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शुक्रवार, दिसंबर 31, 2010

वीडियो बयान से ड्रग ट्रायल की घेराबंदी

- ईओडब्ल्यू ने 50 से अधिक डॉक्टरों और रोगियों से की गहन पूछताछ 

बहुराष्टरीय कंपनियों द्वारा विकसित दवा के मरीजों पर परीक्षण यानी ड्रग ट्रायल से जुड़े मामले की जांच कर रहे आर्थिक अपराध अन्वेषण ब्यूरो (ईओडब्ल्यू) ने वीडियो बयान लेने का काम शुरू कर दिया है। आरोपी छह डॉक्टरों के साथ ही एमजीएम मेडिकल कॉलेज डीन और 50 से अधिक मरीजों से पूछताछ कर ली गई है।
पत्रिका में प्रकाशित खबरों के आधार पर स्वास्थ्य समर्पण सेवा समिति संगठन ने एमजीएम मेडिकल कॉलेज से जुड़े अस्पतालों में ट्रायल करने वाले छह डॉक्टरों के खिलाफ ईओडब्ल्यू भोपाल में शिकायत दर्ज की थी। इसकी पड़ताल भोपाल पदस्थ एआईजी प्रियंका मिश्रा कर रही हैं। वे इंदौर में लगातार दौरे कर वीडियोग्राफी कर रही हैं।

वीडियाग्राफी क्यों?
क्योंकि मामला बेहद पेचिदा और संवेदनशील है। साथ ही नामचीन और प्रभावशाली डॉक्टरों के नाम जुड़े हैं। आशंका यह भी है कि एक बार बयान देने के बाद लोग बदल जाएंगें।

तीन चरण में हुए बयान
पहला
शिकायतकर्ता डॉ. आनंद राजे और आरोपी डॉ. अपूर्व पुराणिक, डॉ. अनिल भराणी, डॉ. पुष्पा वर्मा, डॉ. हेमंत जैन, डॉ. सलिल भार्गव और डॉ. अशोक वाजपेयी।
दूसरा
एमजीएम मेडिकल कॉलेज डीन डॉ. एमके सारस्वत एवं कॉलेज की एथिकल कमेटी के कुछ सदस्य।
तीसरा
वे मरीज जिन पर प्रयोग किए गए। यह पूछा गया कि क्या आपको ट्रायल की जानकारी दी गई है।

 
इंदौर में होगी सुझावों की छंटनी

ड्रग ट्रायल को लेकर शनिवार को हुई जनसुनवाई में आए सुझावों की छंटनी एमजीएम मेडिकल कॉलेज डीन करेंगें। कमेटी के अध्यक्ष और चिकित्सा शिक्षा विभाग के प्रमुख सचिव आईएस दाणी ने यह फैसला किया है। वे सभी 168 सुझावों को यहीं छोड़कर भोपाल रवाना हुए। जाने से पहले दाणी ने पांचों मेडिकल कालेजों के डीन की बैठक भी ली। सभी से नियमों को खंगालने के लिए कहा गया है। सूत्रों का कहना है कि जनसुनवाई के दौरान कई सरकारी कर्मचारियों ने भी ड्रग ट्रायल को लेकर सुझाव रखे हैं। विश्लेषण किया जा रहा है कि ये सुझाव सरकार की मंशा के विपरीत तो नहीं। 


Patrika 1 Nov 2010

ड्रग ट्रायल की निगरानी जरूरी

- ड्रग ट्रायल पर सुनवाई का एक स्वर

बहुराष्ट्रीय दवा कंपनियों द्वारा विकसित दवाओं के मरीजों पर प्रयोग यानी ड्रग ट्रायल को काबू करने के लिए रा'य में निगरानी तंत्र की जरूरत पर शनिवार को इंदौर में एक स्वर से आवाज उठी। डॉक्टर, सामाजिक कार्यकर्ता, जनप्रतिनिधियों, मीडियाकर्मियों और मेडिकल छात्रों की राय है कि रा'य में ऐसा कानून बने जिससे की रोगियों की जिंदगी महफूज रहे। हर ड्रग ट्रायल को पारदर्शी बनाया जाए और नियम तोडऩे वालों को दंडित करने का प्रावधान हो। 
ड्रग ट्रायल पर राज्य में कानून बनाने के संबंध में सिफारिश करने के लिए चिकित्सा शिक्षा विभाग के प्रमुख सचिव आईएस दाणी की अगुवाई में बनी कमेटी ने शनिवार को एमजीएम मेडिकल कॉलेज सभागृह में करीब तीन घंटे तक जनसुनवाई की।  इसमें 168 जागरूक लोगों ने लिखित और मौखिक सुझाव और आपत्तियां दर्ज करवाईं।

ट्रायल की जरूरत पर तीन राय
पहली: जारी रहें क्योंकि इसके बगैर चिकित्सा विज्ञान की प्रगति संभव नहीं।
दूसरी: बंद हों क्योंकि दवा कंपनियां से मिलने वाले धन के चक्कर में रोगियों की जान जोखिम में डाली जाती है।
तीसरी: आईसीएमआर और डब्ल्यूएचओ द्वारा फंडेड ट्रायल हों क्योंकि वे सीधे तौर पर मानवहित से जुड़े होते हैं। 

कमेटी को मिले दस अहम सुझाव

एक:
डब्ल्यूएचओ और आईसीएमआर की गाइडलाइन का पालन सुनिश्चित करने के लिए स्वतंत्र बोर्ड बने।
दो:
सरकारी और निजी संस्थानों की एथिकल कमेटियां सरकार के नियंत्रण में रहें।
तीन: 
रोगी का नुकसान पहुंचने पर निर्धारित बीमा राशि दी जाए।
चार:
नियम तोडऩे वाले डॉक्टरों को दस वर्ष तक के दंड का प्रावधान हो।
पांच :
रा'य में सिर्फ चौथे चरण (दवा को बाजार में बेचने की अनुमति के बाद) के ट्रायल की अनुमति दी जाए।
छह :
ड्रग ट्रायल के लिए आने वाली राशि सरकारी संस्थानों के खाते में जमा हो।
सात :
प्लेसिबो ट्रायल (नकली दवा से उपचार) पर पाबंदी रहे।
आठ: 
बीस वर्ष का चिकित्सकीय अनुभव रखने वाले डॉक्टर ही ट्रायल करने के पात्र माने जाएं।
नौ:
अशिक्षित और बीपीएल श्रेणी रोगियों को ट्रायल का हिस्सा नहीं बनाया जाए।
दस :
नर्सिंगहोम एक्ट में संशोधन कर निजी और सरकारी अस्पतालों के लिए ट्रायल की संपूर्ण जानकारी स्वास्थ्य विभाग को देना जरूरी हो।


मेरे लाड़ले को बीमारी दे दी
जब सुझाव समिति से ही पीडि़त ने मांगा सुझाव 

जनसुनवाई के दौरान कुछ समय के लिए गमगीन माहौल हो गया। जब 6 माह के शिशु यथार्थ के पिता अजय नाईक फूट-फूटकर रोने लगे। अजय के बेटे का जन्म ८ माह पहले ८ मार्च को हुआ। वेलोसिटी टॉकिज के नजदीक धीरज नगर में रहने वाले अजय ने बताया कि यथार्थ को ट्रायल का पहला टीका शिशु रोग विशेषज्ञ डॉ. हेमंत जैन ने लगाया। वे मुझे हर बार आने-जाने के 50 रुपए भी देते थे। इसी क्रम में दूसरा टीका अगले माह लगाया गया। जिसके कुछ दिनों बाद ही बेटे को सफेद दाग उठने लगे। डॉ. जैन को दिखाया तो उन्होंने साबुन, क्रीम, पावडर बदलने को कहा। दाग और बढऩे लगे तो फिर डॉ. जैन को दिखाया, उन्होंने इस बार क्रीम लिखकर दिया और लगाने को कहा। स्थिति फिर भी नहीं संभली तो डॉ. जैन ने मुझे त्वचा रोग विशेषज्ञ डॉ. एचके नारंग के पास भेजा, कुछ दिन उन्होंने उपचार किया और बीमारी कम नहीं होने पर मुझे होम्योपैथ चिकित्सक के पास जाने की सलाह दी। वहीं डॉ. जैन ने यथार्थ को टीके लगाना बंद कर दिए हैं और मुझसे कहा है कि मैं आंगनवाड़ी केंद्र पर जाके बाकी टीके लगवाता रहूं। समिति के चेअरमेन दाणी द्वारा टोके जाने पर अजय ने उनसे ही सवाल किया कि आप ही मुझे सुझाव दें कि अब मैं कहां जाउं, किससे शिकायत करूं। मेरे इकलौते बेटे को उन्होंने जो स्थायी बीमारी दी है इसके लिए किसे जिम्मेदार मानूं। 


ड्रग ट्रायल जनसुनवाई

'ठीक होने तक क्यों नहीं मिलती दवा '
- ड्रग ट्रायल पर जनसुनवाई में ट्रायल पीडि़त ने बयां की दास्तां 
- तीन घंटे तक आते रहे सुझाव


मैं पार्किंसन रोग से ग्रसित हूं। २००८ में डॉ. अपूर्व पुराणिक ने मुझे ट्रायल में शामिल किया। उससे मुझे लाभ भी मिला। शुरू में कहा था कि ठीक होने में एक साल का वक्त लगेगा। एक साल बाद कहा उपचार लंबे समय तक चलेगा, लेकिन ट्रायल अवधि समाप्त होने के बाद उन्हें ट्रायल की दवा बंद कर दी। मैं पिछले एक साल से दवा के बगैर जी रहा हूं और पूर्वावस्था में लौट रहा हूं। मैं सेवानिवृत्त हूं और दवा के नाम पर 6 हजार रु हर माह खर्च होते हैं। ऐसा नियम बनाए कि जब तक मरीज ठीक न हो जाए ट्रायल के दौरान दी जाने वाली दवाएं उपलब्ध कराई जाना चाहिए।
यह ड्रग ट्रायल से पीडि़त एमकेएस गौतम ने का कहना है। शनिवार को वे ड्रग ट्रायल पर कानून बनाने के संबंध में गठित कमेटी द्वारा एमजीएम मेडिकल कॉलेज सभागृह में जारी जनसुनवाई में मौजूद थे। चिकित्सा शिक्षा प्रमुख सचिव आईएस दाणी, डीएमई डॉ. वीके सैनी, पूर्व डीएमई डॉ. एनआर भंडारी, पूर्व कुलपति डॉ. भरत छपरवाल, ड्रग कंट्रोलर राकेश श्रीवास्तव, संभागीय संयुक्त संचालक स्वास्थ्य डॉ. शरद पंडित, एमजीएम मेडिकल कॉलेज डीन डॉ. एमके सारस्वत समेत प्रदेश के पांचों मेडिकल कॉलेज के डीन ने उनकी बात सुनी।

बंद कमरे में जनसुनवाई देख भड़के लोग
निर्धारित समय से तीन घंटे देरी से बंद कमरे में शुरू हुई जनसुनवाई को देख ्रसुझाव देने पहुंचे लोग भड़क गए। सामाजिक कार्यकर्ता क ल्पना मेहता, चिन्मय मिश्र, राकेश चांदौरे, किशोर कोडवानी, गौतम कोठारी, राजेंद्र के. गुप्ता, रामगोपाल शर्मा आदि ने नारेबाजी की। बाद में सरदारपुर विधायक प्रताप ग्रेवाल ने धरने पर बैठने की धमकी दी तो कमेटी बाहर आ गई। जनसुनवाई दोपहर एक बजे शुरू हुई और चार बजे तक चली। १६८ सुझावकर्ताओं में से ३८ ने मौखिक बात भी रखी, शेष ने लिखित आवेदन दिए।

आठ संगठनों की एक बात
मानसी स्वास्थ्य संस्थान, मप्र महिला मंच, नेशनल फेडरेशन ऑफ इंडियन वुमन, झुग्गी बस्ती संघर्ष मोर्चा, दीनबंधु सामाजिक संस्था, शिल्पी केंद्र, इंदौर समर्थक समूह और संदर्भ दस्तावेजीकरण केंद्र की ओर से कल्पना मेहता ने पक्ष रखा। उन्होंने कहा निजी और सरकारी दोनों क्षेत्रों में ट्रायल की निगरानी का सख्त और सक्षम तंत्र विकसित किया जाए। ट्रायल के पांच वर्ष बाद तक रोगी को उपचार सेवा दी जाए।

बाहर के विधायक पहुंचे, इंदौर के नदारद
जन मुद्दों के प्रति इंदौर के नेताओं की संवेदनशीलता की एक बार फिर पोल खुल गई। ड्रग ट्रायल पर जनसुनवाई में सरदारपुर विधायक प्रताप ग्रेवाल और रतलाम विधायक पारस सकलेचा पहुंचे लेकिन इंदौर की सांसद और विधायकों में से कोई नहीं पहुंचा। किसी दल का प्रतिनिधित्व भी नहीं आया।



ट्रायल के पहले मरीज और उसके रिश्तेदारों को शिक्षित किया जाए।
- मनोरमा मेनन, सामाजिक कार्यकर्ता

ट्रायल की आड़ में हो रही गड़बड़ी को जांचा जाना चाहिए। 
- डॉ. अरविंद दुबे, होम्योपैथिक चिकित्सक

आयुर्वेद, होम्योपैथ और अन्य चिकित्सा पद्धतियों को ट्रायल में शामिल किया। 
- डॉ. आशीष पटेल, सहायक प्राध्यापक, मेडिसिन

निजी संस्थानों में को मिलने वाली राशि टैक्स के दायरे में आए। जो राजस्व मिले उससे ग्रामीण इलाकों की सेवाओं में सुधार किया जाए।
- डॉ. आनंद राजे, अध्यक्ष, स्वास्थ्य समर्पण सेवा समिति

ड्रग ट्रायल को लेकर पहले से ही सख्त नियम बने हुए हैं। इन नियमों का पालन तटस्थता के साथ किया जाना सुनिश्चित हों। ट्रायल से भविष्य में होने वाले उपचार में मदद होती है। 
- डॉ. अनिल बंडी, अध्यक्ष, आईएमए इंदौर

नियम ऐसे बनें कि कोई भी अस्पताल आसानी से ट्रायल कर सके। ट्रायल प्रोटोकॉल के अनुसार होना चाहिए। रा'यस्तरीय कमेटी बने जो पूरी देखभाल करे।
- डॉ. सविता इनामदार, वरिष्ठ चिकित्सक

गैर जिम्मेदार डॉक्टर आर्थिक हितों के चलते गलत कदम उठा रहे हैं उनकी निगरानी हो।
- डॉ. उ''वल सरदेसाई, मनोचिकित्सक, एमवायएच

एथिकल कमेटी के अधिकारों को बढ़ाया जाए। यह एक जिम्मेदार कमेटी होती है, जिस पर मरीजों और दवा कंपनियों की जानकारी को गोपनीय रखने की जिम्मेदारी होती है। 
- डॉ. केडी भार्गव, चेअरमैन, एथिकल कमेटी, एमजीएम कॉलेज

ड्रग ट्रायल को लेकर नियम-कायदे अभी केंद्र सरकार और राष्ट्रीय एजेंसियों के हाथ में हैं, इसमें रा'य सरकार की भूमिका भी स्पष्ट हो। ट्रायल में शामिल मरीज को कम से कम 5 वर्ष तक निगरानी में रखा जाना चाहिए। नवजात और ब"ाों पर होने वाले ट्रायल को प्रतिबंधित हों। 
- डॉ. गौतम कोठारी, अध्यक्ष, पीथमपुर औद्योगिक संगठन

निजी संस्थानों में होने वाले ट्रायल को प्रतिबंधित कर देना चाहिए। वे केवल आर्थिक हितों को साधने के लिए लोगों की जान से खिलवाड़ करते हैं। ट्रायल से गुजर रहे व्यक्ति को यदि लाभ मिलता है तो उसके पूर्णत: स्वस्थ होने तक वही दवा उपलब्ध होना चाहिए। 
- किशोर कोडवानी, सामाजिक कार्यकर्ता

नियम बनाते समय प्रशासकीय नियमों को भी ध्यान में रखा जाना चाहिए। प्रदेश में बनने जा रहे नियमों को अन्य रा'यों की तरह ही बनाया जाए। ट्रायल कर रहे डॉक्टरों के आर्थिक हितों का ध्यान रखा जाए।
डॉ. अपूर्व पुराणिक, न्यूरोफिजिशियन, एमवायएच

रेगुलेटरी बोर्ड का गठन किया जाए। दवा कंपनी-मरीज और डॉक्टर के बीच अनुबंध हो। आदिवासी अंचलों से आने वाले मरीजों को एमवायएच के डॉक्टर डब्ल्यूएचओ के नाम पर मिलने वाली मदद के बहाने आश्वस्त करते हैं। खुलकर ट्रायल के जानकारी नहीं देते। अस्पतालों में जानकारी सार्वजनिक की जाए कि कौन-कौन डॉक्टर ट्रायल कर रहे हैं, ट्रायल से होने वाले प्रभाव और दुष्प्रभाव की जानकारी दी जाए। ट्रायल कर रहे डॉक्टर के बाहरी कमरे में काउंसलर की भी व्यवस्था की जाए, जो मरीज को सही-सही जानकारी दे। 
- प्रताप गे्रवाल, विधायक सरदारपुर।

ट्रायल के दौरान मरीज को होने वाले नुकसान के लिए डॉक्टर पर कानूनी शिकंजा कसा जाए। १० वर्ष की सजा का प्रावधान भी रखा जा सकता है। प्रदेश में केवल फेज फोर ट्रायल की अनुमति दी जाए। जिस भी मरीज का चयन किया जाए उसका शिक्षित होना अनिवार्य हो। ट्रायल के बाद मरीज को कम मूल्य पर दवा की उपलब्धता सुनिश्चित की जाए। विशेषज्ञ के रूप में डॉक्टर को कम से कम २० वर्ष का अनुभव हो साथ ही ट्रायल में पांच अन्य विशेषज्ञ भी शामिल किए जाएं। 
- पारस सखलेचा, विधायक, रतलाम

