलेचा दोनों ने तारांकित प्रश्न के जरिए राज्य के सरकारी मेडिकल कॉलेजों में चल रहे ट्रायल के धंधे की विस्तार से जानकारी मांगी थी। ग्रेवाल के प्रश्न का क्रमांक 540 था और चिकित्सा शिक्षा विभाग को इसका जवाब 23 जुलाई को देना था। उस दिन सदन में बताया गया कि विभाग जानकारी एकत्रित कर रहा है। सकलेचा के प्रश्न का क्रमांक 1369 था और इसका जवाब 30 जुलाई को आना था। उन्हें भी वही उत्तर दिया गया, जो ग्रेवाल को दिया था।

मेडिकल कॉलेजों से भेजा जा चुका जवाब
इंदौर, भोपाल, जबलपुर, ग्वालियर, रीवा और सागर सभी मेडिकल कॉलेजों ने अपना जवाब भेज दिया है। सभी कॉलेजों के प्रबंधन ने इसकी पुष्टि की है।

विधानसभा अध्यक्ष की बात भी नहीं मानी
30 जुलाई को विधानसभा में सात विधायकों ने ट्रायल पर ध्यानाकर्षण प्रस्ताव रखा था। तब चिकित्सा शिक्षा राज्य मंत्री महेंद्र हार्डिया ने सकलेचा से कहा था कि आपको मरीजों की सूची मय नाम पते के उपलब्ध करवाई जा रही है। तब विधानसभा अध्यक्ष ईश्वरदास रोहाणी ने भी जोर देकर कहा था यह बेहद गंभीर मामला है, इसलिए ध्यान रखा जाए। मरीजों की सूची भी आज तक उपलब्ध नहीं हो सकी है।


'चूंकि यह गरीब और जरूरतमंद रोगियों की जिंदगी से जुड़ा सवाल है, इसलिए जवाब तत्काल देना चाहिए। विधानसभा सचिव को मैं पत्र लिख रहा हूं ताकि वे देख सकें कि जवाब कहां अटका है।Ó
- प्रताप ग्रेवाल, विधायक, सरदारपुर

' सवाल वे ही पूछे गए थे, जिनके जवाब चिकित्सा शिक्षा विभाग के पास उपलब्ध है। फिर भी क्यों नहीं दिए गए, यह समझ से परे है। विधानसभा सचिव, चिकित्सा शिक्षा विभाग प्रमुख सचिव दोनों को पत्र भेज रहा हूं, ताकि व्यवस्था की पोल सामने आ सके।Ó
- पारस सकलेचा, विधायक, रतलाम

'जानकारी एकत्रित करने वाले प्रश्नों के जवाब अगले सत्र के पहले दिन तक सदन के पटल पर आ जाना चाहिए। विधानसभा में ऐसा एक नियम है। कई विभाग इसी का फायदा उठाते हैं। अभी मेरे पास दोनों विधायकों की ओर से कोई पूछताछ नहीं हुई है। दोनों प्रश्नों के नंबर मैंने नोट कर लिए हैं, देखता हूं विभाग ने क्या प्रगति की है।Ó
- डॉ. एके पयासी, प्रमुख सचिव, विधानसभा

 News in Patrika on 13th August 2010

बुधवार, अगस्त 11, 2010

बताओ, आपके अस्पताल में मानवाधिकारों का हनन तो नहीं हो रहा?

- ड्रग ट्रायल मामले में राज्य मानवाधिकार आयोग ने एमवायएच को भेजा नोटिस

बहुराष्टरीय कंपनियों द्वारा विकसित दवा और टीकों का रोगियों पर परीक्षण (ड्रग ट्रायल) पर राज्य मानवाधिकार आयोग ने सख्त रवैय्या अपना लिया है। आयोग ने एमजीएम मेडिकल कॉलेज से जुड़े अस्पताल एमवायएच को नोटिस भेजकर पूछा है कि बताएं, ट्रायल के कारण आपके अस्पताल में आ रहे रोगियों के मानवाधिकारों का हनन तो नहीं हो रहा? जवाब के लिए आयोग ने तीन सप्ताह की समय सीमा तय की है।

आयोग से प्राप्त जानकारी के मुताबिक आयोग के अध्यक्ष पूर्व जस्टिस डीएम धर्माधिकारी और दो अन्य सदस्यों ने 'पत्रिकाÓ अखबार में प्रकाशित खबरों के आधार पर एमवायएच अधीक्षक को 30 जुलाई को पत्र भेजा है। आयोग की खबरों की कटिंग स्वास्थ्य समर्पण सेवा समिति नामक एनजीओ द्वारा उपलब्ध हुई थी। ताज्जुब तो यह है कि एमवायएच अधीक्षक डॉ. सलिल भार्गव को यह नोटिस आज तक प्राप्त नहीं हुआ है। वे कहते भी हैं मुझे इस तरह की कोई जानकारी नहीं है।



इन बिंदुओं पर मांगी है जानकारी
ट्रायल से मरीजों की सेहत पर क्या असर पड़ रहा है?
मरीजों की सुरक्षा का ख्याल कैसे रखा जा रहा है?
मरीज के मानवाधिकार की रक्षा के लिए क्या एहतियात बरती जाती है?

