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शनिवार, जुलाई 31, 2010

दवा कंपनियां अटका देती हैं कानून

Drug Trial : A Money Game to treat Man as Guinea-pig


साढ़े चार वर्ष से केंद्र सरकार नहीं कर सकी फैसला
 आईसीएमआर की सिफारिश के बावजूद संसद नहीं पहुंच सका  बिल 

बहुराष्टï्रीय दवा कंपनियों द्वारा विकसित की गई दवाओं और टीकों के लोगों पर ïपरीक्षण (ड्रग ट्रायल) को काबू करने के लिए भारत सरकार के पास भी एक कानून (बायोलॉजिकल रिसर्च ह्युमन सब्जेक्ट्स प्रमोशन एंड रेग्यूलेशन बिल) साढ़े चार वर्ष से अटका हुआ है। इस देरी का कारण अरबों रुपए के बजट वाली दवा कंपनियों को माना जाता है। ताज्जुब तो यह है कि इस कानून को संसद में पेश करने के लिए भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद (आईसीएमआर) कई बार सिफारिश कर चुकी है।

नागरिकों को अनजान दवाइयों के प्रभाव से बचाने के लिए 2005 में केंद्र सरकार ने ड्रग एंड कॉस्मेटिक एक्ट में संशोधन किया। इसी के बाद ड्रग ट्रायल करने का कार्य विधिवत शुरू हुआ। इसके पहले बगैर किसी नियंत्रण या जानकारी के ट्रायल होते थे, किंतु एक्ट में संशोधन भी बेहद लचर साबित हुआ। न तो इसमें कड़ी सजा का प्रावधान है और न ही किसी भी डॉक्टर पर निगरानी करने की कोई व्यवस्था। यही वजह है कि दवा कंपनियों ने तेजी से देशभर में पांव पसारे और उन डॉक्टरों का चयन किया जिन पर मरीजों को अटूट भरोसा रहता है। डॉक्टरों ने भी 'शोधÓ के नाम पर धड़ाधड़ रोगियों को प्रयोगशाला बनाना शुरू कर दिया। आईसीएमआर को इसकी भनक लगी तो अक्टूबर 2006 में 120 पेज की एक गाइडलाइन जारी की गई। इसका भी देशभर में जमकर उल्लंघन हुआ।

गाइडलाइन बनाने के बीच में ही आईसीएमआर ने बायोलॉजिकल रिसर्च ह्युमन सब्जेक्ट्स प्रमोशन एंड रेग्यूलेशन बिल का खाका तैयार किया। इसे जनवरी 2006 में विधि विभाग के पास भेजा गया। वहां से इसे मंजूरी भी मिल गई, लेकिन इसके बाद से यह फाइलों में खो गया।

कानून के बगैर काबू संभव नहीं
आईसीएमआर निदेशक डॉ. वीएम कटोच ने 'पत्रिकाÓ से चर्चा में बताया जब तक कानून नहीं लाया जाएगा, ड्रग ट्रायल्स पर काबू पाना कठिन है। हम केवल गाइडलाइन जारी कर सकते हैं, उसके पालन करवाने को लेकर कोई तंत्र मौजूद नहीं है।

एमसीआई ने भी बदले नियम
आईसीएमआर की तरह ही मेडिकल काउंसिल ऑफ इंडिया (एमसीआई) को भी ड्रग ट्रायल घपले की जानकारी मिल चुकी थी। यही वजह कि एमसीआई सचिव डॉ. एआरएन सेतलवाड़ ने 10 दिसंबर 2009 को सभी मेडिकल कॉलेजों को पत्र लिखकर इंडियन मेडिकल काउंसिल नियम 2000 में संशोधन की जानकारी दी थी। इसमें सभी डॉक्टरों से कहा गया था कि ट्रायल के जरिए आने वाली राशि को जनता के सामने रखा जाए और ऐसे ही ट्रायल किए जाएं जिनके परिणाम देश के लिए हितकर हों। 

मप्र नर्सिंगहोम एक्ट भी अधूरा
मप्र सरकार ने 17 जनवरी 2007 से नर्सिंगहोम एक्ट लागू किया है। इसमें भी ड्रग ट्रायल को काबू करने का कोई इंतजाम नहीं है। यही वजह है कि राज्य सरकार को अब तक यह पता नहीं है कि निजी अस्पतालों में कौन डॉक्टर किस मरीज पर किस दवा का प्रयोग कर रहा है। एक अनुमान के मुताबिक अकेले इंदौर में करीब 60 डॉक्टर ट्रायल में लिप्त हैं। सीएमएचओ डॉ. शरद पंडित ने बताया फिलहाल किसी भी अस्पताल की एथिकल कमेटी की जानकारी हमें नहीं है। यह मामला पहली बार प्रकाश में आया है। अब वरिष्ठ कार्यालय के ध्यान में लाया जाएगा। 