ट्रायल के लिए मरीज चयन में पारदर्शिता रखी जाए। ट्रायल अवधि अथवा ट्रायल समाप्त होने के बाद एक निश्चित अवधि में मरीज को परेशानी हो तो उसके उपचार और इंश्योरेंस की उचित व्यवस्था की जाए। प्लेसिबो ट्रायल ऐसी बीमारी में किया जाए जिसका उपचार मौजूद नहीं हो। ट्रायल से होने वाले रिसर्च को जरनल में प्रकाशित किया जाए। शोध से सामने आने वाली जानकारियां राष्ट्र की संपत्ति हो न कि दवा कंपनियों की। मुख्यमंत्री की अध्यक्षता में ड्रग ट्रायल एडवाइजरी बोर्ड का गठन किया जाए। जिसके पास प्रदेश में ड्रग ट्रायल के नियमन संबंधी सभी अधिकार हों।
डॉ. आनंद राय, सदस्य, स्वास्थ्य समर्पण सेवा समिति

तीन फार्मा कंपनियों ने भी दर्ज की उपस्थिति -
सरकार जो पैसा दस सालों में नहीं दे सकती वो निजी कंपनियां एक साल में ही दे देती हैं। नियमों का निर्धारण सरकार करे।
नीरज शर्मा, प्रतिनिधि, फार्मा कंपनी।
प्रदेश स्तरीय समिति बनाई जाना चाहिए जो मेडिको लीगल प्रकरणों पर तो ध्यान दे ही, उद्योगों के पक्ष को भी समझे और अपने विचार दे।  
संजय मेहता, प्रतिनिधि, फार्मा कंपनी।
फार्मा कंपनियों द्वारा दी जाने वाली राशि का सही संयोजन होना चाहिए। ड्रग ट्रायल पूरी तरह से कानूनन है, पूरा मामला पैसोंं की अव्यवस्था को लेकर उठता दिख रहा है। 
समीर गोखले, प्रतिनिधि, फार्मा कंपनी।

इन्होंने भी दिए सुझाव 
 प्रभु जोशी, राजेंद्र के. गुप्ता, डॉ. विजय भाईसारे, डॉ. देव पाटौदी, डॉ. माधव हासानी, डॉ. श्रुती मूथा, डॉ. गोपाल शर्मा, डॉ.  नम्रता गायकवाड़, डॉ. दीपक मूलचंदानी, डॉ. अभय ठाकुर, डॉ. जनक पलटा,डॉ. सुरेश वर्मा, नागेश व्यास, जेके व्यास, डॉ. नीरजा पौराणिक, विनय बाकलीवाल, आशुतोष महाजन।  

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एक माह में सुझाव देगी कमेटी
ड्रग ट्रायल को लेकर कानून बनाने के संबंध में कमेटी से सुझाव मांगे गए हैं और हम वही कर रहे हैं। संभवत: मप्र देश का पहला राज्य होगा, जहां इस तरह का कदम उठाया जा रहा है। कमेटी के सुझाव एक माह में सरकार को दे दिए जाएंगें। नियमों को अंतिम रूप दिए जाने तक नए ड्रग ट्रायल प्रतिबंधित रहेंगे। ड्रग ट्रायल के आरोपों से घिरे किसी भी डॉक्टर के खिलाफ फिलहाल कोई कार्रवाई नहीं की है। 
- आईएस दाणी, प्रमुख सचिव, चिकित्सा शिक्षा विभाग 

Patrtika 31 Oct 2010 


नए ड्रग ट्रायल पर रोक

सरकारी और निजी अस्पतालों में अब मरीज नहीं बनेंगे चूहे

बहुराष्टरीय कंपनियों द्वारा विकसित दवाइयों के मरीजों पर प्रयोग यानी ड्रग ट्रायल को आखिर रा'य सरकार ने गलत मान ही लिया। सरकार ने आदेश दिया है किअब सरकारी और निजी अस्पतालों में कोई ट्रायल नहीं कि या जाएगा। साफ है कि अब इलाज के लिए जाने वाले रोगी पर चूहा समझकर प्रयोग नहीं किया जा सकेगा। हांलाकि, दवा कंपनियों के साथ हो चुके अनुबंधों के चलते पहले से जारी ट्रायल को फिलहाल नहीं रोका गया है। 
ड्रग ट्रायल के संबंध में कानून बनाने के लिए चिकित्सा शिक्षा प्रमुख सचिव आईएस दाणी की अध्यक्षता में गठित रा'य स्तरीय कमेटी ने ड्रग ट्रायल पर रोक लगाने की सिफारिश की थी। शुक्रवार को सरकार ने इसे मंजूर कर लिया। अब सरकारी, निजी मेडिकल कॉलेजों, डेंटल कॉलेजों, स्वास्थ्य विभाग के तहत आने वाले सभी अस्पतालों और भोपाल गैस त्रासदी राहत एवं पुनर्वास विभाग के अधीनस्थ सरकारी अस्पतालों में ट्रायल नहीं किए जाएंगें। 

पत्रिका खुलासे के पहले सरकार भी नहीं जानती थी ट्रायल  (ईपीएस के साथ जाएगा यह बॉक्स)
ड्रग ट्रायल के गोरखधंधे का पहला खुलासा पत्रिका ने 14 जुलाई को कि या था। इसके पहले सरकार को भी पता नहीं था कि दवा कंपनियों से फायदा कमाने के लिए रा'य के सरकारी और निजी अस्पतालों के कुछ डॉक्टर रोगियों को चूहे की तरह इस्तेमाल कर रहे हैं। पत्रिका ने तथ्यात्मक खुलासा करते हुए अब तक पचास से अधिक खबरें प्रकाशित की हैं। इसी का असर है कि सरकार ने पहले कानून बनाने के लिए कमर कसी और अब ट्रायल पर रोक लगा दी।

कमेटी को आज दें सुझाव
ड्रग ट्रायल के लिए गठित कमेटी शनिवार प्रात: 10 से दोप. 2 बजे तक एमजीएम मेडिकल कॉलेज में माजनसुनवाई करेगी। चिकित्सा शिक्षा प्रमुख सचिव दाणी, विधि सचिव पीके वर्मा, एमसीआई के पूर्व उपाध्यक्ष डॉ. भरत छपरवाल, पूर्व डीएमई डॉ. एनआर भंडारी, डीएमई डॉ. वीके सेनी और खाद्य एवं औषधि प्रशासन के संयुक्त नियंत्रक डॉ. एनएम श्रीवास्तव कमेटी में शामिल हैं। कमेटी के सामने कोई भी नागरिक निजी या सरकारी अस्पताल में हुए ट्रायल की जानकारी दे सकता है। अपने साथ हुए धोखे की कहानी के साथ ही नियमों की सख्ती के बारे में भी अपनी बात रखी जा सकती है।
दो की मौत, 51 पर दुष्प्रभाव
ड्रग ट्रायल से सरकारी मेडिकल कॉलेजों में 51 रोगियों पर साइड इफेक्ट हुए हैं। जबलपुर में एक कैंसर पीडि़ता और इंदौर में अल्जाइमर पीडि़ता की मौत का कारण ट्रायल रहा है। रा'य में पांच वर्ष में 2365 रोगियों पर ट्रायल हुआ। इसमें 1644 ब'चे और 721 वयस्क हैं। जिन मरीजों पर दुष्प्रभाव हुए हैं, उनके नाम जाहिर नहीं किए गए हैं। 

दोषियों पर कार्रवाई हो
सरकार का कदम स्वागत योग्य है लेकिन रोगियों की जान जोखिम में डालने वालों के खिलाफ सख्त कार्रवाई की होना चाहिए।
- डॉ. आनंद राय, सदस्य, स्वास्थ्य समर्पण सेवा समिति
(ट्रायल करने वाले डॉक्टरों की शिकायत करने के कारण डॉ, राय को षड्यंत्रपूर्वक तरीके से एमजीएम मेडिकल कॉलेज प्रबंधन ने सीनियर रेसीडेंट पद से हटा दिया गया था। )



ड्रग ट्रायल को काबू करना बेहद आसान
- सरकार ठान ले तो महफूज हो जाएं रोगी


ड्रग ट्रायल पर कानून बनाने के लिए चिकित्सा शिक्षा विभाग के प्रमुख सचिव आईएस दाणी की अगुवाई में बनाई कमेटी शनिवार को आम लोगों के सुझाव जानेगी। विधि सचिव पीके वर्मा, एमसीआई के पूर्व उपाध्यक्ष डॉ. भरत छपरवाल, पूर्व डीएमई डॉ. एनआर भंडारी, डीएमई डॉ. वीके सेनी और खाद्य एवं औषधि प्रशासन के संयुक्त नियंत्रक डॉ. एनएम श्रीवास्तव भी कमेटी के सदस्य हैं। विशेषज्ञों से राय शुमारी में साफ हुआ है कि सरकार चाहे तो बेहद आसानी से ड्रग ट्रायल को काबू किया जा सकता है। जानें कैसे-
एक-
सरकारी और निजी संस्थानों की एथिकल कमेटियां सरकार के नियंत्रण में ले ली जाएं।
दो-
नर्सिंगहोम एक्ट में संशोधन करके निजी और सरकारी अस्पतालों के लिए ट्रायल की संपूर्ण जानकारी स्वास्थ्य विभाग को देना जरूरी किया जाए।
तीन-
रोगी का नुकसान पहुंचने पर निर्धारित बीमा राशि दी जाए। नियम तोडऩे वाले डॉक्टरों के खिलाफ आपराधिक प्रकरण दर्ज हो।
चार-
ड्रग ट्रायल के लिए आने वाली राशि सरकारी संस्थानों के खाते में जमा की जाए, ताकि कोई भी डॉक्टर रूपए के लालच में रोगी की जान से खिलवाड़ न कर सके।
पांच-
निजी संस्थानों में को मिलने वाली राशि टैक्स के दायरे में लें। जो राजस्व मिले उससे ग्रामीण इलाकों की स्वास्थ्य सेवाओं में सुधार किया जाए।
छह- 
अस्पतालोंं में ट्रायल का पूरा ब्यौरा देने वाले साइनबोर्ड लगाएं जाएं। इसमें शिकायत करने के लिए नाम, पता और नंबर भी हो।
सात-
नियम तोडऩे वाले डॉक्टर का रजिस्ट्रेशन स्टेट मेडिकल काउंसिल द्वारा रद्द किया जाए।


Patrika 30 Oct 2010

ड्रग ट्रायल की विदेश यात्राओं में घालमेल

- सरकार की अनुमति के बगैर कंपनियों के खर्च से भर ली उड़ान
- लोकायुक्त, ईओडब्ल्यू को शिकायत


एमजीएम मेडिकल कॉलेज से जुड़े अस्पतालों में आने वाले रोगियों पर ड्रग ट्रायल करने वाले डॉक्टरों की विदेश यात्राओं में घालमेल सामने आया है। डॉक्टरों ने बीते छह वर्र्षों में एक दर्जन से अधिक विदेश यात्राएं की, लेकिन ज्यादातर में इन्होंने सरकार से अनुमति नहीं ली। एक ने बैंकांक और टर्की की अपनी यात्राओं की जानकारी छुपाने की कोशिश भी की है।

सूचना का अधिकार में प्राप्त दस्तावेज में खुलासा हुआ है कि छह डॉक्टर 14 बार विदेश गए। जाने से पहले इन्होंने अर्जित अवकाश लिया और सरकार से अनुमति के इंतजार में विदेश घुम आए। सरकार से आज तक अनुमति नहीं मिली है। स्वास्थ्य समपर्ण सेवा संस्था ने इसकी शिकायत ईओडब्ल्यू में और एक सामाजिक कार्यकर्ता ने लोकायुक्त में की है।

विधानसभा में जानकारी बताकर फंस गए
मेडिसिन विभाग के प्रोफेसर डॉ. अनिल भराणी विदेश जाने की एक जानकारी में फंस गए हैं। विधानसभा प्रश्न के जवाब में उन्होंने बताया था कि ट्रायल के सिलसिले में वे 8 से 10 दिसंबर 2006 तक बैंकाक और मार्च 2009 में टर्की गए थे। दोनों ही यात्राएं दवा कंपनियों द्वारा प्रायोजित थी। अब डॉ. भराणी ये दोनों यात्राएं छुपा रहे हैं। सूचना का अधिकार में उन्होंने इन यात्राओं की जानकारी नहीं दी हैं। एक विधायक ने इस तथ्य की शिकायत चिकित्सा शिक्षा विभाग को की है।

बगैर अनुमति कौन कब कहां गया

क्रं.    कौन                            कहां            कब                       
1.    डॉ. अपूर्व पुराणिक        बोस्टन        25 अप्रैल से 5 मई 2007     
2.    डॉ. हेमंत जैन                फ्रांस            17 से 18 अप्रैल 2007
3.    डॉ. हेमंत जैन               जिनेवा         21 से 24 अक्टूबर 2009
4.    डॉ. अशोक वाजपेयी      यूएसए        16 जुलाई से 13 अगस्त 2005
5.    डॉ. अशोक वाजपेयी      यूएसए        14 मई से 12 जून 2007
6.  डॉ. पुष्पा वर्मा                 हांगकांग        28 जून से 2 जुलाई 2008
7.    डॉ. सलिल भार्गव          हांगकांग        11 से 14 जनवरी 2009
8.    डॉ. सलिल भार्गव          मेड्रिड            25 फरवरी से 3 मार्च 2009
9.    डॉ. सलिल भार्गव          लंदन            14 से 17 अप्रैल 2009
10. डॉ. अनिल भराणी          आरलियंस    1 से 6 मार्च 2004
11. डॉ. अनिल भराणी        पोर्टलैंड        1 से 30 जून 2004
12. डॉ. अनिल भराणी        अटलांटा        9 से 22 मार्च 2006
13. डॉ. अनिल भराणी        मलेशिया,कनाड़ा    26 मार्च से 10 अप्रैल 2008   
14. डॉ. अनिल भराणी        अटलांटा        14 से 20 मार्च 2010   ्र


ड्रग ट्रायल पर 30 को जनसुनवाई
 ड्रग ट्रायल  के संबंध में कानून बनाने के लिए शासन द्वारा गठित कमेटी ३० अक्टूबर को प्रात: १0 से २ बजे के बीच एमजीएम मेडिकल कॉलेज में जनसुनवाई करेगी। कॉलेज डीन डॉ. एमके सारस्वत ने बताया कमेटी में चिकित्सा शिक्षा विभाग के प्रमुख सचिव आईएस दाणी, विधि सचिव पीके वर्मा, एमसीआई के पूर्व उपाध्यक्ष डॉ. भरत छपरवाल, पूर्व डीएमई डॉ. एनआर भंडारी, डीएमई डॉ. वीके सेनी और खाद्य एवं औषधि प्रशासन के संयुक्त नियंत्रक डॉ. एनएम श्रीवास्तव शामिल हैं।

Patrika 29 Oct 2010

दवा कंपनियों को भी चपत

- ड्रग ट्रायल करने वाले डॉक्टरों से स्पांसर नाराज
- रिजल्ट पर आशंका जताते हुए भेजा ई-मेल


बहुराष्टरीय कंपनियों द्वारा विकसित दवाइयों के मरीजों पर प्रयोग (ड्रग ट्रायल) पर अब वे कंपनियां भी ऐतराज जता रही हैं जिन्होंने डॉक्टर के साथ आर्थिक समझौते किए। एक स्पांसर कंपनी ने इंदौर के एमजीएम मेडिकल कॉलेज में हुए ट्रायल के रिजल्ट पर आशंका जताते हुए प्रिंसिपल इन्वेस्टिगेटर को पत्र लिखा है। अनुमान है कि अब यह कंपनी इंदौर के डॉक्टरों को अब ट्रायल का काम नहीं सौंपेगी।

ड्रग ट्रायल पर 30 को जनसुनवाई
इंदौर, सिटी रिपोर्टर। बहुराष्टरीय कंपनियों द्वारा विकसित दवाइयों के मरीजों पर प्रयोग (ड्रग ट्रायल) के संबंध में कानून बनाने के लिए शासन द्वारा गठित कमेटी ३० अक्टूबर को दोपहर १२ से २ बजे के बीच एमजीएम मेडिकल कॉलेज में जनसुनवाई करेगी। कॉलेज डीन डॉ. एमके सारस्वत ने बताया कमेटी में चिकित्सा शिक्षा विभाग के प्रमुख सचिव आईएस दाणी, विधि सचिव पीके वर्मा, एमसीआई के पूर्व उपाध्यक्ष डॉ. भरत छपरवाल, पूर्व डीएमई डॉ. एनआर भंडारी, डीएमई डॉ. वीके सेनी और खाद्य एवं औषधि प्रशासन के संयुक्त नियंत्रक डॉ. एनएम श्रीवास्तव शामिल हैं। कमेटी के सामने कोई भी नागरिक व्यक्तिगत रूप से अपनी बात लिखित या मौखिक में दर्ज करा सकता है।

Patrika  27 Oct 2010

क्यों छुपाई ड्रग ट्रायल की बातें?