भला क्या जवाब देंगे, ट्रायल में लिप्त अधीक्षक
आयोग ने एमवायएच अधीक्षक को नोटिस दिया है, लेकिन अधीक्षक डॉ. भार्गव खुद ही ट्रायल में लिप्त हैं। वे सरकारी नौकरी करके अपने ट्रायल सेंटर 'ज्ञान पुष्पÓ पर ट्रायल करते हैं। वर्तमान में उनके केंद्र पर करीब एक हजार मरीज रजिस्टर्ड हैं, जो ट्रायल से गुजर रहे हैं।

News in Patrika on 10th August 2010

सोमवार, अगस्त 09, 2010

Data suggests clinical trial deaths on rise

TEENA THACKER
NEW DELHI, 
 
DESPITE the Union Health Ministry’s insistence that deaths occurring during clinical trials may be due to unrelated health reasons, according to data available with the ministry, the number has been steadily increasing. 
 
In 2010 alone, as many as 462 people, who were a part of clinical trials, died (till June).
According to data, there were 132 deaths in year 2007, 288 deaths in the year 2008 and 637 deaths in year 2009.

Officials maintain that deaths occurring during clinical trials could be due to a variety of reasons ranging from disease-related ones to side effects of an unrelated cause.

“Such deaths are investigated for casual relationship by investigator and by medical experts of sponsor,” ministry officials said.

India has recently become a favoured destination for organisations to conduct clinical trials.
In 2010 till now, permission has been obtained for about 117 global clinical trials (international companies) and 134 local (Indian) trials. In 2009, 258 global and 195 local trials took place in India. 2008 was no different with approximately 246 global and 275 local trials obtaining permission.

The companies approaching the Central Drugs Standard Control Organisation (CDSCO) include names like GlaxoSmithKline, Johnson and Johnson, Sanofiaventis, Novartis among others and clinical research organisations like Quintiles, ICON, GVK and many more.

Though officials say that deaths occurring due to negligence of the company during trials is rare, such instances have come to light. The most recent case being the trial of a human papilloma virus (HPV) vaccine in Andhra Pradesh, where four girls died after being vaccinated. While, the Indian Council of Medical Research (ICMR) halted the trials, experts are still investigating the cause of the deaths.

According to ministry officials, conducting trials in India is easier than in North America or Europe, where many clinical trials get tangled in litigation as the patients are very aware of their rights. Tr ials for a standard drug in the US may cost up to $150 million but could be tested in India for 60 per cent less.
With the industry growing fast, the Drug Controller General of India (DCGI) proposes to add penal provisions for fraud and misconduct in clinical research soon.

TEENA THACKER is a journalist in THE INDIAN EXPRESS 
This story is published in the paper on 9th August 2010.

रविवार, अगस्त 08, 2010

डॉक्टर को भी पता नहीं रहती दवा

- एमजीएम मेडिकल कॉलेज एथिकल कमेटी चेयरमैन डॉ. केडी भार्गव ने की पुष्टि
- मंजूर किया स्टॉफ की कमी के कारण नहीं कर पाते मरीजों की निगरानी 


बहुराष्टरीय कंपनियों द्वारा विकसित जिन दवाओं का मरीज पर परीक्षण (ड्रग ट्रायल) किया जा रहा है, उनमें से ज्यादातर के नाम तक डॉक्टरों को पता नहीं रहते हैं। दवा एक केमिकल मिश्रण होता है और उसके तत्वों की जानकारी सिर्फ कंपनी को ही रहती है। डॉक्टर तो दवा को एक नंबर से जानते हैं। हालांकि, उन्हें दवा के साइड इफेक्ट की पूरी जानकारी रहती है।
इस बात की पुष्टि एमजीएम मेडिकल कॉलेज के अस्पतालों में ट्रायल को अनुमति देने के लिए बनाई गई एथिकल कमेटी के अध्यक्ष डॉ. केडी भार्गव भी करते हैं। शहर के ख्यात गेस्ट्रोइंटोलॉजिस्ट व कॉलेज के मेडिसिन विभाग के पूर्व एचओडी डॉ. भार्गव ने 'पत्रिकाÓ को बताया इंदौर में डबल ब्लाइंड श्रेणी के ट्रायल चल रहे हैं। इस श्रेणी का अर्थ है जिस दवा का प्रयोग मरीज पर किया जाता है, उसकी जानकारी न तो डॉक्टर को रहती है और न ही मरीज को। प्लेसिबो ट्रायल में भी मरीज को दवा देना बंद कर दिया जाता है। उसे जो गोली दी जाती है, उसमें ग्लूकोज या स्टार्च रहता है,जो बेअसर रहता है। यह प्रयोग दवा के प्रभाव को जानने के लिए किया जाता है।