एक मरीज पर मिलते दो से पांच लाख
ड्रग ट्रायल के खेल में धन के प्रभाव को इसी से मापा जा सकता है कि अधिकांश कंपनियां ट्रायल करने वाले डॉक्टर को एक मरीज के एवज में दो से पांच लाख रुपए तक देती है। इंदौर के एमजीएम मेडिकल कॉलेज में ही वर्ष 2008-09 में डॉ. अशोक वाजपेयी और डॉ. संजय अवासिया को दमे के रोगियों पर मोमेटासोन और फॉरमेट्रोल नामक दवा को दो मरीजों पर इस्तेमाल करने पर 6 लाख 36 हजार रुपए मिले थे। डॉ. अपूर्व पुराणिक को डोनेपेझिजल एआर दवा के प्रयोग के लिए प्रति मरीज 1.10 लाख रुपए मिले।


उम्रकैद से कम नहीं

चिकित्सा क्षेत्र में तरक्की हो इसके लिए ड्रग ट्रायल की जरूरत से कोई इनकार नहीं कर सकता, लेकिन इससे गुजरने वाले मरीजों के हितों की रक्षा कौन करेगा? उन डॉक्टरों पर निगरानी का तंत्र क्या हो, इसके लिए मध्यप्रदेश सरकार ने अब तक कोई कदम नहीं उठाया था। देर से ही सही, कायदे-कानून की घोषणा का स्वागत किया जाना चाहिए।

दरअसल, सवाल विश्वास का है। वह विश्वास जो मरीज अपने डॉक्टर की आंख में देखता है, उसे भगवान मानता है। चंद डॉक्टरों की हरकतों से अगर समूचे चिकित्सा  जगत की साख संकट में पड़ जाए तो यह ठीक नहीं होगा। ड्रग ट्रायल से जुड़े तमाम पहलुओं की जांच-पड़ताल में चौंकाने वाले और दु:खद पहलू सामने आए। सरकार की भी कलई खुल गई। निजी अस्पतालों की दूर उसे तो यह भी पता नहीं कि सरकारी मेडिकल कॉलेजों में ड्रग ट्रायल के नाम पर मरीजों के साथ क्या हो रहा है। ऐसे हालात में आंख पर पट्टी बांधकर ड्रग ट्रायल की पैरोकारी करने वालों से पूछा जाना चाहिए कि इस अराजकता से आखिर लाभ किसे है? इस तकनीकी विषय पर आम आदमी की कम जानकारी का धंधेबाजों ने जमकर फायदा उठाया है। राज्य ही नहीं केंद्र सरकार भी इस विषय में बहुत गंभीर नहीं दिखती। ट्रायल में धंधेबाजों की घुसपैठ को देखकर भारतीय चिकित्सा और अनुसंधान परिषद ने चार साल पहले कानून संशोधन सुझाए।   

विधि विभाग की अनुमति भी मिल गई, इसके बावजूद बहुराष्ट्रीय कंपनियों को फायदा पहुंचाने के लिए आज तक सख्त कानून के लिए कोई संशोधन नहीं किया गया। यही वजह है कि दुनिया भर में सबसे ज्यादा ड्रग ट्रायल भारत में हो रहे हैं। मप्र सरकार को ड्रग ट्रायल पर बेहद सख्त नियम कानून बनाने होंगे। दोषी डॉक्टर को उम्रकैद से कम का प्रावधान न हो। नियमों का उल्लंघन करने वाले की डिग्री छीनी जानी चाहिए।
News in PATRIKA ON 31th July 2010

ड्रग ट्रायल पर कानूनी अंकुश

Mahendra Hardia
ड्रग ट्रायल के लिए नियम व दिशा-निर्देश बनाने के वास्ते प्रमुख सचिव चिकित्सा शिक्षा की अध्यक्षता में समिति गठित की जाएगी। इसकी सिफारिश आने के बाद अगर जरूरी होगा तो विधानसभा में विधेयक लाकर कानून बनाने पर सरकार विचार करेगी।
महेंद्र हार्डिया, लोक स्वास्थ्य एवं चिकित्सा शिक्षा राज्यमंत्री

चिकित्सा शिक्षा राज्यमंत्री हार्डिया ने की विधानसभा में घोषणा
नियम और दिशा-निर्देश बनाने के लिए बनाई कमेटी