- आरटीआई केस में मेडिकल कॉलेज डीन चेंबर में हुई सुनवाई
- अहम सवालों पर अंदाज के तीर चलाते रहे एमवायएच अधीक्षक


ड्रग ट्रायल का ब्यौरा जब आर्थोपेडिक्स विभाग दे सकता है तो शिशु रोग, मेडिसिन विभाग क्यों नहींï? डॉक्टर और स्पांसर कंपनी के बीच होने वाले क्लिनिकल ट्रायल एग्रीमेंट (सीटीए) को क्या भारत सरकार ने गोपनीय दस्तावेज माना है? विधानसभा को भेजी गई जानकारी और इंदौर में दी गई जानकारी में अंतर क्यों है?
 मंगलवार को ये सवाल एमजीएम मेडिकल कॉलेज डीन डॉ. एमके सारस्वत के चेंबर में गूंजे। मौका सूचना का अधिकार में स्वास्थ्य समर्पण सेवा समिति के डॉ. आनंद राय को जानकारी नहीं देने की अपील की सुनवाई का था। जवाब एमवायएच अधीक्षक डॉ. सलिल भार्गव को देना थे। तथ्यात्मक बात रखने के बजाए अनुमान के आधार पर तर्क रखते हुए उन्होंने उत्तर दिए जो नामंजूर हो गए। शिशु, नेत्र और मेडिसिन विभाग ने वह जानकारी क्यों नहीं दी जो विधानसभा में भेजी गई, के जवाब में डॉ. भार्गव संतुष्टï नहीं कर पाए। अपीलकर्ता ने तत्काल नि:शुल्क जानकारी देने और दोषियों पर अर्थ दंड करने की मांग की। कॉलेज डीन ने फिलहाल फैसला नहीं दिया है।

'कालिख पोतने की आदत'
अपीलकर्ता ने डीन को बताया एमवायएच प्रबंधन और कुछ विभागाध्यक्षों को काले कारनामों पर कालिख पोतने की आदत है। मेडिसिन विभाग ने ट्रायल से जुड़ी एक सूचना में सीटीए के उस अंश पर कालिख पोत दी थी जिसमें कंपनी से आने वाली राशि की जानकारी थी।

Patrika 26 Oct 2010

ड्रग ट्रायल पर चौंका यूएन का दल

- शुरू होगी अंतरराष्टरीय बहस


मप्र में हो रहे ड्रग ट्रायल की अनियमितताओं पर संयुक्त राष्टï्रसंघ के एशियन लिगल रिसोर्स सेंटर की टीम को भी चौंका दिया है। हांगकांग की टीम ने शुक्रवार को इंदौर में कुछ लोगों से मुलाकात करके जानकारी जुटाई। टीम लौटकर इस मसले पर अंतरराष्ट्रीय बहस शुरू करेगी।
एशियन लिगल रिसोर्स सेंटर के प्रोग्राम ऑफिसर बिजो फ्रांसिस एक अन्य सहयोगी के साथ मप्र के दौरे पर है। स्वास्थ्य समर्पण सेवा समिति के सदस्य डॉ. आनंद राय ने उनसे मुलाकात करके बताया कि विदेशी कंपनियों के धन के लालच में मप्र के कुछ डॉक्टरों ने डब्ल्यूएचओ और आईसीएमआर के मापदंडों को ताक में रखकर रोगियों की जान जोखिम में डाली। जिन लोगों ने अनियमितताओं का खुलासा किया, उनके प्रति सरकार का रवैय्या भी ठीक नहीं है। ज्ञात रहे ट्रायल करने वालों की शिकायत करने के लिए डॉ. राय पर हड़ताल करवाने का आरोप मढ़कर एमजीएम मेडिकल कॉलेज ने उन्हें  सिनीयर रेसीडेंट के पद से हटा दिया था। यूएन के दल ने इसे विहसल ब्लोअर पर आक्रमण माना है।

भोजन के अधिकार पर चर्चा
बिजो फ्रांसिस ने तीन दिन तक धार रोड़ स्थित प्रेरणा सेवा समिति भवन में रहकर प्रदेश में भोजन का अधिकार पर काम करने वाले कार्यकर्ताओं और संस्थाओं की बैठक ली। दस जिलों में राईट टू फुड पर काम कर रहे 25 कार्यकर्ताओं ने हिस्सा लिया। किस तरह एशिया को भूखमरी और कुपोषण से मुक्त बनाया जाए। कृषिप्रधान देश के रूप में भारत की इसमें क्या भूमिका हो सकती है? भारत में व्यास्त विसंगतियों को दूर करने में संस्थाओं और कार्यकर्ताओं की भूमिका क्या और कैसी होनी चाहिए? सवालों पर लंबी बहस भी यहां हुई।  


Patrika 22 Oct 2010

शुक्रवार, अक्तूबर 01, 2010

ड्रग ट्रायल पर सितम्बर में लिखी ६ खबरें

ड्रग ट्रायल की फाइल पहुंची सोनिया दरबार

- दिल्ली में विधिवत कार्रवाई शुरू
- शिकायतकर्ता ने उठाई सीबीआई जांच की मांग


बहुराष्टï्रीय दवा कंपनियों द्वारा विकसित दवाइयों के मरीजों पर प्रयोग (ड्रग ट्रायल) में मध्यप्रदेश के सरकारी मेडिकल कॉलेजों में बरती गई कौताही की पूरी फाइल संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन की अध्यक्ष सोनिया गांधी तक पहुंच गई है। उन्होंने इस पर विधिवत कार्रवाई भी शुरू कर दी है। शिकायतकर्ता ने मामले में सीबीआई जांच की मांग की है।

स्वास्थ्य समर्पण सेवा समिति के अध्यक्ष डॉ. आनंद राजे ने सोनिया गांधी को शिकायत भेज कर तमाम तथ्य उजागर किए थे। उन्हें सोमवार को कांग्रेस महासचिव बीके हरिप्रसाद का एक पत्र मिला है। इसमें लिखा गया है कि मामले को सोनिया गांधी ने अत्यंत गंभीरता से लिया है और उन्होंने संबंधित पक्ष को कार्रवाई करने और इसकी जानकारी देने को कहा है।

दोषियों के बचाव में है राज्य सरकार
डॉ. राजे का आरोप है कि देश-दुनिया में जो मसला उठ चुका है, उसपर ठोस कार्रवाई करने के बजाए राज्य सरकार दोषियों को बचाने में लगी है। करीब दो महीने पूरे हो चुके हैं, लेकिन अभी तक ईओडब्ल्यू ने अंतिम रिपोर्ट तैयार नहीं की है। इतना ही नहीं, विधानसभा में स्वास्थ्य राज्य मंत्री महेंद्र हार्डिया ने जो कमेटी गठित करने की घोषणा की थी, उसकी अभी तक बैठक भी नहीं हुई है।

अमेरिकन सरकार भी मांग चुकी सफाई
'पत्रिकाÓ ने 14 जुलाई के अंक में 'मरीज को बना दिया चूहाÓ शीर्षक से खबर प्रकाशित कर खुलासा किया था कि सरकारी मेडिकल कॉलेजों से जुड़े अस्पतालों में आने वाले गरीब और अनपढ़ मरीजों के साथ खिलवाड़ किया जा रहा है। इसके बाद मामला विधानसभा, ईओडब्ल्यू, लोकायुक्त, आयकर, एमसीआई, आईसीएमआर तक पहुंचा। हाल ही में अमेरिकन सरकार के फूड एंड ड्रग्स एडमिनिस्ट्रेशन ने भी भारत सरकार को इस संबंध में पत्र लिखकर सफाई मांगी है।

यह किया उल्लंघन
- एमसीआई द्वारा तय की गई डॉक्टरों की 'मर्यादाओंÓ को लांघा।
- आईसीएमआर के मापदंडों का ताक में रखा।
- मरीजों को धोखे में रखकर ट्रायल में झोंका।
पत्रिका : २८ सितम्बर २०१०

भारतीय मरीज का डीएनए विदेश किसकी अनुमति से भेजा?

- ड्रग ट्रायल के लिए खून के नमूनों की विदेश यात्रा पर उठा सवाल
- आईसीएमआर ने एमजीएम मेडिकल कॉलेज को भेजा पत्र



बहुराष्ट्रीय दवा कंपनियों द्वारा विकसित दवा के मरीजों पर प्रयोग (ड्रग ट्रायल) पर भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद (आईसीएमआर) ने एमजीएम मेडिकल कॉलेज को एक पत्र लिखा है। परिषद जानना चाहती है कि जिन भारतीय रोगियों पर ट्रायल किया गया है, उनके खून के नमूने किसकी इजाजत से विदेश भेजे गए? क्या इसमें नियमों का पालन हुआ है?

कॉलेज के एक वरिष्ठ अधिकारी ने इसकी पुष्टि करते हुए बताया जिन डॉक्टरों ने ट्रायल किए है, उन्हें आईसीएमआर के पत्र के आधार पर जवाब-तलब किया जा रहा है। यह मसला बायोलॉजिकल प्रोडक्ट कानून से जुड़ा हुआ है। अभी तक इस ओर किसी का ध्यान नहीं गया था। माना जा रहा है यह कॉलेज प्रबंधन और पूरे विभाग के लिए नई मुसीबत का कारण बनेगा। उधर, ट्रायल में लिप्त एक डॉक्टर ने 'पत्रिकाÓ को बताया जो दवा कंपनी ट्रायल करवाती है, वह अपनी उ'च क्षमता लेबोरेटरी में नमूनों को परखना चाहती है, यही वजह है कि नमूने विदेश भेजे जाते हैं। उन नमूनों का और क्या इस्तेमाल होता होगा, यह किसी को अंदाजा नहीं है।

आरटीआई से जुड़ा मसला
दरअसल, सूचना का अधिकार कार्यकर्ता रोली शिवहरे ने आईसीएमआर से सवाल पूछा था कि ट्रायल से गुजर रहे मरीजों के खून, मूत्र, स्वाब आदि के नमूने जांच के लिए विदेश भेजे जाते हैं। इसकी अनुमति ली गई है या नहीं? यदि हां, तो किस कानून के तहत? इन सवालों के जवाब जब आईसीएमआर को नहीं मिले, तो उन्होंने मध्यप्रदेश स्वास्थ्य एवं चिकित्सा शिक्षा विभागों को पत्र लिखकर जानकारी चाही है।



पत्रिका : २६ सितम्बर २०१०
 

फिर से भेजो ड्रग ट्रायल के दस्तावेज

- यूएसएफडीए के संज्ञान के बाद चिकित्सा शिक्षा विभाग का मेडिकल कॉलेज को फरमान

यूनाइटेड स्टेट्स के फूड एंड ड्रग एडमिनिस्ट्रेशन द्वारा मध्यप्रदेश में हुए ड्रग ट्रायल पर संज्ञान लिए जाने के बाद चिकित्सा शिक्षा विभाग ने नए सिरे से पूरे मामले की जांच शुरू कर दी है। विभाग ने सभी मेडिकल कॉलेजों से फिर से वे दस्तावेज भोपाल बुलवाए हैं, जिनमें ड्रग ट्रायल की जानकारी छुपी है। कॉलेज में इसको लेकर भारी गहमागहमी बनी हुई है।

बहुराष्टï्रीय दवा कंपनियों द्वारा विकसित दवा के मरीजों पर प्रयोग (ड्रग ट्रायल) पर यूएसएफडीए ने केंद्र सरकार को पत्र लिखा है। विभागीय सूत्रों का कहना है पूरे मामले को ठंडे बस्ते में डालने की तैयारी कर ली गई थी, परंतु अब दृश्य बदल गया है। विभाग ने विधानसभा सवालों के जवाब के लिए तैयार दस्तावेजों को एक बार फिर से खंगालना शुरू किया है।

पत्रिका : २२ सितम्बर २०१०

काले कारनामों पर पोत दी कालिख

- एमजीएम मेडिकल कॉलेज में सूचना का अधिकार का माखौल
- कालिख पोत को जानकारी देने का संभवत: देश का पहला मामला


एमजीएम मेडिकल कॉलेज प्रबंधन ने सूचना का अधिकार कानून का माखौल उड़ाते हुए एकाउंट से जुड़े एक दस्तावेज पर जानबूझकर कालिख पोत दी। आवेदक को यह जानकारी देते हुए कालिख पोतने का जिक्र भी प्रबंधन ने किया है। सूचना का अधिकार का इस तरह से मजाक बनाने की संभवत: यह देश का पहला मामला है।

मामला बहुराष्टरीय दवा कंपनियों द्वारा विकसित दवाओं के मरीज पर प्रयोग (ड्रग ट्रायल) से जुड़ा है। स्वास्थ्य समर्पण सेवा समिति के सदस्य डॉ. आनंद राय ने कॉलेज के विभिन्न विभागों को ट्रायल के लिए मिले रुपए की ऑडिट रिपोर्ट मांगी थी। मेडिसिन विभाग ने वर्ष 2010 की ऑडिट रिपोर्ट तो दी लेकिन कई महत्वपूर्ण आंकड़ों पर कालिख पोत दी। ऑडिट रिपोर्ट सरिता मूंदड़ा ने तैयार की है। मूंदड़ा के पते और फोन नंबर पर भी कालिख पोती गई है। साथ ही कवरिंग पत्र में यह भी लिख दिया कि आवेदन द्वारा चाही गई जानकारी से यह संबंधित नहीं है, इसलिए इस पर काले रंग का प्रयोग करके इसे अपठनीय बनाया गया है। उधर, आवेदक का कहना है मैंने संपूर्ण ऑडिट रिपोर्ट मांगी थी, इसलिए उसका सीधा-सीधा मेरे आवेदन से संबंध है। ट्रायल के नाम पर हुए हेरफेर को छुपाने के लिए यह कार्रवाई की है। इसके विरूद्ध मैं संचालक चिकित्सा शिक्षा को अपील कर रहा हूं।

साढ़े 13 लाख का हिसाब छुपाया
ऑडिट रिपोर्ट में स्पष्ट है कि 31 मार्च 2010 तक मेडिसिन विभाग की साइंटिफिक कमेटी के खाते में 13.47 लाख रुपए आए हैं। कालिख से यह छुपा लिया गया है कि यह किन लोगों में बंटा।



जानकारी छुपाने वाले विभाग पर गंभीर आरोप

मेडिसिन विभाग के डॉ. अनिल भराणी, डॉ. आशीष पटेल, पूर्व एचओडी डॉ. अशोक वाजपेयी पर गंभीर आरोप है कि इन्होंने राज्य सरकार को जानकारी दिए बगैर ट्रायल करके अकूत संपत्ति जुटाई है। डॉ. भराणी और डॉ. पटेल ने तो एक ट्रायल के लिए एमजीएम मेडिकल कॉलेज को स्पांसर कंपनी बताने तक का खेल कर दिया है।

'संभवत: यह देश का पहला मामला है, जब जानकारी पर कालीख पोती गई है। नि:संदेह जानकारी छुपाने की कोशिश के चलते यह कदम उठाया होगा। वही जानकारी छुपाई जा सकती है, जिससे शांति भंग होने या देश की गोपनीयता को खतरा हो। हम इसे राष्टï्रीय स्तर पर बहस का मुद्दा बनाएंगे।
- रोली शिवहरे, सूचना का अधिकार कार्यकर्ता

'आवेदक को इसके विरूद्ध अपील करना चाहिए। साथ ही जिस दस्तावेज पर कालिख पोती गई है, उसके लिए फिर से आवेदन लगाना चाहिए।
- गौतम कोठारी, सूचना का अधिकार कार्यकर्ता

पत्रिका : २१ सितम्बर २०१०

चौतरफा घिरे ड्रग ट्रायल वाले डॉक्टर

- विधानसभा, ईओडब्ल्यू, लोकायुक्त, मानवाधिकार आयोग, एमसीआई, आयकर के साथ ही यूएसएफडीए ने लिया संज्ञान

बहुराष्टरीय दवा कंपनियों द्वारा विकसित दवा का मरीजों पर प्रयोग (ड्रग ट्रायल) करने वाले एमजीएम मेडिकल कॉलेज के डॉक्टर चौतरफा घिर गए हैं। लोकायुक्त, आर्थिक अपराध अनुसंधान ब्यूरो, मानवाधिकार आयोग, आयकर और मेडिकल काउंसिल ऑफ इंडिया के साथ ही यूनाइटेड स्टेट्स के फूड एंड ड्रग्स एडमिनिस्ट्रेशन (यूएसएफडीए) ने इसे बेहद गंभीर मानकर जांच शुरू कर दी है। यूएसएफडीए ने इस संबंध में भारत सरकार को पत्र भेजा है। 

'पत्रिकाÓ ने ही ड्रग ट्रायल का खुलासा करके बताया था कि कॉलेज से जुड़े एमवाय अस्पताल और चाचा नेहरू बाल चिकित्सालय में आने वाले रोगियों को अंधेरे में रखकर ट्रायल किए जा रहे हैं। इसके बाद मामला विधानसभा पहुंचा और मध्यप्रदेश सरकार ने कानूनी बंदिश के लिए एक कमेटी का गठन किया। चिकित्सा शिक्षा विभाग के प्रमुïख सचिव आईएस दाणी की अध्यक्षता में बनी यह कमेटी ट्रायल को नियंत्रित  करने के लिए केंद्र सरकार और दूसरे राज्यों के कानूनी प्रावधानों की पड़ताल कर रही है।

 51 रोगियों पर दुष्प्रभाव
ड्रग ट्रायल से रा'य के सरकारी मेडिकल कॉलेजों में 51 रोगियों पर साइड इफेक्ट हुए हैं। ये मरीज पिछले पांच वर्ष में कॉलेजों से जुड़े अस्पतालों में इलाज ले रहे थे। यह जानकारी विधानसभा से जारी एक दस्तावेज में उजागर हुई है। सरकार ने विधानसभा को बताया था कि पांच वर्ष में 2365 रोगियों पर ट्रायल हुआ। इसमें 1644 ब'चे और 721 वयस्क हैं। जिन मरीजों पर दुष्प्रभाव हुए हैं, उनके नाम अभी जाहिर नहीं किए गए हैं। आशंका है कि इनमें से कुछ की मौत हो चुकी है।