हैरान करते डॉ. केडी भार्गव के पांच कथन
 एथिकल कमेटी अध्यक्ष डॉ. केडी भार्गव


कथन एक - ड्रग एंड कॉस्मेटिक्स एक्ट में 2005 में किया गया संशोधन ड्रग ट्रायल पर लागू नहीं होता है।
सच्चाई- 20 जनवरी 2005 को भारत सरकार ने एक्ट के दूसरे संशोधन का नोटिफिकेशन किया। इसके शेड्यूल 'वायÓ के तमाम नियम ड्रग ट्रायल के लिए बनाए गए हैं। स्वास्थ्य राज्य मंत्री महेंद्र हार्डिया ने भी विधानसभा में इस एक्ट की बाध्यता की बात कही है।

कथन दो - भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद (आईसीएमआर) की गाइडलाइन ड्रग ट्रायल पर लागू नहीं होती है। हम केवल ड्रग कंट्रोलर जनरल ऑफ इंडिया (डीसीजीआई) द्वारा बहुराष्टरीय कंपनी को मिली अनुमति और क्लिनिकल ट्रायल रजिस्ट्री इंडिया (सीटीआरआई) रजिस्ट्रेशन देखते हैं।
सच्चाई- देश में होने वाले सभी चिकित्सा शोधों के लिए आईसीएमआर सर्वोच्च संस्था है। ड्रग एंड कॉस्मेटिक्स एक्ट संशोधन की लचरता का फायदा उठाकर 2005 के बाद बहुराष्टï्रीय कंपनियों ने धड़ल्ले से ट्रायल शुरू की तो आईसीएमआर ने अक्टूबर 2006 में 120 पेज की गाइडलाइन जारी की। इसकी अनदेखी करना अनैतिक कार्य है।

कथन तीन - राज्य सरकार को ड्रग ट्रायल मामले में हस्तक्षेप करने की जरूरत नहीं है, क्योंकि वह वैसे ही खुद का काम ठीग ढंग से नहीं कर पा रही है।
सच्चाई - राज्य सरकार के विषयों की सूची में एक है स्वास्थ्य। राज्य के नागरिकों की सेहत की सीधी जिम्मेवारी राज्य की ही है। ऐसे में राज्य का नियंत्रण नहीं होने के कारण कंपनियों से मिलने वाले रुपए के चक्कर में नागरिकों की सेहत से खिलवाड़ किया जा रहा है। राज्य का नियंत्रण नहीं होने से निजी क्षेत्र में भी बेकाबू ट्रायल जारी हैं।

कथन चार - मरीज की सहमति के लिए उसे हिंदी में बनाया गया पांच से छह पेज का पत्र सौंपा जाता है।
सच्चाई- एमवायएच अधीक्षक डॉ. सलिल भार्गव के हस्ताक्षर से सूचना का अधिकार में प्राप्त हिंदी का सहमति पत्र महज एक पेज का है। इसमें ट्रायल का जिक्र ही नहीं है। बस यह बताया गया है कि डॉक्टर एक अध्ययन कर रहे हैं और इसमें मरीज की जरूरत है।

कथन पांच- क्लिनिकल ट्रायल एग्रीमेंट (सीटीए) पर स्पांसर कंपनी, ट्रायल करने वाले डॉक्टर और मेडिकल कॉलेज डीन के हस्ताक्षर होते हैं। हर बात डीन की जानकारी में रहती है।
सच्चाई- वर्ष 2003 से अब तक के डीन (डॉ. वीके सैनी, डॉ. अशोक वाजपेयी और डॉ. एमके सारस्वत) ने कभी किसी सीटीए पर हस्ताक्षर नहीं किए। मौजूद एमवायएच अधीक्षक डॉ. सलिल भार्गव और उनके पूर्व के डॉ. सीवी कुलकर्णी ने भी इस तरह के किसी एग्रीमेंट की जानकारी होने से इंकार किया है।

कॉलेज को रुपए मिले, तो बंद होंगे ट्रायल
डॉ. भार्गव मंजूर करते हैं ट्रायल के एवज में कंपनियां डॉक्टरों को रुपए देती हैं और उन्हें विदेश भी ले जाती है। यह भी बिल्कुल सच है कि कंपनियों से आनी वाली रकम सीधे कॉलेज के खाते में जमा होने लगे तो डॉक्टर ट्रायल बंद कर देंगे। 