मरीज की सेहत और डॉक्टर के एकाउंट पर नजर

यूएसएफडीए
'पत्रिकाÓ के खुलासे के बाद रशिया टीवी ने एमवाय अस्पताल में ट्रायल को लेकर एक खबर अंतरराष्टï्रीय स्तर पर प्रसारित की थी। रिपोर्ट में जिक्र था कि अमेरिकन कंपनियों की शह पर यहां गरीब मरीजों पर प्रयोग हो रहे हैं। इसी पर यूएसएफडीए ने केंद्र सरकार को पत्र लिखकर मध्यप्रदेश में हुए ट्रायल का विस्तृत ब्यौरा मांगा है।

विधानसभा
विधायक पारस सकलेचा, प्रताप ग्रेवाल और प्रद्युम तोमर ने विधानसभा में पांच सरकारी मेडिकल कॉलेजों में हो रहे ट्रायल को लेकर जो सवाल पूछे थे। उनके जवाब आज तक  सरकार ने नहीं दिए हैं। मानसून सत्र में ध्यानाकर्षण प्रस्ताव के दौरान चिकित्सा शिक्षा राज्य मंत्री महेंद्र हार्डिया ने कहा था ट्रायल को काबू करने के लिए सरकार कानून बनाना चाहती है।

ईओडब्ल्यू
स्वास्थ्य सेवा समर्पण सेवा समिति अध्यक्ष डॉ. आनंद राजे की शिकायत पर भोपाल ईओडब्ल्यू ने डॉ. अपूर्व पुराणिक, डॉ. अनिल भराणी, डॉ. सलिल भार्गव, डॉ. अशोक वाजपेयी, डॉ. हेमंत जैन और डॉ. पुष्पा वर्मा के खिलाफ जांच शुरू कर रखी है। सभी डॉक्टरों के एकाउंट की जांच जारी है।

लोकायुक्त
ट्रायल करने वाले डॉक्टरों, एमजीएम मेडिकल कॉलेज प्रबंधन और एथिकल कमेटी के सदस्यों के खिलाफ लोकायुक्त में भी शिकायत हो चुकी है। आरोप है कि सभी ने मिलकर गरीब और अनपढ़ मरीजों की जान जोखिम में डाली है। लोकायुक्त ने शिकायतकर्ता राजेंद्र के. गुप्ता को 14 अक्टूबर को भोपाल बुलाया है।

मानवाधिकार आयोग
'पत्रिकाÓ में प्रकाशित खबरों पर संज्ञान लेकर  मप्र मानवाधिकार आयोग के चेयरमैन जस्टिस डीएम धर्माधिकारी, सदस्य जस्टिस एके सक्सेना व जस्टिस वीके शुक्ल ने एमवायएच अधीक्षक डॉ. सलिल भार्गव को नोटिस भेजा है। आयोग जानना चाहता है कि मरीजों के अधिकारों का हनन तो नहीं हो रहा।

आयकर
'पत्रिकाÓ में प्रकाशित खबरों के आधार पर आयकर विभाग ने मेडिकल कॉलेज डीन डॉ. एमके सारस्वत से उन सभी डॉक्टरों की आय का ब्यौरा मांगा है, जो ट्रायल में लिप्त हैं। विभाग की जिज्ञासा इसमें है कि कहीं डॉक्टरों ने बेनामी संपत्ति तो नहीं जुटा ली। 

एमसीआई

मेडिकल काउंसिल ऑफ इंडिया को जो शिकायत भेजी गई थी, उसी पर मप्र के चिकित्सा शिक्षा संचालक से पूरा ब्यौरा मांगा गया है। सभी मेडिकल कॉलेज इसका जवाब तैयार कर रहे हैं। 'पत्रिकाÓ पूर्व में ही यह जानकारी प्रकाशित कर चुका है।



पत्रिका : २१ सितम्बर २०१०

ड्रग ट्रायल का एक ओर कागज ईओडब्ल्यू पहुंचा

मेडिसिन प्रोफेसर डॉ. अनिल भराणी और असिस्टेंट प्रोफेसर डॉ. आशीष पटेल द्वारा एक ड्रग ट्रायल के लिए एमजीएम मेडिकल कॉलेज को स्पांसर कंपनी पहुंचाने का दस्तावेज भी ईओडब्ल्यू पहुंच गया है। वहां इसे जांच में भी लिया जा चुका है। सूत्रों के मुताबिक ईओडब्ल्यू इसे गंभीर आर्थिक अपराध मान रहा है, क्योंकि कॉलेज को कंपनी बताने की जानकारी कॉलेज प्रबंधन को नहीं है। 'पत्रिकाÓ ने ही इसका खुलासा किया है।


एसबीआई सुने चार अफसरों का केस
स्टेट बैंक ऑफ इंदौर के चार अधिकारियों की याचिका का हाईकोर्ट ने निराकरण कर दिया। कोर्ट ने आदेश दिया है कि चूंकि अब इंदौर बैंक का विलय स्टेट ऑफ इंडिया में हो चुका है, इसलिए उनकी बात वहीं सुनी जाना चाहिए। चारों अधिकारियों का इंदौर बैंक ने तबादला कर दिया था। इसे ही चुनौती देने के लिए वे हाईकोर्ट गए थे। सिंगल बैंच ने इसे खारिज कर दिया था और मामला युगलपीठ में लंबित था।


 
पत्रिका : ०३ सितम्बर २०१०

शुक्रवार, सितंबर 03, 2010

व्हिसल ब्लोअर के पक्ष में उतरे मेडिकल छात्र

जूनियर डॉक्टरों की हड़ताल उकसाने के आरोप में बर्खास्त किए गए एमजीएम मेडिकल कॉलेज के सीनियर रेसीडेंट डॉ. आनंद राय के पक्ष में 73 मेडिकल छात्र सामने आ गए हैं। ये सभी 2005 से 2007 की एमबीबीएस बेच के छात्र हैं। छात्रों ने डॉ. राय की बर्खास्तगी का कारण उनका व्हिसल ब्लोअर (भ्रष्टाचार सचेतक) होना बताया है।

छात्रों ने एमजीएम मेडिकल कॉलेज डीन को एक पत्र लिखा है। इसके मुताबिक डॉ. राय पर की गई कार्रवाई पूर्वाग्रह से ग्रसित है। उन्होंने व्यवस्था में रहकर कुछ डॉक्टरों द्वारा ड्रग ट्रायल के जरिए मरीजों के साथ हो रहे धोखे का खुलासा किया है, इसीलिए बाहर किया गया। छात्रों ने यह तथ्य भी उजागर किया है कि कॉलेज काउंसिल की जिस बैठक में डॉ. राय को बाहर करने का निर्णय लिया है, उसमें 38 में से 16 सदस्य ही इसमें शामिल थे, जो कि कोरम का अभाव है। छात्रों ने डॉ. राय का निलंबन समाप्त करने की मांग की है।

हाईकोर्ट ने कॉलेज को दी पोस्ट भरने की छूट
डॉ. आनंद राय द्वारा दायर याचिका पर बुधवार को इंदौर हाईकोर्ट ने मेडिकल कॉलेज को छूट दे दी कि वह नेत्र रोग विभाग में सीनियर रेसीडेंट के रिक्त पद को भर ले। पिछली सुनवाई में जस्टिस एससी शर्मा ने पद भरने पर रोक लगाई थी। शासकीय अधिवक्ता विवेक पटवा ने बताया कोर्ट ने पद भरने का आदेश देते हुए केस में अगली सुनवाई चार सप्ताह बाद रखी है। उधर, मेडिकल कॉलेज प्रबंधन 30 अगस्त को ही पद पर भर्ती के लिए साक्षात्कार ले चुका है। संभावना है कि शुक्रवार को पद भर लिया जाएगा। 

पत्रिका : ०२ सितम्बर २०१० 

ड्रग ट्रायल में सुस्ती का संक्रमण

- चिकित्सा शिक्षा विभाग ने एक महीने में कमेटी ही बना सका


बहुराष्टरीय कंपनियों द्वारा विकसित दवा के मरीजों पर प्रयोग (ड्रग ट्रायल) के मामले में चिकित्सा शिक्षा विभाग ने एक महीने में महज एक कमेटी का गठन ही किया है। न तो इस कमेटी की बैठक हुई है और न ही अब तक किसी दूसरे राज्य के कानूनों का अध्ययन ही किया गया।
चिकित्सा शिक्षा राज्य मंत्री महेंद्र हार्डिया ने 30 जुलाई को विधानसभा में तीन सदस्यों की कमेटी बनाकर राज्य में ड्रटग ट्रायल पर कानूनी बंदिश लगाने की घोषणा की थी। विभाग के प्रमुख सचिव और कमेटी चेयरमैन आईएस दाणी ने बुधवार को बताया कि कमेटी तीन के बजाए पांच सदस्यों की बनाई गई है। इसमें विधि विभाग के प्रमुख सचिव पीसी मीणा के साथ ही संचालक चिकित्सा शिक्षा डॉ. वीके सैनी, मेडिकल काउंसिल ऑफ इंडिया के पूर्व उपाध्यक्ष डॉ. भरत छपरवाल और भोपाल के डॉ. एनआर भंडारी सदस्य हैं।


बंदिश नहीं होने से मरीजों की जान सांसत में
अभी तक राज्य में ड्रग ट्रायल की निगरानी की कोई व्यवस्था मौजूद नहीं है। यही वजह है कि पिछले पांच वर्षों में बहुराष्टï्रीय कंपनियों ने राज्य के प्रतिष्ठित डॉक्टरों के जरिए मरीजों पर धड़ल्ले से दवाओं के ट्रायल किए। सरकारी के साथ ही निजी क्षेत्रों में अंधाधुंध ट्रायल हो रहे हैं। पांच वर्ष में मप्र के सरकारी मेडिकल कॉलेजों में हुए ट्रायल से ही 51 रोगियों पर दुष्प्रभाव हुआ। इनमें से कुछ की मौत की भी आशंका है। विधायक पारस सकलेचा और प्रताप ग्रेवाल ने इस मुद्दे को विधानसभा में उठाया था। स्वास्थ्य समर्पण सेवा समिति के अध्यक्ष डॉ. आनंद राजे की शिकायत पर आर्थिक अपराध अन्वेषण ब्यूरो (ईओडब्ल्यू) डॉ. अपूर्व पुराणिक, डॉ. अनिल भराणी, डॉ. पुष्पा वर्मा, डॉ. हेमंत जैन, डॉ. सलिल भार्गव और डॉ. अशोक वाजपेयी की जांच कर रहा है।

पत्रिका: 02 सितंबर 2010


ड्रग ट्रायल का एक ओर कागज ईओडब्ल्यू पहुंचा
मेडिसिन प्रोफेसर डॉ. अनिल भराणी और असिस्टेंट प्रोफेसर डॉ. आशीष पटेल द्वारा एक ड्रग ट्रायल के लिए एमजीएम मेडिकल कॉलेज को स्पांसर कंपनी पहुंचाने का दस्तावेज भी ईओडब्ल्यू पहुंच गया है। वहां इसे जांच में भी लिया जा चुका है। सूत्रों के मुताबिक ईओडब्ल्यू इसे गंभीर आर्थिक अपराध मान रहा है, क्योंकि कॉलेज को कंपनी बताने की जानकारी कॉलेज प्रबंधन को नहीं है। 'पत्रिकाÓ ने ही इसका खुलासा किया है।

पत्रिका: 0३ सितंबर 2010

मंगलवार, अगस्त 31, 2010

ड्रग ट्रायल के लिए मेडिकल कॉलेज को बता दिया स्पांसर कंपनी

एमवाय अस्पताल में हायरपरटेंशन के रोगियों पर हो रहा प्रयोग


बहुराष्टरीय कंपनियों द्वारा विकसित दवा के मरीजों पर प्रयोग (ड्रग ट्रायल) के लिए एमवाय अस्पताल के दो डॉक्टरों ने एमजीएम मेडिकल कॉलेज को स्पांसर कंपनी बना दिया। ये डॉक्टर किसी दवा कंपनी के लिए अस्पताल में आने वाले हायपर टेंशन के रोगियों पर टेडलाफिल नामक दवा का प्रयोग कर रहे हैं। कान खड़े करने वाला तथ्य यह है कि कॉलेज को पता ही नहीं है कि उसे स्पांसर बना दिया गया है।

मेडिसिन विभाग के प्रोफेसर डॉ. अनिल भराणी और असिस्टेंट प्रोफेसर डॉ. आशीष पटेल ने 1 जुलाई 2010 को केंद्र सरकार के क्लिनिकल ट्रायल रजिस्ट्री इंडिया (सीटीआरआई) में प्लोमोनरी हायपर टेंशन के 60 मरीजों पर प्रयोग के लिए रजिस्ट्रेशन करवाया। डॉ. भराणी प्रमुख जबकि डॉ. पटेल सहयोगी इन्वेस्टिगेटर हैं। दोनों डॉक्टर रोगियों को टेडलाफिल नाम की दवा देकर उसका असर जांच रहे हैं।

किसके पास रहेंगे वित्तीय अधिकार?
विश्व स्वास्थ्य संगठन के मुताबिक स्पांसर व्यक्ति या संस्था ट्रायल पर होने वाले समस्त खर्च के लिए जवाबदेह होती है। ट्रायल के बाद दवा को बाजार में उतारने के पहले उसके वित्तीय अधिकार स्पांसर कंपनी ही बेचती है। दवा उत्पाद से जुड़े जानकारों के मुताबिक आम तौर पर किसी दवा के अधिकार करोड़ों में बेचे जाते हैं। अहम सवाल यही है कि इस ट्रायल के नतीजों के वित्तीय अधिकार किसके पास रहेंगें और उन्हें कौन बेचेगा?

आर्थिक अपराध की श्रेणी में शामिल
किसी सरकारी कर्मचारी द्वारा अपने संस्थान को कंपनी की तौर पर पेश करके कहीं से रुपए कमाना आर्थिक अपराध की श्रेणी में आता है। सरकार यदि मामले की तह तक जाए, तो यह बड़ी आर्थिक गड़बड़ी साबित होगा।


सूचना का अधिकार में भी नहीं दे रहे जानकारी
इस संबंध में संबंधित डॉक्टरों ने चर्चा करना चाही तो उन्होंने बात करने से मना कर दिया। डॉ. पटेल चाहते थे कि इस संबंध में कोई भी जानकारी लिखित में ही दी जा सकती है। 'पत्रिकाÓ ने सूचना का अधिकार का इस्तेमाल किया गया, तो मेडिसिन विभाग ने लिखित में दिया कि गोपनीयता की शर्त के कारण यह जानकारी नहीं दी जा सकती है।


मर्ज और दवा दोनों ही खतरनाक

मर्ज: रूक जाती है फेफड़े की रक्तवाहिनी
दिल से खून को पूरे शरीर में ले जाने वाली रक्त नलिकाएं पल्मोनरी वैसल्स (धमनियां) कहलाती हैं। फेफड़ों में मौजूद धमनियों में जब रूकावट आती है तो ब्लड प्रेशर बढ़ता है और दिल के दाएं हिस्से में तेज दर्द उठता है। कभी कभी इसे दिल की धड़कन हमेशा के लिए रूक जाती है। इसे ही प्लमोनरी हायरपर टेंशन (पीएचटी) कहते हैं।

दवा: नपुंसक बना सकती है टेडलाफिल 
- पुरुष जननांग छह घंटे तक उत्तेजित अवस्था में आ सकता है। इससे ताजिंदगी नपुंसक होने का खतरा भी रहता है।
- 0.1 प्रतिशत मरीजों में रंग पहचानने की शक्ति समाप्त हो जाती है। वे नीले-हरे रंग में अंतर नहीं कर पाते। 
- चेहरे पर सूजन, शरीर में झुनझुनी, थकान और दर्द हो सकता है।
- ब्लड प्रेशर में बहुत अधिक उतार-चढ़ाव, अचानक हार्ट अटैक, बेहोशी, सांस की गति बढऩा भी संभव है।
- पांच प्रतिशत रोगियों में अत्यधिक पीठ या कमर का दर्द होता है। 


मैं कुछ नहीं बता सकता
क्या आप टेडलाफिल के ड्रग ट्रायल की जानकारी देंगे?
मौखिक कुछ नहीं दूंगा, लिखित में मांगे।
परंतु सीटीआरआई ने तो आपको जनता के सवालों का जवाब देने के लिए जिम्मेदार बताया है?
वह सही है, लेकिन मैं आपको मौखिक कुछ नहीं बता सकता।
मुझे सिर्फ इतना बता दें कि क्या ट्रायल के लिए कॉलेज को स्पांसर बनाया गया है?
कहना, मैं आपको कुछ नहीं बता सकता।
(डॉ. आशीष पटेल से  चर्चा)

'किसी को तो बताना ही था स्पांसरÓ 
टेडलाफिल दवा के ट्रायल में मेडिकल कॉलेज को स्पांसर क्यों बनाया गया?
सीटीआरआई में किसी को स्पांसर बताना जरूरी था, इसलिए ऐसा कर दिया।
इसमें वित्तीय मदद कहां से मिल रही है?
उसकी जरूरत ही नहीं है। दूसरे ट्रायल चल रहे हैं, तो यह भी साथ में हो रहा है। इससे जूनियर्स को सीखने को मिलेगा।
वित्तीय अधिकार किसे बेचे जाएंगे?
इसकी कोई जरूरत ही नहीं पड़ेगी। एक कंपनी ने कहा और हम ट्रायल कर रहे हैं, इसमें वित्तीय अधिकार की बात ही कहां आई?
(डॉ. अनिल भराणी से चर्चा)


मुझे इस मामले की कोई जानकारी नहीं है। मैं इसकी जांच करूंगा और फिर ही कोई कोई टिप्पणी कर सकूंगा।
- डॉ. एमके सारस्वत, डीन, एमजीएम मेडिकल कॉलेज

पत्रिका: ३० अगस्त २०१० 

बुधवार, अगस्त 25, 2010

मध्यप्रदेश में व्हीसल ब्लोअर पर सरकारी तंत्र का हमला

Dr. Aanad Rai


व्हीसल ब्लोअर यानी भ्रष्टाचार या गड़बडिय़ों को देखकर सरकार को सचेत करने वाला बंदा। लुप्त होती जा रही 'व्हीसल ब्लोअरÓ की इस प्रजाति को बचाने के लिए भारत सरकार संजिदा दिखती है और यही वजह है कि एक ऐसे कानून का मसौदा तैयार किया जा चुका है जिससे यह 'कौमÓ संरक्षित रहेगी। परंतु, मध्यप्रदेश में यह कौम खतरे में है। 'बीमारूÓ की श्रेणी से उबर नहीं पा रहा मध्यप्रदेश 'संगठित और सरकारी भ्रष्टाचारÓ की गिरफ्त में है। ब्यूरोक्रेट जोशी दंपत्ति के पास से मिली अरबों की चल-अचल संपत्ति से इस धारणा पर मुहर भी लगी है। बावजूद इसके राज्य में 'सचेतकÓ को सुरक्षित रखने की कोई कोशिश नजर नहीं आती।

ताजा उदाहरण, एक सरकारी डॉक्टर का है, जिसका नाम आनंद राय है। वे 21 अगस्त की रात तक इंदौर के एमजीएम मेडिकल कॉलेज के नेत्र रोग विभाग में सिनीयर रेसीडेंट थे। उस रात एक बजे तक चिकित्सा शिक्षा विभाग भोपाल और कॉलेज डीन के कक्ष में समानांतर बैठकें होती रहीं। आखिर में हुआ कि राज्य में जारी जूनियर डॉक्टरों की हड़ताल को उकसाने के आरोप में डॉ. राय को बर्खास्त कर दिया जाए। आरोप का आधार एक खबर को बनाया गया, जिसमें डॉ. राय ने इंदौर जूनियर डॉक्टर्स एसोसिएशन का संरक्षक होने के नाते कहा था 'मैं जूडॉ की मांगों का नैतिक समर्थन करता हूं।Ó 

सवाल है, फिर डॉ. राय को बगैर नोटिस दिए, देर रात तक बैठक करके ताबड़तोड़ बाहर क्यों किया गया? क्या  चिकित्सा शिक्षा विभाग या कॉलेज प्रबंधन की डॉ. राय से जाति दुश्मनी है? क्या डॉ. राय के कहने भर से राज्यभर के जूनियर डॉक्टर हड़ताल कर रहे हैं? क्या डॉ. राय का एक बयान ही उनकी बर्खास्तगी का कारण है या बर्खास्तगी की पृष्ठभूमि पहले से ही तैयार थी ? क्या डॉ. राय व्हिसल ब्लोअर हैं, इसलिए उन्हें सिस्टम से बाहर कर दिया गया?

सवालों का जवाब तलाशने के लिए फ्लैश बैक में जाना होगा। 15 अक्टूबर 2007 को मप्र हाईकोर्ट जस्टिस आरएस झा ने चिकित्सा शिक्षा विभाग को अंतरिम आदेश दिया कि एमजीएम मेडिकल कॉलेज के नेत्र रोग विभाग में सिनीयर रेसीडेंट के पद पर भर्ती के लिए डॉ. आनंद राय की अर्जी भी मंजूर की जाए। इसके बाद ही उन्हें राहत मिली। पहले विभाग का तर्क था कि डॉ. राय ने पीजी डिप्लोमा किया है, इसलिए उन्हें पात्रता नहीं है। डॉ. राय ने भारतीय चिकित्सा परिषद (एमसीआई) के दस्तावेजों के आधार पर कोर्ट में केस दायर किया था। बहरहाल, साक्षात्कार में योग्यता के आधार पर उन्हें चयनित कर लिया गया। इसके बाद यह कहकर नियुक्ति को रोक दिया गया कि याचिका हाईकोर्ट में खत्म नहीं हुई है। डॉ. राय फिर से जबलपुर हाईकोर्ट की शरण में गए। जस्टिस दीपक मिश्रा व आरके गुप्ता की युगलपीठ ने आदेश दिया कि डॉ. राय की याचिका समाप्त हो गई है। मजबूरन, विभाग को 'मुंह बिगाड़करÓ डॉ. राय को नौकरी पर रखा।

डॉ. राय वर्ष 2005 से 07 तक पीजी छात्र थे और तब जूनियर डॉक्टर्स एसोसिएशन इंदौर के अध्यक्ष, प्रदेश के महासचिव और प्रवक्ता रहे। उनके दौर में भी हड़तालें हुई और वे सरकार के निशाने पर आए गए। सीनियर रेसीडेंट बनने के बाद उन्हें सिस्टम की खामियां महसूस हुई। उन्हें लगा कि मेडिकल कॉलेजों से जुड़े अस्पतालों में हड़ताल के दौरान भी व्यवस्थाएं माकूल रखने के लिए एमसीआई मापदंड के मुताबिक हर कॉलेज में सीनियर व जूनियर रेसीडेंट की पर्याप्त भर्ती की जाना चाहिए। इसे लेकर उन्होंने 'सूचना का अधिकारÓ का हथियार अपनाया और केंद्र व राज्य सरकार से हजारों जानकारियां बटौरी। इस दौरान ही उनकी विभाग के संचालक, प्रमुख सचिव और मंत्री से वैचारिक टकराहट शुरू हुई। उनके तर्कों को कोई मानने को तैयार नहीं हुआ तो वे जबलपुर हाईकोर्ट पहुंच गए। वहां 6302/2010 नंबर से एक याचिका दायर की, जिसमें रेसीडेंट डॉक्टरों की संख्या, अधिकारों और नियमित नियुक्ति के मामले उठाए गए हैं। याचिका में हाईकोर्ट से दो बार विभागीय अधिकारियों को दो बार नोटिस भी हो भी हो चुके हैं। यह और बात है कि सरकार ने अब तक जवाब नहीं दिया है।

तीन वर्ष में ही डॉ. राय एक व्हिसल ब्लोअर के रूप में उभरे हैं। वे अब तक चिकित्सा शिक्षा विभाग के डॉक्टरों की चल-अचल संपत्ति, राज्य के मेडिकल कॉलेजों की एमसीआई मान्यता, राज्य में स्वास्थ्य नीति की कमी, मेडिकल यूनिवर्सिटी की गैरमौजूदगी के साथ ही सीनियर डॉक्टरों की प्रायवेट प्रेक्टिस, ड्यूटी ओवर्स में डॉक्टरों का ड्यूटी से गायब रहना, सरकारी अस्पतालों में गरीब मरीजों की अनदेखी, मरीजों को प्रायवेट लेबोरेटरी व अस्पतालों में रैफर करना, ग्रामीण स्वास्थ्य सेवाओं में पसरा भ्रष्टाचार जैसे कई मसले उठा चुके हैं। उनका हथियार सूचना का अधिकार रहा है।

जुलाई 2010 में डॉ. आनंद राय ने बहुराष्टï्रीय कंपनियों द्वारा विकसित दवाइयों के मरीजों पर परीक्षण (ड्रग ट्रायल) का खुलासा किया। इसके लिए उन्होंने मीडिया और विधायकों को जरिया बनाया। मीडिया ने खबरें प्रकाशित की और विधायकों ने विधानसभा में सरकार से सवाल पूछे। करोड़ों अरबों के ड्रग ट्रायल के खेल की पोल खुलने से पूरे राज्य की स्वास्थ्य सेवाओं और डॉक्टरों के 'नोबलÓ चरित्र पर प्रश्नचिह्न उठ खड़ा हुआ। सरकार अनुत्तरित रही और राज्य के आर्थिक अपराध अनुसंधान ब्यूरो व लोकायुक्त ने ट्रायल में लिप्त कुछ नामचीन डॉक्टरों की जांच शुरू कर दी। जैसा कि राज्य में होता आया है, सरकार ने लीपापोती शुरू कर दी। मरीजों और सरकार की आंखों में साफ-साफ धूल छोंकने वाले डॉक्टरों को 'शोधार्थीÓ (रिसर्चर) बताया गया। हालांकि, सरकार का यह कृत्य जनता को हजम नहीं हो रहा है। डॉ. राय स्वास्थ्य समर्पण सेवा समिति नाम के एक संगठन से भी जुड़े हैं। इसी संगठन के जरिए उन्होंने 'ट्रायलÓ मुद्दे को उठाया है।

ड्रग ट्रायल के बाद से ही पूरा सरकारी तंत्र डॉ. राय को 'निपटानेÓ की जोड़तोड़ में था। अगस्त में शुरू हुई जूनियर डॉक्टरों की हड़ताल में तंत्र कामयाब हो गया। डॉ. राय इंदौर जूनियर डॉक्टर्स एसोसिएशन के संरक्षक हैं और इसी नाते हड़ताल के दौरान उन्होंने एक-दो बार मीडिया में कहा था 'मैं जूडॉ की मांगों का नैतिक समर्थन करता हूं।Ó बस फिर क्या था, इस बयान को आधार बनाकर उन्हें 'बाहरÓ का रास्ता दिखा दिया। हद तो यह हो गई कि उनकी बर्खास्तगी को एक विज्ञापन के जरिए प्रमुख अखबारों में प्रकाशित करवाया गया, जिसमें संभवत: कुछ लाख रुपए खर्च हुए होंगे। 

 प्राकृतिक न्याय के तहत डॉ. राय ने फिलहाल कॉलेज को एक नोटिस दिया है, निश्चत तौर पर इसका उन्हें इसका नकारात्मक जवाब मिलेगा। इसके बाद ही वे कोर्ट की दहलीज पर जाकर न्याय मांग सकते हैं। खुशी इस बात की है कि डॉ. राय निराश नहीं हुए हैं। उनका कहना है मुझे सिर्फ और सिर्फ ड्रग ट्रायल खुलासे के कारण हटाया गया है। सरकार संदेश देना चाहती है कि सरकारी तंत्र के भीतर जो व्यक्ति 'आवाजÓ उठाऐगा, उसे इसी तरह दबा दिया जाएगा। मैं इससे घबराने वाला नहीं हूं, न्याय पाकर ही दम लूंगा।  

इस जिंदा उदाहरण से साबित होता है ...
मध्यप्रदेश में व्हीसल ब्लोअर सरकारी तंत्र के निशाने पर हैं।

सोमवार, अगस्त 23, 2010

व्हिसल ब्लोअर की सफाई ?

चिन्मय मिश्र 
 
ये  किस तरह का समय है, जब पेड़ों के बारे में बात करना लगभग अपराध है।

मध्यप्रदेश में चल रही जूनियर डॉक्टरों की हड़ताल की आड़ में डॉ. आनंद राय की बर्खास्तगी उन सभी सरकारी कर्मचारियों के लिए चेतावनी है, जो प्रशासन में व्याप्त भ्रष्टाचार के खिलाफ आवाज उठा रहे हैं। डॉ. राय ने इंदौर के महात्मा गांधी स्मृति चिकित्सा महाविद्यालय व महाराजा यशवन्त राव अस्पताल में बिना अनुमति के बहुराष्ट्रीय दवाई कंपनियों के लिए किए जा रहे ड्रग ट्रायल का पर्दाफाश किया था। उनकी बर्खास्तगी के आदेश को मीडिया के लिए भी एक चेतावनी माना जा सकता है। क्योंकि डॉ. राय द्वारा किए गए रहस्योद्घाटन को अंतत: मीडिया ने ही व्यापक समाज तक पहुंचाया था। इसलिए यह आदेश मीडिया को भी उसकी हैसियत बताने का तरीका है कि वे भले ही समाज हित के लिए अपना सर्वस्व दांव पर लगा दें, लेकिन प्रशासन वही करेगा जो कि उसके स्वयं के हित में है।

इस आदेश का अध्ययन इसलिए भी महत्वपूर्ण हो जाता है क्योंकि हड़ताल की वजह से जहां अन्य जूनियर डॉक्टर्स को 15 दिनों के लिए निलंबित किया गया है, वहीं डॉ. राय के अनुसार उन्होंने हड़ताल की अवधि में भी ओपीडी और इमरजेंसी विभाग में अपनी सेवाएं दी थी। इसके बावजूद सूत्रों का कहना है कि उन्हें 'बेहतरीÓ के लिए बर्खास्त किया गया है। सवाल उठता है कि यह किसकी बेहतरी के लिए किया गया है? हड़ताल के दौरान भी अपना काम करना क्या 'बेहतरी  की श्रेणी में नहीं आता? दरअसल बात बहुत दूर तक जा रही है। एक ओर सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाओं की बदहाली तो चर्चा में थी ही, वहीं दूसरी ओर मई में प्रधानमंत्री कार्यालय द्वारा चार बहुराष्ट्रीय दवाई कंपनियों  नोवारिटस, बीएमएस, इलिलिली और फाइजर के सर्वोच्च अधिकारियों के साथ बैठक में भारतीय दवाई निर्माताओं का मानना है कि देश में निर्मित 'जेनेरिकÓ दवाइयों के कारण भारत व तीसरी दुनिया के देशों और कुछ हद तक विकसित देशों में भी दवाई की कीमतें काबू में रहती हैं। यदि बहुराष्ट्रीय कंपनियों की बात मान ली जाती है, तो आम आदमी को जीवनरक्षक दवाइयों के लिए काफी अधिक मूल्य देना होगा।

इसी दौरान मंदसौर स्थित पशुपतिनाथ मंदिर के लिए सरकारी तौर पर चंदा इकठ्ठा  करना भी गंभीर मामला है। कहा जा रहा है कि पिछले वर्ष तत्कालीन कलेक्टर ने 'मनोकामना अभिषेक योजना के माध्यम से 4.5 करोड़ रुपये इकठ्ठा किए थे और इस बार तो जिलेभर में  मनोकामना अभिषेक वर्ष २०१० समारोहित कर पांच करोड़ रुपये इकठ्ठा करने की योजना है। इस हेतु सरकारी अधिकारियों को नोडल ऑफिसर नियुक्त कर दिया गया है और रसीद कट्टे छपवाकर 'टारगेटÓ तय कर वितरित कर दिए गए हैं।

सरसरी तौर पर देखने में उक्त दोनों मामलों में कोई समानता नजर नहीं आएगी, परन्तु गहराई से देखने पर समझ में आता है कि दोनों मामलों में शासन-प्रशासन अपनी तरह से मूल्य व मानक तय कर रहा है। 'व्हिसल ब्लोअरÓ बिल को अभी कैबिनेट से ही सहमति मिली है, अतएव प्रशासन में रहकर भ्रष्टाचार उजागर करने वालों की अभी खैर नहीं है। इस अधिनियम के अभाव में सूचना का अधिकार कानून को लेकर अमित जेठवा जैसे भ्रष्टाचार उजागर करने वालों का हश्र हम देख चुके हैं।

सरकारें भी चाहती हैं कि व्हिसल ब्लोअर अधिनियम पारित होने से पहले जितनी 'सफाईÓ संभव हो कर ली जाए परन्तु यह विध्वंसकारी परिपाटी है जिससे सार्वजनिक क्षेत्र को बचाया जाना चाहिए। दहशत फैलाने की कोशिशों के समक्ष चुप बैठना भी समझदारी नहीं है।


चिन्मय मिश्र  सामाजिक कार्यकर्ता  हैं.
पत्रिका : २३ अगस्त २०१०

शुक्रवार, अगस्त 20, 2010

ड्रग ट्रायल से 51 रोगियों पर साइड इफेक्ट

- विधानसभा के दस्तावेज में मंत्री ने मंजूर की सच्चाई

बहुराष्टï्रीय कंपनियों द्वारा विकसित दवा के मरीजों पर प्रयोग (ड्रग ट्रायल) से राज्य के सरकारी मेडिकल कॉलेजों में 51 रोगियों पर साइड इफेक्ट हुए हैं। ये मरीज पिछले पांच वर्ष में कॉलेजों से जुड़े अस्पतालों में इलाज के लिए गए थे।

यह जानकारी विधानसभा से जारी एक दस्तावेज में उपलब्ध है। चिकित्सा शिक्षा राज्य मंत्री महेंद्र हार्डिया ने विधानसभा में यह जानकारी दी थी। उन्होंने यह भी बताया था कि पांच वर्ष में 2365 रोगियों पर ट्रायल हुआ। इसमें 1644 बच्चे और 721 वयस्क हैं।

कुछ की मौत की आशंका
आशंका है कि जिन मरीजों पर दुष्प्रभाव हुआ है, उनमें से कुछ की मौत भी हुई होगी। वैसे भी, सूचना का अधिकार में प्राप्त एक दस्तावेज में जबलपुर के कैंसर अस्पताल में एक महिला रोगी की मौत की पुष्टि हो चुकी है। इंदौर के चाचा नेहरू बाल चिकित्सालय में पदस्थ शिशु रोग विशेषज्ञ डॉ. हेमंत जैन ने भी मंजूर किया है कि ट्रायल के दौरान एक बच्चे की मौत हुई थी और इसकी जानकारी एथिकल कमेटी को दे दी गई थी।

सूची का वादा किया था, पर नहीं दी
रतलाम के विधायक पारस सकलेचा ने बताया 30 जुलाई को ट्रायल के मसले पर ध्यानाकर्षण प्रस्ताव विधानसभा में रखा था। बहस के आखिर में चिकित्सा शिक्षा राज्य मंत्री ने वादा किया था कि सभी मरीजों की सूची दी जाएगी, किंतु अब तक यह प्राप्त नहीं हुई है। इसके लिए चिकित्सा शिक्षा प्रमुख सचिव आईएस दाणी से भी चर्चा की है। 