हम बुजुर्ग हैं, कैसे करें निगरानी
डॉ. भार्गव कहते हैं कमेटी के पास स्टॉफ मौजूद नहीं है, इसलिए उन मरीजों की नियमित निगरानी नहीं की जाती है। मैं खुद 72 वर्ष का हो चुका हूं। दूसरे सदस्य पूर्व जस्टिस पीडी मूल्ये और पर्यावरणविद् कुट्टी मेनन भी बुजुर्ग हैं और ऐसे में फुल टाइम इस काम को नहीं दे पाते हैं। इस काम के लिए तनख्वाह पर किसी व्यक्ति को रखने की जरूरत है।


दूसरे सदस्य भी अनजान
एथिकल कमेटी के सदस्य हाईकोर्ट के रिटायर्ड जस्टिस पीडी मूल्ये कहते हैं दवा की अनुमति मुंबई से लेना पड़ती है। सच्चाई यह है कि सीटीआरआई का ऑफिस दिल्ली में है। पर्यावरणविद कुट्टी मेनन और अर्थशास्त्री डॉ. जयंतीलाल भंडारी मंजूर करते हैं कि उन्हें उस रुपए की जानकारी नहीं रहती, जो कंपनी द्वारा ट्रायल करने वाले डॉक्टर को दिया जाता है।


डॉ. भराणी, पुराणिक ने शुरू की ट्रायल
डॉ. भार्गव बताते हैं डॉ. अपूर्व पुराणिक और डॉ. अनिल भराणी अपने क्षेत्र के बेहद काबिल लोग हैं। एक ने न्यूरोलॉजी और दूसरे ने कॉर्डियोलॉजी में एम्स से डीएम किया। जब मैं मेडिसिन का एचओडी बना तब दोनों किसी कांफ्रेंस के सिलसिले में विदेश गए। वहां किसी दवा कंपनी वाले ने उन्हें ट्रायल करने की सलाह दी। इसके बाद ही दोनों ने एमवायएच में यह काम शुरू किया।

News in Patrika on 8th August 2010

परिजन पर क्यों नहीं किए ट्रायल?

डॉक्टरों ने दी ड्रग ट्रायल पर सफाई, डीन को भी दी जाती है पूरी राशि की जानकारी

ड्रग ट्रायल के आरोपों से घिरे डॉक्टरों ने ड्रग ट्रायल क्या है और इससे क्या लाभ हैं इसे लेकर डॉक्टरों ने होटल क्राउन पैलेस में गोष्ठी का आयोजन किया। डॉक्टरों ने बताया कि कोई भी कंपनी डॉक्टर की योग्यता देखकर ही अनुबंध करती है। डॉक्टरों ने कहा कि कंपनियों से मिलने वाली राशि का खुलासा आयकर विभाग के समक्ष किया जाता है। इसमें कोई चोरी नहीं की जाती। मरीजों की सहमति से किए जाने वाले ट्रायल में किसी तरह की आशंका की गुंजाइश नहीं रह जाती।

ट्रायल विश्व के सभी विकसित और विकासशील देशों में किए जा रहे हैं। यह रोजगार के अवसर पैदा करता है और अनुसंधान में देश को आगे ले जाता है। गोष्ठी में कॉलेज डीन की भूमिका को भी स्पष्ट किया गया। ट्रायल के माध्यम से मिलने वाली राशि की पूरी जानकारी डीन को भी दी जाती है। बैठक में ये सवाल भी उठा कि क्यों गरीब मरीजों पर ही ट्रायल किए जाते हैं? कितने डॉक्टरों ने परिवार के सदस्यों पर ट्रायल किए? इनमें से किसी भी सवाल का जवाब डॉक्टर नहीं दे सके। बैठक में पूर्व कुलपति और ट्रायल का कानून तैयार कर रहे डॉ. भरत छपरवाल, डॉ. सरोज कुमार, अभय छजलानी, इथिकल कमेटी के सचिव डॉ. अनिल भराणी, डॉ. अपूर्व पुराणिक, डॉ. पुष्पा वर्मा, डॉ. आरके माथुर, डॉ. पूनम माथुर, डॉ. उज्ज्वल सरदेसाई व जूनियर डॉक्टर आदि मौजूद थे।

news in Patrika on 7th August

ड्रग ट्रायल से ३ साल में १५१९ मौतें

  केंद्रीय स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण राज्य मंत्री ने लोकसभा में कबूली सच्चाई