पत्रिका: १९ अगस्त २०१० 

शुक्रवार, अगस्त 13, 2010

फोन, फैक्स नंबरों और ई-मेल पर नजर

- ड्रग ट्रायल पर ईओडब्ल्यू की घेराबंदी
- एमजीएम मेडिकल कॉलेज के अस्पतालों में अवैध कनेक्शन



बहुराष्टरीय कंपनियों द्वारा विकसित दवा के मरीजों पर परीक्षण (ड्रग ट्रायल) से जुड़े मामले की जांच कर रहे आर्थिक अपराध अन्वेषण ब्यूरो (ईओडब्ल्यू) की नजर उन फोन और फैक्स नंबरों और ई-मेल पतों पर भी है, जिनके जरिए यह कारोबार एमजीएम मेडिकल कॉलेज में फैला। इन नंबरों की जानकारी के आधार पर पैसे के लेन-देन की बात को पुख्ता किया जा सकेगा।

सूत्रों से मिली जानकारी के मुताबिक ईओडब्ल्यू ने कुछ ईमेल और फोन व फैक्स नंबर जुटा लिए हैं। 'पत्रिकाÓ को मिली जानकारी के मुताबिक ये ऐसे फोन और फैक्स नंबर हैं, जिन्हें कॉलेज से जुड़े अस्पतालों में लगाने के लिए किसी की अनुमति भी नहीं ली गई। एक तरह से ये सभी नंबर 'अवैधÓ हैं।

डीन के भी होंगे बयान
ईओडब्ल्यू मेडिकल कॉलेज डीन डॉ. एमके सारस्वत के बयान भी लेगा। संभवत: यह बयान 15 अगस्त के बाद लिया जाएगा। उनसे पूछा जा सकता है कि किस डॉक्टर ने कितने रुपए कॉलेज के स्वशासी निकाय में जमा करवाए और उन रुपयों का क्या इस्तेमाल किया गया।

मप्र नियमावली की भी घेराबंदी
ईओडब्ल्यू ने ट्रायल करने वालों डॉक्टरों पर मप्र के उन नियमों से भी घेराबंदी करने का मन बनाया है, जो यहां काम करने वाले हर सरकारी कर्मचारी के लिए पालन करना अनिवार्य है। मप्र सिविल सेवा आचरण नियम 1965 के नियम 14 के मुताबिक प्रथम और द्वितीय श्रेणी अफसर 1500 रुपए से अधिक का उपहार नहीं ले सकता है। यदि वह ऐसा करता है तो इसकी जानकारी एक माह के भीतर सरकार को देना अनिवार्य है। नियम 14 के उपनियम पांच के मुताबिक कोई भी सरकारी कर्मचारी एकाउंट पेयी चेक के जरिए 2000 रुपए से अधिक प्राप्त नहीं कर सकेगा। नियम से अधिक प्राप्त करना रिश्वत की श्रेणी में रखा गया है।


फोन / फैक्स नंबर         यहां है कनेक्शन

0731 2512513        चाचा नेहरू अस्पताल 
0731 4048207        नेत्ररोग विभाग 
0731 4066606        मनोरोग विभाग 
0731 2711611        ज्ञानपुष्प सेंटर
0731 2711623        ज्ञानपुष्प सेंटर
0731 2491214        मेडिसिन विभाग
0731 2526839        मेडिसिन विभाग


पत्रिका : १४ अगस्त २०१०

ईओडब्ल्यू ने छह डॉक्टरों से मांगा करोड़ों हिसाब

- एआईजी ने इंदौर में शुरू की जांच



बहुराष्टरीय कंपनियों द्वारा विकसित दवा के मरीजों पर प्रयोग (ड्रग ट्रायल) मामले में आर्थिक अपराध अनुसंधान ब्यूरो (ईओडब्ल्यू) ने सख्त रवैय्या अपनाते हुए छह डॉक्टरों से पाई-पाई का हिसाब मांगा है। इसके लिए डॉक्टरों को व्यक्तिगत रूप से बुलाया भी गया है। डॉक्टरों और उनके परिजन के बैंक खातों की जानकारियां भी जुटाई जा रही है।

'पत्रिकाÓ में प्रकाशित खबरों के आधार पर स्वास्थ्य समर्पण सेवा समिति नामक डॉक्टरों के संगठन के अध्यक्ष डॉ. आनंद राजे ने एमजीएम मेडिकल कॉलेज से जुड़े अस्पतालों में ट्रायल करने वाले छह डॉक्टरों के खिलाफ ईओडब्ल्यू आईजी के समक्ष भोपाल में शिकायत दर्ज करवाई थी। मामले की पड़ताल की जिम्मेदारी भोपाल पदस्थ डीआईजी प्रियंका मिश्रा को सौंपी गई है। बुधवार को वे इंदौर में ही थीं। सूत्रों के मुताबिक उन्होंने कॉलेज प्रबंधन से छहों डॉक्टरों की संपूर्ण जानकारी मांगी है। ट्रायल करवाने वाली कंपनी से मिलने वाले रूपए से लेकर मरीज के नाम पते तक पूछे गए हैं। शिकायत के मुताबिक छह डॉक्टरों ने सरकारी पद का दुरुपयोग करके मरीजों की जान जोखिम में डाली और अकूत संपत्ति जुटाई है।


छह डॉक्टर और दो करोड़ का हिसाब 

एक-
डॉ. हेमंत जैन, प्रोफेसर, शिशु रोग विभाग
राशि- 56  लाख
अवधि-  2005 से अब तक
मरीज- 1170
रोग - बच्चों में ब्रोंकराइटिस, पोलियो, बीपी, हेपेटाइटिस बी, टीटनेस।

दो-
डॉ. अनिल भराणी, प्रोफेसर, मेडिसिन विभाग
राशि- 44 लाख
अवधि- 2005 से अब तक
मरीज - 237
रोग- कोरोनरी सिंड्रोम, विटामिन से लकवा, सेकंड स्ट्रोक, स्टेबल एंजाइमा, हार्ट अटैक।


तीन-
डॉ. अपूर्व पुराणिक, प्रोफेसर, मेडिसिन विभाग
राशि- 42 लाख
अवधि- 2007 से अब तक
मरीज - 39
रोग- पार्किंसन्स, सिवीयर डेमेंशिया, अलझाइमर।

चार-
डॉ. अशोक वाजपेयी, पूर्व एचओडी, मेडिसिन (हाल ही में वीआरएस)
राशि- 41.37 लाख
अवधि- 2005 से अब तक
मरीज - 28
रोग- सीओपीडी, अस्थमा, निमोनिया।
(एसो. प्रोफेसर संजय अवासिया भी भागीदार)


पांच-
डॉ. सलिल भार्गव, अधीक्षक, एमवायएच
राशि-4.5 लाख
अवधि- 2005 से 08 तक
मरीज - 43
रोग- सीओपीडी, डायबिटीक नेफ्रोपेथी। 


छह -
डॉ. पुष्पा वर्मा, प्रोफेसर, नेत्ररोग विभाग

राशि- अज्ञात
अवधि- 2005 से अब तक
मरीज- 35 से अधिक
रोग- अज्ञात।



'ड्रग ट्रायल केस की जांच के लिए एक दल इंदौर में है। आर्थिक मामलों से जुड़े सभी पहलूओं की पड़ताल की जा रही है।Ó 
- अजय शर्मा, आईजी, ईओडब्ल्यू

News in Patrika on 13th August 2010 

सरकार ने छुपाई ड्रग ट्रायल की जानकारी

- विधायकों को नहीं मिला जवाब
- ध्यानाकर्षण प्रस्ताव में किया वादा भी नहीं निभाया

बहुराष्टरीय कंपनियों द्वारा विकसित दवा और टीकों के मरीजों पर परीक्षण (ड्रग ट्रायल) की जानकारी सरकार द्वारा छुपाई जा रही है। यह आरोप दो विधायकों ने लगाया है। दोनों विधायकों ने ट्रायल के लिए विधानसभा में प्रश्नों के जवाब अब तक नहीं दिए गए हैं। इतना ही नहीं एक विधायक को वह जानकारी भी नहीं दी गई है जिसका वादा ध्यानाकर्षण प्रस्ताव के दौरान राज्य मंत्री ने विधानसभा में किया था।

सरदारपुर के विधायक प्रताप ग्रेवाल और रतलाम के विधायक पारस सकलेचा दोनों ने तारांकित प्रश्न के जरिए राज्य के सरकारी मेडिकल कॉलेजों में चल रहे ट्रायल के धंधे की विस्तार से जानकारी मांगी थी। ग्रेवाल के प्रश्न का क्रमांक 540 था और चिकित्सा शिक्षा विभाग को इसका जवाब 23 जुलाई को देना था। उस दिन सदन में बताया गया कि विभाग जानकारी एकत्रित कर रहा है। सकलेचा के प्रश्न का क्रमांक 1369 था और इसका जवाब 30 जुलाई को आना था। उन्हें भी वही उत्तर दिया गया, जो ग्रेवाल को दिया था।

मेडिकल कॉलेजों से भेजा जा चुका जवाब
इंदौर, भोपाल, जबलपुर, ग्वालियर, रीवा और सागर सभी मेडिकल कॉलेजों ने अपना जवाब भेज दिया है। सभी कॉलेजों के प्रबंधन ने इसकी पुष्टि की है।

विधानसभा अध्यक्ष की बात भी नहीं मानी
30 जुलाई को विधानसभा में सात विधायकों ने ट्रायल पर ध्यानाकर्षण प्रस्ताव रखा था। तब चिकित्सा शिक्षा राज्य मंत्री महेंद्र हार्डिया ने सकलेचा से कहा था कि आपको मरीजों की सूची मय नाम पते के उपलब्ध करवाई जा रही है। तब विधानसभा अध्यक्ष ईश्वरदास रोहाणी ने भी जोर देकर कहा था यह बेहद गंभीर मामला है, इसलिए ध्यान रखा जाए। मरीजों की सूची भी आज तक उपलब्ध नहीं हो सकी है।


'चूंकि यह गरीब और जरूरतमंद रोगियों की जिंदगी से जुड़ा सवाल है, इसलिए जवाब तत्काल देना चाहिए। विधानसभा सचिव को मैं पत्र लिख रहा हूं ताकि वे देख सकें कि जवाब कहां अटका है।Ó
- प्रताप ग्रेवाल, विधायक, सरदारपुर

' सवाल वे ही पूछे गए थे, जिनके जवाब चिकित्सा शिक्षा विभाग के पास उपलब्ध है। फिर भी क्यों नहीं दिए गए, यह समझ से परे है। विधानसभा सचिव, चिकित्सा शिक्षा विभाग प्रमुख सचिव दोनों को पत्र भेज रहा हूं, ताकि व्यवस्था की पोल सामने आ सके।Ó
- पारस सकलेचा, विधायक, रतलाम

'जानकारी एकत्रित करने वाले प्रश्नों के जवाब अगले सत्र के पहले दिन तक सदन के पटल पर आ जाना चाहिए। विधानसभा में ऐसा एक नियम है। कई विभाग इसी का फायदा उठाते हैं। अभी मेरे पास दोनों विधायकों की ओर से कोई पूछताछ नहीं हुई है। दोनों प्रश्नों के नंबर मैंने नोट कर लिए हैं, देखता हूं विभाग ने क्या प्रगति की है।Ó
- डॉ. एके पयासी, प्रमुख सचिव, विधानसभा

 News in Patrika on 13th August 2010

बुधवार, अगस्त 11, 2010

बताओ, आपके अस्पताल में मानवाधिकारों का हनन तो नहीं हो रहा?

- ड्रग ट्रायल मामले में राज्य मानवाधिकार आयोग ने एमवायएच को भेजा नोटिस

बहुराष्टरीय कंपनियों द्वारा विकसित दवा और टीकों का रोगियों पर परीक्षण (ड्रग ट्रायल) पर राज्य मानवाधिकार आयोग ने सख्त रवैय्या अपना लिया है। आयोग ने एमजीएम मेडिकल कॉलेज से जुड़े अस्पताल एमवायएच को नोटिस भेजकर पूछा है कि बताएं, ट्रायल के कारण आपके अस्पताल में आ रहे रोगियों के मानवाधिकारों का हनन तो नहीं हो रहा? जवाब के लिए आयोग ने तीन सप्ताह की समय सीमा तय की है।

आयोग से प्राप्त जानकारी के मुताबिक आयोग के अध्यक्ष पूर्व जस्टिस डीएम धर्माधिकारी और दो अन्य सदस्यों ने 'पत्रिकाÓ अखबार में प्रकाशित खबरों के आधार पर एमवायएच अधीक्षक को 30 जुलाई को पत्र भेजा है। आयोग की खबरों की कटिंग स्वास्थ्य समर्पण सेवा समिति नामक एनजीओ द्वारा उपलब्ध हुई थी। ताज्जुब तो यह है कि एमवायएच अधीक्षक डॉ. सलिल भार्गव को यह नोटिस आज तक प्राप्त नहीं हुआ है। वे कहते भी हैं मुझे इस तरह की कोई जानकारी नहीं है।



इन बिंदुओं पर मांगी है जानकारी
ट्रायल से मरीजों की सेहत पर क्या असर पड़ रहा है?
मरीजों की सुरक्षा का ख्याल कैसे रखा जा रहा है?
मरीज के मानवाधिकार की रक्षा के लिए क्या एहतियात बरती जाती है?

भला क्या जवाब देंगे, ट्रायल में लिप्त अधीक्षक
आयोग ने एमवायएच अधीक्षक को नोटिस दिया है, लेकिन अधीक्षक डॉ. भार्गव खुद ही ट्रायल में लिप्त हैं। वे सरकारी नौकरी करके अपने ट्रायल सेंटर 'ज्ञान पुष्पÓ पर ट्रायल करते हैं। वर्तमान में उनके केंद्र पर करीब एक हजार मरीज रजिस्टर्ड हैं, जो ट्रायल से गुजर रहे हैं।

News in Patrika on 10th August 2010

सोमवार, अगस्त 09, 2010

Data suggests clinical trial deaths on rise

TEENA THACKER
NEW DELHI, 
 
DESPITE the Union Health Ministry’s insistence that deaths occurring during clinical trials may be due to unrelated health reasons, according to data available with the ministry, the number has been steadily increasing. 
 
In 2010 alone, as many as 462 people, who were a part of clinical trials, died (till June).
According to data, there were 132 deaths in year 2007, 288 deaths in the year 2008 and 637 deaths in year 2009.

Officials maintain that deaths occurring during clinical trials could be due to a variety of reasons ranging from disease-related ones to side effects of an unrelated cause.

“Such deaths are investigated for casual relationship by investigator and by medical experts of sponsor,” ministry officials said.

India has recently become a favoured destination for organisations to conduct clinical trials.
In 2010 till now, permission has been obtained for about 117 global clinical trials (international companies) and 134 local (Indian) trials. In 2009, 258 global and 195 local trials took place in India. 2008 was no different with approximately 246 global and 275 local trials obtaining permission.

The companies approaching the Central Drugs Standard Control Organisation (CDSCO) include names like GlaxoSmithKline, Johnson and Johnson, Sanofiaventis, Novartis among others and clinical research organisations like Quintiles, ICON, GVK and many more.

Though officials say that deaths occurring due to negligence of the company during trials is rare, such instances have come to light. The most recent case being the trial of a human papilloma virus (HPV) vaccine in Andhra Pradesh, where four girls died after being vaccinated. While, the Indian Council of Medical Research (ICMR) halted the trials, experts are still investigating the cause of the deaths.

According to ministry officials, conducting trials in India is easier than in North America or Europe, where many clinical trials get tangled in litigation as the patients are very aware of their rights. Tr ials for a standard drug in the US may cost up to $150 million but could be tested in India for 60 per cent less.
With the industry growing fast, the Drug Controller General of India (DCGI) proposes to add penal provisions for fraud and misconduct in clinical research soon.

TEENA THACKER is a journalist in THE INDIAN EXPRESS 
This story is published in the paper on 9th August 2010.

रविवार, अगस्त 08, 2010

डॉक्टर को भी पता नहीं रहती दवा

- एमजीएम मेडिकल कॉलेज एथिकल कमेटी चेयरमैन डॉ. केडी भार्गव ने की पुष्टि
- मंजूर किया स्टॉफ की कमी के कारण नहीं कर पाते मरीजों की निगरानी 


बहुराष्टरीय कंपनियों द्वारा विकसित जिन दवाओं का मरीज पर परीक्षण (ड्रग ट्रायल) किया जा रहा है, उनमें से ज्यादातर के नाम तक डॉक्टरों को पता नहीं रहते हैं। दवा एक केमिकल मिश्रण होता है और उसके तत्वों की जानकारी सिर्फ कंपनी को ही रहती है। डॉक्टर तो दवा को एक नंबर से जानते हैं। हालांकि, उन्हें दवा के साइड इफेक्ट की पूरी जानकारी रहती है।
इस बात की पुष्टि एमजीएम मेडिकल कॉलेज के अस्पतालों में ट्रायल को अनुमति देने के लिए बनाई गई एथिकल कमेटी के अध्यक्ष डॉ. केडी भार्गव भी करते हैं। शहर के ख्यात गेस्ट्रोइंटोलॉजिस्ट व कॉलेज के मेडिसिन विभाग के पूर्व एचओडी डॉ. भार्गव ने 'पत्रिकाÓ को बताया इंदौर में डबल ब्लाइंड श्रेणी के ट्रायल चल रहे हैं। इस श्रेणी का अर्थ है जिस दवा का प्रयोग मरीज पर किया जाता है, उसकी जानकारी न तो डॉक्टर को रहती है और न ही मरीज को। प्लेसिबो ट्रायल में भी मरीज को दवा देना बंद कर दिया जाता है। उसे जो गोली दी जाती है, उसमें ग्लूकोज या स्टार्च रहता है,जो बेअसर रहता है। यह प्रयोग दवा के प्रभाव को जानने के लिए किया जाता है।


हैरान करते डॉ. केडी भार्गव के पांच कथन
 एथिकल कमेटी अध्यक्ष डॉ. केडी भार्गव


कथन एक - ड्रग एंड कॉस्मेटिक्स एक्ट में 2005 में किया गया संशोधन ड्रग ट्रायल पर लागू नहीं होता है।
सच्चाई- 20 जनवरी 2005 को भारत सरकार ने एक्ट के दूसरे संशोधन का नोटिफिकेशन किया। इसके शेड्यूल 'वायÓ के तमाम नियम ड्रग ट्रायल के लिए बनाए गए हैं। स्वास्थ्य राज्य मंत्री महेंद्र हार्डिया ने भी विधानसभा में इस एक्ट की बाध्यता की बात कही है।

कथन दो - भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद (आईसीएमआर) की गाइडलाइन ड्रग ट्रायल पर लागू नहीं होती है। हम केवल ड्रग कंट्रोलर जनरल ऑफ इंडिया (डीसीजीआई) द्वारा बहुराष्टरीय कंपनी को मिली अनुमति और क्लिनिकल ट्रायल रजिस्ट्री इंडिया (सीटीआरआई) रजिस्ट्रेशन देखते हैं।
सच्चाई- देश में होने वाले सभी चिकित्सा शोधों के लिए आईसीएमआर सर्वोच्च संस्था है। ड्रग एंड कॉस्मेटिक्स एक्ट संशोधन की लचरता का फायदा उठाकर 2005 के बाद बहुराष्टï्रीय कंपनियों ने धड़ल्ले से ट्रायल शुरू की तो आईसीएमआर ने अक्टूबर 2006 में 120 पेज की गाइडलाइन जारी की। इसकी अनदेखी करना अनैतिक कार्य है।

कथन तीन - राज्य सरकार को ड्रग ट्रायल मामले में हस्तक्षेप करने की जरूरत नहीं है, क्योंकि वह वैसे ही खुद का काम ठीग ढंग से नहीं कर पा रही है।
सच्चाई - राज्य सरकार के विषयों की सूची में एक है स्वास्थ्य। राज्य के नागरिकों की सेहत की सीधी जिम्मेवारी राज्य की ही है। ऐसे में राज्य का नियंत्रण नहीं होने के कारण कंपनियों से मिलने वाले रुपए के चक्कर में नागरिकों की सेहत से खिलवाड़ किया जा रहा है। राज्य का नियंत्रण नहीं होने से निजी क्षेत्र में भी बेकाबू ट्रायल जारी हैं।

कथन चार - मरीज की सहमति के लिए उसे हिंदी में बनाया गया पांच से छह पेज का पत्र सौंपा जाता है।
सच्चाई- एमवायएच अधीक्षक डॉ. सलिल भार्गव के हस्ताक्षर से सूचना का अधिकार में प्राप्त हिंदी का सहमति पत्र महज एक पेज का है। इसमें ट्रायल का जिक्र ही नहीं है। बस यह बताया गया है कि डॉक्टर एक अध्ययन कर रहे हैं और इसमें मरीज की जरूरत है।

कथन पांच- क्लिनिकल ट्रायल एग्रीमेंट (सीटीए) पर स्पांसर कंपनी, ट्रायल करने वाले डॉक्टर और मेडिकल कॉलेज डीन के हस्ताक्षर होते हैं। हर बात डीन की जानकारी में रहती है।
सच्चाई- वर्ष 2003 से अब तक के डीन (डॉ. वीके सैनी, डॉ. अशोक वाजपेयी और डॉ. एमके सारस्वत) ने कभी किसी सीटीए पर हस्ताक्षर नहीं किए। मौजूद एमवायएच अधीक्षक डॉ. सलिल भार्गव और उनके पूर्व के डॉ. सीवी कुलकर्णी ने भी इस तरह के किसी एग्रीमेंट की जानकारी होने से इंकार किया है।

कॉलेज को रुपए मिले, तो बंद होंगे ट्रायल
डॉ. भार्गव मंजूर करते हैं ट्रायल के एवज में कंपनियां डॉक्टरों को रुपए देती हैं और उन्हें विदेश भी ले जाती है। यह भी बिल्कुल सच है कि कंपनियों से आनी वाली रकम सीधे कॉलेज के खाते में जमा होने लगे तो डॉक्टर ट्रायल बंद कर देंगे। 

हम बुजुर्ग हैं, कैसे करें निगरानी
डॉ. भार्गव कहते हैं कमेटी के पास स्टॉफ मौजूद नहीं है, इसलिए उन मरीजों की नियमित निगरानी नहीं की जाती है। मैं खुद 72 वर्ष का हो चुका हूं। दूसरे सदस्य पूर्व जस्टिस पीडी मूल्ये और पर्यावरणविद् कुट्टी मेनन भी बुजुर्ग हैं और ऐसे में फुल टाइम इस काम को नहीं दे पाते हैं। इस काम के लिए तनख्वाह पर किसी व्यक्ति को रखने की जरूरत है।


दूसरे सदस्य भी अनजान
एथिकल कमेटी के सदस्य हाईकोर्ट के रिटायर्ड जस्टिस पीडी मूल्ये कहते हैं दवा की अनुमति मुंबई से लेना पड़ती है। सच्चाई यह है कि सीटीआरआई का ऑफिस दिल्ली में है। पर्यावरणविद कुट्टी मेनन और अर्थशास्त्री डॉ. जयंतीलाल भंडारी मंजूर करते हैं कि उन्हें उस रुपए की जानकारी नहीं रहती, जो कंपनी द्वारा ट्रायल करने वाले डॉक्टर को दिया जाता है।


डॉ. भराणी, पुराणिक ने शुरू की ट्रायल
डॉ. भार्गव बताते हैं डॉ. अपूर्व पुराणिक और डॉ. अनिल भराणी अपने क्षेत्र के बेहद काबिल लोग हैं। एक ने न्यूरोलॉजी और दूसरे ने कॉर्डियोलॉजी में एम्स से डीएम किया। जब मैं मेडिसिन का एचओडी बना तब दोनों किसी कांफ्रेंस के सिलसिले में विदेश गए। वहां किसी दवा कंपनी वाले ने उन्हें ट्रायल करने की सलाह दी। इसके बाद ही दोनों ने एमवायएच में यह काम शुरू किया।

News in Patrika on 8th August 2010

परिजन पर क्यों नहीं किए ट्रायल?

डॉक्टरों ने दी ड्रग ट्रायल पर सफाई, डीन को भी दी जाती है पूरी राशि की जानकारी

ड्रग ट्रायल के आरोपों से घिरे डॉक्टरों ने ड्रग ट्रायल क्या है और इससे क्या लाभ हैं इसे लेकर डॉक्टरों ने होटल क्राउन पैलेस में गोष्ठी का आयोजन किया। डॉक्टरों ने बताया कि कोई भी कंपनी डॉक्टर की योग्यता देखकर ही अनुबंध करती है। डॉक्टरों ने कहा कि कंपनियों से मिलने वाली राशि का खुलासा आयकर विभाग के समक्ष किया जाता है। इसमें कोई चोरी नहीं की जाती। मरीजों की सहमति से किए जाने वाले ट्रायल में किसी तरह की आशंका की गुंजाइश नहीं रह जाती।

ट्रायल विश्व के सभी विकसित और विकासशील देशों में किए जा रहे हैं। यह रोजगार के अवसर पैदा करता है और अनुसंधान में देश को आगे ले जाता है। गोष्ठी में कॉलेज डीन की भूमिका को भी स्पष्ट किया गया। ट्रायल के माध्यम से मिलने वाली राशि की पूरी जानकारी डीन को भी दी जाती है। बैठक में ये सवाल भी उठा कि क्यों गरीब मरीजों पर ही ट्रायल किए जाते हैं? कितने डॉक्टरों ने परिवार के सदस्यों पर ट्रायल किए? इनमें से किसी भी सवाल का जवाब डॉक्टर नहीं दे सके। बैठक में पूर्व कुलपति और ट्रायल का कानून तैयार कर रहे डॉ. भरत छपरवाल, डॉ. सरोज कुमार, अभय छजलानी, इथिकल कमेटी के सचिव डॉ. अनिल भराणी, डॉ. अपूर्व पुराणिक, डॉ. पुष्पा वर्मा, डॉ. आरके माथुर, डॉ. पूनम माथुर, डॉ. उज्ज्वल सरदेसाई व जूनियर डॉक्टर आदि मौजूद थे।

news in Patrika on 7th August

ड्रग ट्रायल से ३ साल में १५१९ मौतें

  केंद्रीय स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण राज्य मंत्री ने लोकसभा में कबूली सच्चाई


 बहुराष्टरीय दवा कंपनियों द्वारा विकसित दवाइयों के मरीजों पर परीक्षण (ड्रग ट्रायल) में सरकार की अनदेखी और डॉक्टरों की मनमानी का मुद्दा लोकसभ  को लेकर तमाम तरह के विवादों और ना नुकुर के बावजूद सरकार ने मान लिया है कि औषधियों के परीक्षण में पिछले तीन साल में करीब १५१९ लोगों को अपनी जान से हाथ धोना पड़ा है। 

केंद्रीय स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण राच्य मंत्री दिनेश त्रिवेदी ने शुक्रवार को लोकसभा में बताया कि दवाइयों की नैदानिक जांच यानी ड्रग ट्रायल के दौरान वर्ष २००७ में १३२, २००८ में २८८, २००९ में ६३७ और जून २०१० तक ४६२ लोगों की मौत हुई है। हालांकि इन लोगों की मौत के कई और भी कारण हो सक ते हैं। गंभीर बीमारियों से पीडि़त मरीजों पर दवाओं का प्रतिकूल प्रभाव च्यादा घातक भी हो सकता है।

उल्लेखनीय है कि पत्रिका ने इंदौर में मरीजों को धोखे में रखकर ड्रग ट्रायल करने वाले रैकेट का भंडाफोड़ किया था, इसके बाद देश भर में इसको लेकर गंभीर बहस छिड़ गई। त्रिवेदी के के मुताबिक देश में ड्रग ट्रायल की अनुमति चाहने वाली दवा निर्माता कंपनियों और ट्रायल संगठनों की बहुत बड़ी तादाद है। 

 केंद्रीय औषधि मानक नियंत्रण संगठन (सीडीएससीओ) के पास लंबित आवेदनों में ग्लैक्सोस्मिथक्लाइन, जॉनसन एंड जॉनसन , एमएसडी, एलीलिली, नोवाॢटस, ब्रिस्टल माइर्स स्क्लिब्स , बेयर हेल्थकेयर, एस्ट्र जेनेका, फाइजर जैसी दवा कंपनियां और क्विंटाइल्स, आईसीओएन, जीवीके बायो, सिरो क्लिनफार्म, पीआरए इंटरनेशनल , पीपीडी, कोवान्स और ओमनीकेयर जैसे नैदानिक अनुसंधान संगठन शामिल हैं।  
 




News in Patrika on 7th Aug 2010

सोमवार, अगस्त 02, 2010

कौन सच्चा अमेरिका या भारत ?

अमेरिका की कंपनियों के इंदौर में 99 ट्रायल हुए, लेकिन भारत सरकार को 56 की ही जानकारी


बहुराष्टरीय कंपनियों द्वारा विकसित दवा और टीकों का इंसानों पर परीक्षण (ड्रग ट्रायल) मामले में भारत सरकार के आंकड़े कटघरे में हैं। ट्रायल का रजिस्ट्रेशन करने वाली भारत की सरकारी संस्था क्लिनिकल ट्रायल्स रजिस्ट्री इंडिया और अमेरिका के राष्टरीय स्वास्थ्य संस्थान के आंकड़ों में भारी अंतर है। भारत सरकार को जानकारी है कि इंदौर में अब तक 56 ट्रायल हुए हैं, जबकि अमेरिका सरकार कहती है इंदौर में 99 ट्रायल हुए हैं। इसके अलावा दूसरे देश भी हैं, जहां की विकसित दवाइयां इंदौर में परखी गई हैं।

अमेरिका में नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ हेल्थ नाम का सरकारी विभाग है। इसकी वेबसाइट पर दर्ज है कि अमेरिका की कंपनियों से भारत में 1432 ट्रायल किए हैं। इनमें से 176 जयपुर में और 47 भोपाल में हुए हैं। इधर, भारत के सीटीआरआई की वेबसाइट बताती है जयपुर में 121 ट्रायल हुए हैं, जबकि भोपाल की कोई जानकारी ही उपलब्ध नहीं है। दोनों ही वेबसाइट 2 अगस्त तक अपडेटेड हैं। 

निगरानी तंत्र नहीं होने का नतीजा
इस नई जानकारी से यह बात साफ होती है कि ट्रायल रुपए हासिल करने के खातिर ही हो रही है, न कि शोध के लिए। कई कंपनियां भारत सरकार को बगैर जानकारी दिए ट्रायल करवा रही हैं। चूंकि ट्रायल की निगरानी का तंत्र ही देश में मौजूद नहीं है, इसलिए कई कंपनियां जमकर लोगों को शिकार बना रही हैं।



ईओडब्ल्यू की जांच इंदौर पहुंची
ड्रग ट्रायल में शामिल सात डॉक्टरों की आर्थिक अपराध अन्वेषण ब्यूरो (ईओडब्ल्यू) द्वारा भोपाल में शुरू की गई जांच, सोमवार को इंदौर पहुंच गई। स्वास्थ्य समर्पण सेवा समिति की शिकायत की जांच के लिए ईओडब्ल्यू डीआईजी प्रियंका मिश्रा यहां आई और कुछ जरूरी दस्तावेजों को बटोरकर भोपाल रवाना हो गई। एमजीएम मेडिकल कॉलेज के मेडिसिन विभाग के प्रोफेसर डॉ. अनिल भराणी, प्रोफेसर डॉ. अपूर्व पुराणिक, एमवायएच अधीक्षक डॉ. सलिल भार्गव, पूर्व प्रोफेसर डॉ. अशोक वाजपेयी, नेत्र रोग एचओडी डॉ. पुष्पा वर्मा, शिशु रोग प्रोफेसर डॉ. हेमंत जैन और एमवायएच सहायक अधीक्षक डॉ. वीएस पाल ईओडब्ल्यू जांच के घेरे में हैं। इन पर सरकारी पद का दुरुपयोग करके अनुपातहीन संपत्ति अर्जित करने का आरोप है।



३ अगस्त २०१० को पत्रिका में प्रकाशित खबर

रविवार, अगस्त 01, 2010

शोध नहीं है ड्रग ट्रायल


एमसीआई के पत्र का साफ संदेश


ड्रग ट्रायल शोध है या नहीं? इस बहस का जवाब चिकित्सा शिक्षा से जुड़ी सर्वोच्च संस्था मेडिकल काउंसिल ऑफ इंडिया (एमसीआई) के एक नियम में मिलता है। एमसीआई के मुताबिक जब ड्रग ट्रायल के परिणाम भारत में प्रकाशित किए जा सकें, तभी यह शोध है। यदि दवा कंपनी ऐसा नहीं करने देती है, तो ट्रायल किया ही नहीं जाना चाहिए।

एमसीआई ने इंडियन मेडिकल काउंसिल नियम 2000 में संशोधन करके यह बात गत वर्ष ही स्पष्ट की है। दरअसल, भारत सरकार ने ड्रग एंड कॉस्मेटिक्स एक्ट 1940 में वर्ष 2005 में संशोधन किया तो देशभर में डॉक्टरों ने शोध के नाम पर ड्रग ट्रायल शुरू कर दिए, परंतु इसके परिणामों को छापने की अनुमति किसी को नहीं मिली। डॉक्टर से समझौता करने वाली स्पांसर कंपनी ने ड्रग ट्रायल के परिणामों को प्रकाशित करने का अधिकार स्वयं के पास सुरक्षित रखती हैं। एमसीआई ने इसी बंधन से ट्रायल को मुक्त रखने के लिए नए नियम जारी किए।

आईसीएमआर के ट्रायल शोध
भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद (आईसीएमआर) देशभर में जो भी ट्रायल करवाती है, उन्हें चिकित्सा जगत में शोध का दर्जा दिया गया है। पोलियो की दवा, स्वाइन फ्लू का टीका ऐसे ही ट्रायल हैं। इनके नतीजों को भारत सरकार द्वारा प्रकाशित किया जाता है और ये देश में चिकित्सा विज्ञान की प्रगति में सहायक साबित होते हैं। बहुराष्टï्रीय कंपनियों द्वारा विकसित दवाइयों के परीक्षण के नतीजों पर कंपनी का अधिकार रहता है।




जवाब भी तैयार नहीं कर पाई सरकार
 बीस दिन में भी नहीं जुटी जानकारी
 तीनों विधायकों के प्रश्न अब तक बेजवाब


बहुराष्टï्रीय कंपनियों द्वारा विकसित दवा और टीकों का मरीजों पर परीक्षण (ड्रग ट्रायल) मामले में भले ही सरकार ने कायदे कानून बनाने की घोषणा कर दी हो, लेकिन अभी भी तीन विधायकों के प्रश्नों के जवाब तैयार नहीं हुए हैं। इन विधायकों ने सरकार से सरकारी मेडिकल कॉलेजों से जुड़े अस्पतालों में ड्रग ट्रायल की जानकारी चाही थी।

सरदारपुर के विधायक प्रताप ग्रेवाल, रतलाम के पारस सकलेचा और ग्वालियर के प्रदुम्म तोमर ने तारांकित प्रश्न पूछे थे। बीस दिन पहले (12 जुलाई) को ग्रेवाल का सवाल सभी मेडिकल कॉलेजों में पहुंचा था। सदन ने ग्रेवाल को सूचना दी थी कि 23 जुलाई को जवाब दे दिया जाएगा, परंतु जब उन्होंने मांगा तो कहा गया जानकारी जुटाई जा रही है। ऐसा ही जवाब सकलेचा और तोमर को मिला।

प्रक्रिया पर सवालिया निशान
विधानसभा में पूछे जाने वाले सवाल के जवाब तय समय सीमा में देने जिम्मेदारी सरकारी अमले की है। मीडिया में जब मामला आ जाए, तो और भी सक्रियता के साथ जानकारी तैयार की जाना चाहिए, परंतु इस मसले में ऐसा नहीं किया गया।

अनियमितता दबाने की कोशिश तो नहीं
ड्रग ट्रायल में बहुत अधिक राशि का लेन-देन होता है। एक मरीज के लिए डॉक्टर को औसतन दो से पांच लाख रुपए मिलते हैं। माना जा रहा है कि इसी पर परदा डालने के लिए जानकारी रोकी गई है।

इन सवालों में अटकी सरकार
- ड्रग ट्रायल कराने वाली कंपनियों से किस डॉक्टर को कितनी राशि मिली?
- जिन मरीजों पर ट्रायल किया गया, क्या उन्हें इसकी जानकारी दी गई? यदि हां, तो नाम बताएं।
- किसी भी राशि के लेनदेन के लिए किससे इजाजत ली गई?
- पांच वर्ष में कितने डॉक्टर विदेश गए और उन्हें किस कंपनी ने भेजा? क्या वे अनुमति लेकर गए?