 बहुराष्टरीय दवा कंपनियों द्वारा विकसित दवाइयों के मरीजों पर परीक्षण (ड्रग ट्रायल) में सरकार की अनदेखी और डॉक्टरों की मनमानी का मुद्दा लोकसभ  को लेकर तमाम तरह के विवादों और ना नुकुर के बावजूद सरकार ने मान लिया है कि औषधियों के परीक्षण में पिछले तीन साल में करीब १५१९ लोगों को अपनी जान से हाथ धोना पड़ा है। 

केंद्रीय स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण राच्य मंत्री दिनेश त्रिवेदी ने शुक्रवार को लोकसभा में बताया कि दवाइयों की नैदानिक जांच यानी ड्रग ट्रायल के दौरान वर्ष २००७ में १३२, २००८ में २८८, २००९ में ६३७ और जून २०१० तक ४६२ लोगों की मौत हुई है। हालांकि इन लोगों की मौत के कई और भी कारण हो सक ते हैं। गंभीर बीमारियों से पीडि़त मरीजों पर दवाओं का प्रतिकूल प्रभाव च्यादा घातक भी हो सकता है।

उल्लेखनीय है कि पत्रिका ने इंदौर में मरीजों को धोखे में रखकर ड्रग ट्रायल करने वाले रैकेट का भंडाफोड़ किया था, इसके बाद देश भर में इसको लेकर गंभीर बहस छिड़ गई। त्रिवेदी के के मुताबिक देश में ड्रग ट्रायल की अनुमति चाहने वाली दवा निर्माता कंपनियों और ट्रायल संगठनों की बहुत बड़ी तादाद है। 

 केंद्रीय औषधि मानक नियंत्रण संगठन (सीडीएससीओ) के पास लंबित आवेदनों में ग्लैक्सोस्मिथक्लाइन, जॉनसन एंड जॉनसन , एमएसडी, एलीलिली, नोवाॢटस, ब्रिस्टल माइर्स स्क्लिब्स , बेयर हेल्थकेयर, एस्ट्र जेनेका, फाइजर जैसी दवा कंपनियां और क्विंटाइल्स, आईसीओएन, जीवीके बायो, सिरो क्लिनफार्म, पीआरए इंटरनेशनल , पीपीडी, कोवान्स और ओमनीकेयर जैसे नैदानिक अनुसंधान संगठन शामिल हैं।  
 




News in Patrika on 7th Aug 2010

सोमवार, अगस्त 02, 2010

कौन सच्चा अमेरिका या भारत ?

अमेरिका की कंपनियों के इंदौर में 99 ट्रायल हुए, लेकिन भारत सरकार को 56 की ही जानकारी


बहुराष्टरीय कंपनियों द्वारा विकसित दवा और टीकों का इंसानों पर परीक्षण (ड्रग ट्रायल) मामले में भारत सरकार के आंकड़े कटघरे में हैं। ट्रायल का रजिस्ट्रेशन करने वाली भारत की सरकारी संस्था क्लिनिकल ट्रायल्स रजिस्ट्री इंडिया और अमेरिका के राष्टरीय स्वास्थ्य संस्थान के आंकड़ों में भारी अंतर है। भारत सरकार को जानकारी है कि इंदौर में अब तक 56 ट्रायल हुए हैं, जबकि अमेरिका सरकार कहती है इंदौर में 99 ट्रायल हुए हैं। इसके अलावा दूसरे देश भी हैं, जहां की विकसित दवाइयां इंदौर में परखी गई हैं।

अमेरिका में नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ हेल्थ नाम का सरकारी विभाग है। इसकी वेबसाइट पर दर्ज है कि अमेरिका की कंपनियों से भारत में 1432 ट्रायल किए हैं। इनमें से 176 जयपुर में और 47 भोपाल में हुए हैं। इधर, भारत के सीटीआरआई की वेबसाइट बताती है जयपुर में 121 ट्रायल हुए हैं, जबकि भोपाल की कोई जानकारी ही उपलब्ध नहीं है। दोनों ही वेबसाइट 2 अगस्त तक अपडेटेड हैं। 

निगरानी तंत्र नहीं होने का नतीजा
इस नई जानकारी से यह बात साफ होती है कि ट्रायल रुपए हासिल करने के खातिर ही हो रही है, न कि शोध के लिए। कई कंपनियां भारत सरकार को बगैर जानकारी दिए ट्रायल करवा रही हैं। चूंकि ट्रायल की निगरानी का तंत्र ही देश में मौजूद नहीं है, इसलिए कई कंपनियां जमकर लोगों को शिकार बना रही हैं।