News in PATRIKA on 02 Aug 2010

निजी अस्पतालों में भी ड्रग ट्रायल का धोखा

ड्रग ट्रायल
कई अस्पतालों में धड़ल्ले से निशाना बन रहे मरीज
स्वास्थ्य विभाग के पास नहीं है कोई जानकारी











बहुराष्टरीय कंपनियों द्वारा विकसित दवा और टीकों का परीक्षण (ड्रग ट्रायल) केवल सरकारी एमजीएम मेडिकल कॉलेज से जुड़े अस्पतालों में ही नहीं हो रहा है। कई निजी अस्पतालों और क्लिनिकों में भी यह काम जोरों पर है। ऐसा भी नहीं है कि किसी एक बीमारी के रोगियों पर ही ट्रायल चल रहे हैं। दिल के ऑपरेशन में लगने वाले स्टेंट से लेकर इनहेलर तक और डायबिटीज से लेकर कैंसर तक के रोगियों तक पर प्रयोग हो रहे हैं। 

भारत सरकार के क्लिनिकल ट्रायल्स रजिस्ट्री-इंडिया (सीटीआरआई) का रिकॉर्ड बताता है कि मप्र में सबसे अधिक ट्रायल इंदौर में किए जा रहे हैं। पिछले चार वर्ष (२००६-२००९) के आंकड़ों पर गौर करें तो मप्र में ८३ दवाओं के ट्रायल किए गए इनमें से ५६ ट्रायल इंदौर में हुए, जबकि २७ ट्रायल भोपाल सहित प्रदेश के अन्य शहरों में किए गए।

निजी अस्पतालों में हो रहे ड्रग ट्रायल के बारे में विभाग के पास कोई जानकरी उपलब्ध नहीं है। नियम देखकर इनके बारे में पड़ताल की जाएगी।
- डॉ. शरद पंडित, सीएमएचओ, इंदौर

ये हैं कुछ निजी डॉक्टर

1. डॉ. सुनील एम. जैन
अस्पताल- टोटल (डायबिटीज थॉयरॉइड हॉरमोन रिसर्च इंस्टीट्यूट)
कंपनी - बोईरिंगर इंगेल्हिम फार्मास्यूटिकल्स सहित कुछ अन्य कंपनियां
उत्पाद - बीआई १३५६ (५ एमजी) सहित कुछ अन्य उत्पाद
बीमारी - डायबिटीक मरीजों में ग्लायकेमिक

२. डॉ.गोविंद एन.मालपानी
अस्पताल-  सुयश
कंपनी - ल्यूपिन
उत्पाद - एलएलएल २०११, नेसल स्प्रे
बीमारी - माइग्रेन


3. डॉ.एके पटेल
अस्पताल-  चोईथराम हॉस्पिटल एण्ड रिसर्च सेंटर
कंपनी - केडिला फार्मास्यूटिकल्स
उत्पाद - पेल्सीटेक्सल, सिस्प्लेटिन (किमोथेरेपिक एजेंट)
बीमारी - स्मॉल सेल लंग केंसर 


4. डॉ. सुशील भाटिया
अस्पताल- चोईथराम हॉस्पिटल एण्ड रिसर्च सेंटर
कंपनी - केडिला फार्मास्यूटिकल्स
उत्पाद - मायकोबैक्टेरियम विथ डॉसिटेक्साल
बीमारी - प्रोस्टेट केंसर

5. डॉ.गिरीश के कवठेकर
 अस्पताल  - सीएचएल अपोलो अस्पताल
 कंपनी  - इन्फीनियम-कोर
 उत्पाद   - कोरोनरी स्टेंट
 बीमारी  - कोरोनरी आर्टरी ब्लॉकेज के उपचार के लिए


6. डॉ.विनोद सोमानी
अस्पताल -  सीएचएल अपोलो 
कंपनी - इन्फीनियम-कोर
उत्पाद - कोरोनरी स्टेंट
बीमारी - कोरोनरी आर्टरी ब्लॉकेज 


7. डॉ. शैलेंद्र त्रिवेदी
अस्पताल-  सीएचएल अपोलो 
कंपनी - इन्फीनियम-कोर
उत्पाद - कोरोनरी स्टेंट
बीमारी - कोरोनरी आर्टरी ब्लॉकेज के उपचार के लिए


8. डॉ. नितीन मोदी
अस्पताल- सीएचएल अपोलो 
कंपनी - इन्फीनियम-कोर
उत्पाद - कोरोनरी स्टेंट
बीमारी - कोरोनरी आर्टरी ब्लॉकेज 


9. डॉ. बीएस ठाकुर
अस्पताल-  गे्रटर कैलाश
कंपनी - प्रॉक्टर एण्ड गैम्बल फार्मास्यूटिकल्स व जाइडस
उत्पाद - टेबलेट मेजालामाइन ८०० एमजी, एसाकोल ८००एमजी
बीमारी - अल्सरेटिव कोलाइटिस 


10. डॉ. अतुल शेंडे
अस्पताल - मानव ट्रेड सेंटर स्थित क्लिनिक
कंपनी - प्रॉक्टर एण्ड गैम्बल फार्मास्यूटिकल्स और जाइडस
उत्पाद - टेबलेट मेजालामाइन ८०० एमजी, एसाकोल ८००एमजी
बीमारी - अल्सरेटिव कोलाइटिस 

11. डॉ. प्रवर पासी
अस्पताल- ग्रेटर कैलाश 
कंपनी - बायोजेन आइडेक
उत्पाद - १२५ एमसीजी, बीआईआईबी ०१७
बीमारी - मल्टीपल सिरोसिस

( खबर शैलेष दीक्षित से साभार)

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आंध्रप्रदेश के कानून पर कमेटी की निगाह 
 प्रमुख सचिव के साथ डीएमई और डॉ. छपरवाल भी शामिल

बहुराष्ट्रीय कंपनियों द्वारा विकसित दवा के परीक्षण (ड्रग ट्रायल) को प्रदेश में काबू करने के लिए नियमावली बनाने के लिए राज्य सरकार द्वारा गठित तीन सदस्यी कमेटी की निगाह आंध्रप्रदेश के कानून पर है। वहां ड्रग ट्रायल को प्रतिबंधित किया गया है। कमेटी संभवत: एक माह में रिपोर्ट सरकार को सौंप देगी।

स्वास्थ्य एवं चिकित्सा राज्य मंत्री महेंद्र हार्डिया ने शुक्रवार को विधानसभा में कमेटी गठित करने की घोषणा की थी। शनिवार को 'पत्रिकाÓ से चर्चा में उन्होंने बताया चिकित्सा शिक्षा प्रमुख सचिव आईएस दाणी की अध्यक्षता में बनाई कमेटी में संचालक चिकित्सा शिक्षा डॉ. वीके सैनी और एमसीआई के पूर्व उपाध्यक्ष डॉ. भरत छपरवाल सदस्य रहेंगे।

उधर, दाणी ने बताया फिलहाल ड्रग ट्रायल के संबंध में ड्रग एंड कॉस्मेटिक एक्ट लागू किया गया है। अध्ययन करने के बाद ही स्पष्ट होगा कि राज्य सरकार इस बारे में क्या कर सकती है? दोनों अन्य सदस्यों के साथ शीघ्र ही बैठक की जाएगी। कोशिश रहेगी कि एक महीने में रिपोर्ट बनाकर दे दी जाए। डॉ. छपरवाल ने बताया फिलहाल मुझे कमेटी के सदस्य बनाए जाने की जानकारी नहीं मिली है। मौजूदा कानूनों और गाइडलाइन का अध्ययन करने के बाद ही स्थिति स्पष्ट होगी।



सीबीआई, एमसीआई को भी शिकायत
आर्थिक अपराध अन्वेषण ब्यूरो (ईओडब्ल्यू) में जांच शुरू होने के साथ ही एमजीएम मेडिकल कॉलेज के ड्रग ट्रायल की शिकायत सीबीआई और एमसीआई को भी पहुंच चुकी है। शिकायतकर्ता राजेंद्र के. गुप्ता ने बताया दोनों स्थानों पर शपथ पत्र के साथ शिकायत की गई है।

शनिवार, जुलाई 31, 2010

दवा कंपनियां अटका देती हैं कानून

Drug Trial : A Money Game to treat Man as Guinea-pig


साढ़े चार वर्ष से केंद्र सरकार नहीं कर सकी फैसला
 आईसीएमआर की सिफारिश के बावजूद संसद नहीं पहुंच सका  बिल 

बहुराष्टï्रीय दवा कंपनियों द्वारा विकसित की गई दवाओं और टीकों के लोगों पर ïपरीक्षण (ड्रग ट्रायल) को काबू करने के लिए भारत सरकार के पास भी एक कानून (बायोलॉजिकल रिसर्च ह्युमन सब्जेक्ट्स प्रमोशन एंड रेग्यूलेशन बिल) साढ़े चार वर्ष से अटका हुआ है। इस देरी का कारण अरबों रुपए के बजट वाली दवा कंपनियों को माना जाता है। ताज्जुब तो यह है कि इस कानून को संसद में पेश करने के लिए भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद (आईसीएमआर) कई बार सिफारिश कर चुकी है।

नागरिकों को अनजान दवाइयों के प्रभाव से बचाने के लिए 2005 में केंद्र सरकार ने ड्रग एंड कॉस्मेटिक एक्ट में संशोधन किया। इसी के बाद ड्रग ट्रायल करने का कार्य विधिवत शुरू हुआ। इसके पहले बगैर किसी नियंत्रण या जानकारी के ट्रायल होते थे, किंतु एक्ट में संशोधन भी बेहद लचर साबित हुआ। न तो इसमें कड़ी सजा का प्रावधान है और न ही किसी भी डॉक्टर पर निगरानी करने की कोई व्यवस्था। यही वजह है कि दवा कंपनियों ने तेजी से देशभर में पांव पसारे और उन डॉक्टरों का चयन किया जिन पर मरीजों को अटूट भरोसा रहता है। डॉक्टरों ने भी 'शोधÓ के नाम पर धड़ाधड़ रोगियों को प्रयोगशाला बनाना शुरू कर दिया। आईसीएमआर को इसकी भनक लगी तो अक्टूबर 2006 में 120 पेज की एक गाइडलाइन जारी की गई। इसका भी देशभर में जमकर उल्लंघन हुआ।

गाइडलाइन बनाने के बीच में ही आईसीएमआर ने बायोलॉजिकल रिसर्च ह्युमन सब्जेक्ट्स प्रमोशन एंड रेग्यूलेशन बिल का खाका तैयार किया। इसे जनवरी 2006 में विधि विभाग के पास भेजा गया। वहां से इसे मंजूरी भी मिल गई, लेकिन इसके बाद से यह फाइलों में खो गया।

कानून के बगैर काबू संभव नहीं
आईसीएमआर निदेशक डॉ. वीएम कटोच ने 'पत्रिकाÓ से चर्चा में बताया जब तक कानून नहीं लाया जाएगा, ड्रग ट्रायल्स पर काबू पाना कठिन है। हम केवल गाइडलाइन जारी कर सकते हैं, उसके पालन करवाने को लेकर कोई तंत्र मौजूद नहीं है।

एमसीआई ने भी बदले नियम
आईसीएमआर की तरह ही मेडिकल काउंसिल ऑफ इंडिया (एमसीआई) को भी ड्रग ट्रायल घपले की जानकारी मिल चुकी थी। यही वजह कि एमसीआई सचिव डॉ. एआरएन सेतलवाड़ ने 10 दिसंबर 2009 को सभी मेडिकल कॉलेजों को पत्र लिखकर इंडियन मेडिकल काउंसिल नियम 2000 में संशोधन की जानकारी दी थी। इसमें सभी डॉक्टरों से कहा गया था कि ट्रायल के जरिए आने वाली राशि को जनता के सामने रखा जाए और ऐसे ही ट्रायल किए जाएं जिनके परिणाम देश के लिए हितकर हों। 

मप्र नर्सिंगहोम एक्ट भी अधूरा
मप्र सरकार ने 17 जनवरी 2007 से नर्सिंगहोम एक्ट लागू किया है। इसमें भी ड्रग ट्रायल को काबू करने का कोई इंतजाम नहीं है। यही वजह है कि राज्य सरकार को अब तक यह पता नहीं है कि निजी अस्पतालों में कौन डॉक्टर किस मरीज पर किस दवा का प्रयोग कर रहा है। एक अनुमान के मुताबिक अकेले इंदौर में करीब 60 डॉक्टर ट्रायल में लिप्त हैं। सीएमएचओ डॉ. शरद पंडित ने बताया फिलहाल किसी भी अस्पताल की एथिकल कमेटी की जानकारी हमें नहीं है। यह मामला पहली बार प्रकाश में आया है। अब वरिष्ठ कार्यालय के ध्यान में लाया जाएगा। 


एक मरीज पर मिलते दो से पांच लाख
ड्रग ट्रायल के खेल में धन के प्रभाव को इसी से मापा जा सकता है कि अधिकांश कंपनियां ट्रायल करने वाले डॉक्टर को एक मरीज के एवज में दो से पांच लाख रुपए तक देती है। इंदौर के एमजीएम मेडिकल कॉलेज में ही वर्ष 2008-09 में डॉ. अशोक वाजपेयी और डॉ. संजय अवासिया को दमे के रोगियों पर मोमेटासोन और फॉरमेट्रोल नामक दवा को दो मरीजों पर इस्तेमाल करने पर 6 लाख 36 हजार रुपए मिले थे। डॉ. अपूर्व पुराणिक को डोनेपेझिजल एआर दवा के प्रयोग के लिए प्रति मरीज 1.10 लाख रुपए मिले।


उम्रकैद से कम नहीं

चिकित्सा क्षेत्र में तरक्की हो इसके लिए ड्रग ट्रायल की जरूरत से कोई इनकार नहीं कर सकता, लेकिन इससे गुजरने वाले मरीजों के हितों की रक्षा कौन करेगा? उन डॉक्टरों पर निगरानी का तंत्र क्या हो, इसके लिए मध्यप्रदेश सरकार ने अब तक कोई कदम नहीं उठाया था। देर से ही सही, कायदे-कानून की घोषणा का स्वागत किया जाना चाहिए।

दरअसल, सवाल विश्वास का है। वह विश्वास जो मरीज अपने डॉक्टर की आंख में देखता है, उसे भगवान मानता है। चंद डॉक्टरों की हरकतों से अगर समूचे चिकित्सा  जगत की साख संकट में पड़ जाए तो यह ठीक नहीं होगा। ड्रग ट्रायल से जुड़े तमाम पहलुओं की जांच-पड़ताल में चौंकाने वाले और दु:खद पहलू सामने आए। सरकार की भी कलई खुल गई। निजी अस्पतालों की दूर उसे तो यह भी पता नहीं कि सरकारी मेडिकल कॉलेजों में ड्रग ट्रायल के नाम पर मरीजों के साथ क्या हो रहा है। ऐसे हालात में आंख पर पट्टी बांधकर ड्रग ट्रायल की पैरोकारी करने वालों से पूछा जाना चाहिए कि इस अराजकता से आखिर लाभ किसे है? इस तकनीकी विषय पर आम आदमी की कम जानकारी का धंधेबाजों ने जमकर फायदा उठाया है। राज्य ही नहीं केंद्र सरकार भी इस विषय में बहुत गंभीर नहीं दिखती। ट्रायल में धंधेबाजों की घुसपैठ को देखकर भारतीय चिकित्सा और अनुसंधान परिषद ने चार साल पहले कानून संशोधन सुझाए।   

विधि विभाग की अनुमति भी मिल गई, इसके बावजूद बहुराष्ट्रीय कंपनियों को फायदा पहुंचाने के लिए आज तक सख्त कानून के लिए कोई संशोधन नहीं किया गया। यही वजह है कि दुनिया भर में सबसे ज्यादा ड्रग ट्रायल भारत में हो रहे हैं। मप्र सरकार को ड्रग ट्रायल पर बेहद सख्त नियम कानून बनाने होंगे। दोषी डॉक्टर को उम्रकैद से कम का प्रावधान न हो। नियमों का उल्लंघन करने वाले की डिग्री छीनी जानी चाहिए।
News in PATRIKA ON 31th July 2010