ईओडब्ल्यू की जांच इंदौर पहुंची
ड्रग ट्रायल में शामिल सात डॉक्टरों की आर्थिक अपराध अन्वेषण ब्यूरो (ईओडब्ल्यू) द्वारा भोपाल में शुरू की गई जांच, सोमवार को इंदौर पहुंच गई। स्वास्थ्य समर्पण सेवा समिति की शिकायत की जांच के लिए ईओडब्ल्यू डीआईजी प्रियंका मिश्रा यहां आई और कुछ जरूरी दस्तावेजों को बटोरकर भोपाल रवाना हो गई। एमजीएम मेडिकल कॉलेज के मेडिसिन विभाग के प्रोफेसर डॉ. अनिल भराणी, प्रोफेसर डॉ. अपूर्व पुराणिक, एमवायएच अधीक्षक डॉ. सलिल भार्गव, पूर्व प्रोफेसर डॉ. अशोक वाजपेयी, नेत्र रोग एचओडी डॉ. पुष्पा वर्मा, शिशु रोग प्रोफेसर डॉ. हेमंत जैन और एमवायएच सहायक अधीक्षक डॉ. वीएस पाल ईओडब्ल्यू जांच के घेरे में हैं। इन पर सरकारी पद का दुरुपयोग करके अनुपातहीन संपत्ति अर्जित करने का आरोप है।



३ अगस्त २०१० को पत्रिका में प्रकाशित खबर

रविवार, अगस्त 01, 2010

शोध नहीं है ड्रग ट्रायल


एमसीआई के पत्र का साफ संदेश


ड्रग ट्रायल शोध है या नहीं? इस बहस का जवाब चिकित्सा शिक्षा से जुड़ी सर्वोच्च संस्था मेडिकल काउंसिल ऑफ इंडिया (एमसीआई) के एक नियम में मिलता है। एमसीआई के मुताबिक जब ड्रग ट्रायल के परिणाम भारत में प्रकाशित किए जा सकें, तभी यह शोध है। यदि दवा कंपनी ऐसा नहीं करने देती है, तो ट्रायल किया ही नहीं जाना चाहिए।

एमसीआई ने इंडियन मेडिकल काउंसिल नियम 2000 में संशोधन करके यह बात गत वर्ष ही स्पष्ट की है। दरअसल, भारत सरकार ने ड्रग एंड कॉस्मेटिक्स एक्ट 1940 में वर्ष 2005 में संशोधन किया तो देशभर में डॉक्टरों ने शोध के नाम पर ड्रग ट्रायल शुरू कर दिए, परंतु इसके परिणामों को छापने की अनुमति किसी को नहीं मिली। डॉक्टर से समझौता करने वाली स्पांसर कंपनी ने ड्रग ट्रायल के परिणामों को प्रकाशित करने का अधिकार स्वयं के पास सुरक्षित रखती हैं। एमसीआई ने इसी बंधन से ट्रायल को मुक्त रखने के लिए नए नियम जारी किए।

आईसीएमआर के ट्रायल शोध
भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद (आईसीएमआर) देशभर में जो भी ट्रायल करवाती है, उन्हें चिकित्सा जगत में शोध का दर्जा दिया गया है। पोलियो की दवा, स्वाइन फ्लू का टीका ऐसे ही ट्रायल हैं। इनके नतीजों को भारत सरकार द्वारा प्रकाशित किया जाता है और ये देश में चिकित्सा विज्ञान की प्रगति में सहायक साबित होते हैं। बहुराष्टï्रीय कंपनियों द्वारा विकसित दवाइयों के परीक्षण के नतीजों पर कंपनी का अधिकार रहता है।




जवाब भी तैयार नहीं कर पाई सरकार
 बीस दिन में भी नहीं जुटी जानकारी
 तीनों विधायकों के प्रश्न अब तक बेजवाब


बहुराष्टï्रीय कंपनियों द्वारा विकसित दवा और टीकों का मरीजों पर परीक्षण (ड्रग ट्रायल) मामले में भले ही सरकार ने कायदे कानून बनाने की घोषणा कर दी हो, लेकिन अभी भी तीन विधायकों के प्रश्नों के जवाब तैयार नहीं हुए हैं। इन विधायकों ने सरकार से सरकारी मेडिकल कॉलेजों से जुड़े अस्पतालों में ड्रग ट्रायल की जानकारी चाही थी।

सरदारपुर के विधायक प्रताप ग्रेवाल, रतलाम के पारस सकलेचा और ग्वालियर के प्रदुम्म तोमर ने तारांकित प्रश्न पूछे थे। बीस दिन पहले (12 जुलाई) को ग्रेवाल का सवाल सभी मेडिकल कॉलेजों में पहुंचा था। सदन ने ग्रेवाल को सूचना दी थी कि 23 जुलाई को जवाब दे दिया जाएगा, परंतु जब उन्होंने मांगा तो कहा गया जानकारी जुटाई जा रही है। ऐसा ही जवाब सकलेचा और तोमर को मिला।

प्रक्रिया पर सवालिया निशान
विधानसभा में पूछे जाने वाले सवाल के जवाब तय समय सीमा में देने जिम्मेदारी सरकारी अमले की है। मीडिया में जब मामला आ जाए, तो और भी सक्रियता के साथ जानकारी तैयार की जाना चाहिए, परंतु इस मसले में ऐसा नहीं किया गया।

अनियमितता दबाने की कोशिश तो नहीं
ड्रग ट्रायल में बहुत अधिक राशि का लेन-देन होता है। एक मरीज के लिए डॉक्टर को औसतन दो से पांच लाख रुपए मिलते हैं। माना जा रहा है कि इसी पर परदा डालने के लिए जानकारी रोकी गई है।

इन सवालों में अटकी सरकार
- ड्रग ट्रायल कराने वाली कंपनियों से किस डॉक्टर को कितनी राशि मिली?
- जिन मरीजों पर ट्रायल किया गया, क्या उन्हें इसकी जानकारी दी गई? यदि हां, तो नाम बताएं।
- किसी भी राशि के लेनदेन के लिए किससे इजाजत ली गई?
- पांच वर्ष में कितने डॉक्टर विदेश गए और उन्हें किस कंपनी ने भेजा? क्या वे अनुमति लेकर गए?


News in PATRIKA on 02 Aug 2010

निजी अस्पतालों में भी ड्रग ट्रायल का धोखा

ड्रग ट्रायल
कई अस्पतालों में धड़ल्ले से निशाना बन रहे मरीज
स्वास्थ्य विभाग के पास नहीं है कोई जानकारी











बहुराष्टरीय कंपनियों द्वारा विकसित दवा और टीकों का परीक्षण (ड्रग ट्रायल) केवल सरकारी एमजीएम मेडिकल कॉलेज से जुड़े अस्पतालों में ही नहीं हो रहा है। कई निजी अस्पतालों और क्लिनिकों में भी यह काम जोरों पर है। ऐसा भी नहीं है कि किसी एक बीमारी के रोगियों पर ही ट्रायल चल रहे हैं। दिल के ऑपरेशन में लगने वाले स्टेंट से लेकर इनहेलर तक और डायबिटीज से लेकर कैंसर तक के रोगियों तक पर प्रयोग हो रहे हैं। 

भारत सरकार के क्लिनिकल ट्रायल्स रजिस्ट्री-इंडिया (सीटीआरआई) का रिकॉर्ड बताता है कि मप्र में सबसे अधिक ट्रायल इंदौर में किए जा रहे हैं। पिछले चार वर्ष (२००६-२००९) के आंकड़ों पर गौर करें तो मप्र में ८३ दवाओं के ट्रायल किए गए इनमें से ५६ ट्रायल इंदौर में हुए, जबकि २७ ट्रायल भोपाल सहित प्रदेश के अन्य शहरों में किए गए।

निजी अस्पतालों में हो रहे ड्रग ट्रायल के बारे में विभाग के पास कोई जानकरी उपलब्ध नहीं है। नियम देखकर इनके बारे में पड़ताल की जाएगी।
- डॉ. शरद पंडित, सीएमएचओ, इंदौर

ये हैं कुछ निजी डॉक्टर

1. डॉ. सुनील एम. जैन
अस्पताल- टोटल (डायबिटीज थॉयरॉइड हॉरमोन रिसर्च इंस्टीट्यूट)
कंपनी - बोईरिंगर इंगेल्हिम फार्मास्यूटिकल्स सहित कुछ अन्य कंपनियां
उत्पाद - बीआई १३५६ (५ एमजी) सहित कुछ अन्य उत्पाद
बीमारी - डायबिटीक मरीजों में ग्लायकेमिक

२. डॉ.गोविंद एन.मालपानी
अस्पताल-  सुयश
कंपनी - ल्यूपिन
उत्पाद - एलएलएल २०११, नेसल स्प्रे
बीमारी - माइग्रेन


3. डॉ.एके पटेल
अस्पताल-  चोईथराम हॉस्पिटल एण्ड रिसर्च सेंटर
कंपनी - केडिला फार्मास्यूटिकल्स
उत्पाद - पेल्सीटेक्सल, सिस्प्लेटिन (किमोथेरेपिक एजेंट)
बीमारी - स्मॉल सेल लंग केंसर 


4. डॉ. सुशील भाटिया
अस्पताल- चोईथराम हॉस्पिटल एण्ड रिसर्च सेंटर
कंपनी - केडिला फार्मास्यूटिकल्स
उत्पाद - मायकोबैक्टेरियम विथ डॉसिटेक्साल
बीमारी - प्रोस्टेट केंसर

5. डॉ.गिरीश के कवठेकर
 अस्पताल  - सीएचएल अपोलो अस्पताल
 कंपनी  - इन्फीनियम-कोर
 उत्पाद   - कोरोनरी स्टेंट
 बीमारी  - कोरोनरी आर्टरी ब्लॉकेज के उपचार के लिए


6. डॉ.विनोद सोमानी
अस्पताल -  सीएचएल अपोलो 
कंपनी - इन्फीनियम-कोर
उत्पाद - कोरोनरी स्टेंट
बीमारी - कोरोनरी आर्टरी ब्लॉकेज 


7. डॉ. शैलेंद्र त्रिवेदी
अस्पताल-  सीएचएल अपोलो 
कंपनी - इन्फीनियम-कोर
उत्पाद - कोरोनरी स्टेंट
बीमारी - कोरोनरी आर्टरी ब्लॉकेज के उपचार के लिए


8. डॉ. नितीन मोदी
अस्पताल- सीएचएल अपोलो 
कंपनी - इन्फीनियम-कोर
उत्पाद - कोरोनरी स्टेंट
बीमारी - कोरोनरी आर्टरी ब्लॉकेज 


9. डॉ. बीएस ठाकुर
अस्पताल-  गे्रटर कैलाश
कंपनी - प्रॉक्टर एण्ड गैम्बल फार्मास्यूटिकल्स व जाइडस
उत्पाद - टेबलेट मेजालामाइन ८०० एमजी, एसाकोल ८००एमजी
बीमारी - अल्सरेटिव कोलाइटिस 


10. डॉ. अतुल शेंडे
अस्पताल - मानव ट्रेड सेंटर स्थित क्लिनिक
कंपनी - प्रॉक्टर एण्ड गैम्बल फार्मास्यूटिकल्स और जाइडस
उत्पाद - टेबलेट मेजालामाइन ८०० एमजी, एसाकोल ८००एमजी
बीमारी - अल्सरेटिव कोलाइटिस 

11. डॉ. प्रवर पासी
अस्पताल- ग्रेटर कैलाश 
कंपनी - बायोजेन आइडेक
उत्पाद - १२५ एमसीजी, बीआईआईबी ०१७
बीमारी - मल्टीपल सिरोसिस

( खबर शैलेष दीक्षित से साभार)

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आंध्रप्रदेश के कानून पर कमेटी की निगाह 
 प्रमुख सचिव के साथ डीएमई और डॉ. छपरवाल भी शामिल

बहुराष्ट्रीय कंपनियों द्वारा विकसित दवा के परीक्षण (ड्रग ट्रायल) को प्रदेश में काबू करने के लिए नियमावली बनाने के लिए राज्य सरकार द्वारा गठित तीन सदस्यी कमेटी की निगाह आंध्रप्रदेश के कानून पर है। वहां ड्रग ट्रायल को प्रतिबंधित किया गया है। कमेटी संभवत: एक माह में रिपोर्ट सरकार को सौंप देगी।

स्वास्थ्य एवं चिकित्सा राज्य मंत्री महेंद्र हार्डिया ने शुक्रवार को विधानसभा में कमेटी गठित करने की घोषणा की थी। शनिवार को 'पत्रिकाÓ से चर्चा में उन्होंने बताया चिकित्सा शिक्षा प्रमुख सचिव आईएस दाणी की अध्यक्षता में बनाई कमेटी में संचालक चिकित्सा शिक्षा डॉ. वीके सैनी और एमसीआई के पूर्व उपाध्यक्ष डॉ. भरत छपरवाल सदस्य रहेंगे।

उधर, दाणी ने बताया फिलहाल ड्रग ट्रायल के संबंध में ड्रग एंड कॉस्मेटिक एक्ट लागू किया गया है। अध्ययन करने के बाद ही स्पष्ट होगा कि राज्य सरकार इस बारे में क्या कर सकती है? दोनों अन्य सदस्यों के साथ शीघ्र ही बैठक की जाएगी। कोशिश रहेगी कि एक महीने में रिपोर्ट बनाकर दे दी जाए। डॉ. छपरवाल ने बताया फिलहाल मुझे कमेटी के सदस्य बनाए जाने की जानकारी नहीं मिली है। मौजूदा कानूनों और गाइडलाइन का अध्ययन करने के बाद ही स्थिति स्पष्ट होगी।



सीबीआई, एमसीआई को भी शिकायत
आर्थिक अपराध अन्वेषण ब्यूरो (ईओडब्ल्यू) में जांच शुरू होने के साथ ही एमजीएम मेडिकल कॉलेज के ड्रग ट्रायल की शिकायत सीबीआई और एमसीआई को भी पहुंच चुकी है। शिकायतकर्ता राजेंद्र के. गुप्ता ने बताया दोनों स्थानों पर शपथ पत्र के साथ शिकायत की गई है।