बहुराष्ट्रीय कंपनियों द्वारा विकसित दवाओं के रोगियों पर परीक्षण (ड्रग ट्रायल) को काबू करने के लिए राज्य सरकार ने नियम-कायदे बनाने की घोषणा की है। लोक स्वास्थ्य परिवार कल्याण एवं चिकित्सा शिक्षा राज्यमंत्री महेंद्र हाॢडया ने शुक्रवार को विधानसभा में चिकित्सा शिक्षा विभाग के प्रमुख सचिव की अध्यक्षता में कमेटी गठित करने की घोषणा की।
उन्होंने कहा कि रिपोर्ट आने के बाद जरूरी हुआ तो कानून भी बनेगा। हार्डिया ने यह घोषणा कांग्रेस के अजय ङ्क्षसह और प्रताप ग्रेवाल व अन्य की ध्यानाकर्षण सूचना पर की। उन्होंने कहा, इंदौर मेडिकल कॉलेज में मरीजों पर ट्रायल नियम विरुद्ध मिला तो जांच कर दोषी अधिकारियों के खिलाफ कार्रवाई की जाएगी।

मरीजों की संख्या गलत
सरकार ने बताया सरकारी मेडिकल कॉलेजों में 2365 पर ट्रायल हुआ। इसमें 1644 बच्चे थे। 'पत्रिकाÓ को प्राप्त दस्तावेज बताते हैं कि ग्वालियर के गजरा राजा मेडिकल कॉलेज में ही 3500 रोगियों पर ट्रायल हो चुके हैं। वहां न्यूरो सर्जरी के डॉ. आयंगर, स्त्री रोग के डॉ. वी. अग्रवाल, मेडिसिन के डॉ. नवनीत अग्रवाल, धर्मेंद्र तिवारी, चर्मरोग के डॉ. पीके सारस्वत और आर्थोपेडिक्स के डॉ. सिकरवार ने दस कंपनियों के ट्रायल किए गए।

मंत्री भी हुए शिकार
मानसून सत्र के अंतिम दिन विस में ड्रग ट्रायल का मामला गूंजा। डेढ़ घंटे की चर्चा में इसे लेकर कई सवाल उठे। पंचायत व ग्रामीण विकास मंत्री गोपाल भार्गव ने बताया,1957 में उनपर ड्रग ट्रायल हुआ। इससे उन्हें चेचक निकल आई। उन्होंने कहा, मैं प्रभावित हूं। तब नियम नहीं था और न बीमे की व्यवस्था।   

ये विधायक चर्चा में शामिल:
अजय सिंह, प्रताप ग्रेवाल, एनपी प्रजापति, प्रद्युम्न सिंह तोमर (कांगे्रस), पारस सकलेचा (निर्दलीय), यशपाल सिंह सिसोदिया और सुदर्शन गुप्ता (भाजपा)


एथिक्स कमेटी रखती है निगरानी :  हार्डिया
हार्डिया ने विधानसभा को बताया भारत के ड्रग एवं कॉस्मेटिक एक्ट-1940 और इंडियन काउंसिल ऑफ मेडिकल रिसर्च (आईसीएमआर) के दिशानिर्देशों के अनुसार ड्रग टायल संचालित किए जाते हैं। प्रत्येक संस्था में इसकी अनुमति देने व उस पर निगरानी के लिए एक एथिक्स कमेटी गठित की जाती है। इसके संचालन के लिए प्रायोजित औषधि कंपनी, अन्वेषणकर्ता चिकित्सक एवं कुछ मामलों में संस्था के प्रमुख के माध्यम से अनुबंध होता है। इसकी जानकारी एथिक्स कमेटी के सदस्यों को दी जाती है।


विधानसभा में सरकार को विरोध का डोज

ड्रग ट्रायल विषय पर शुक्रवार को विधानसभा में रखे गए ध्यानाकर्षïण प्रस्ताव में विधायकों ने सरकार को जमकर ïघेरा। विधायकों ने कई सवालों के जरिए पूरे मामले में  स्पष्टीकरण मांगा। इस पर स्वास्थ्य राज्य मंत्री महेंद्र हार्डिया ने जवाब दिए।

पारस सकलेचा: एथिक्स कमेटी ने कब-कब उन मरीजों का निरीक्षण किया है, जिन पर ड्रग ट्रायल हुआ? इनकी वर्तमान स्थिति क्या है, ट्रायल के बाद क्या हुई और घातक रोग होने के बाद उन्हें कितनी बीमा राशि दी गई?
हार्डिया: इंदौर में एथिक्स कमेटी गठित है, जिसके चेयर पर्सन प्रोफेसर केडी भार्गव हैं। आज तक किसी भी मरीज ने उनसे जाकर शिकायत नहीं की। यदि सकलेचा के पास कोई शिकायत है तो बता दें हम उसकी जांच करा लेंगे।

प्रद्युम्नसिंह तोमर: जितने मरीजों पर ड्रग ट्रायल किया गया, क्या उनकी सहमति ली गई। कितने डॉक्टर इसके चलते विदेश गए?
हार्डिया: चार डॉक्टरों को विदेश जाने की अनुमति दी गई।

यशपालसिंह सिसोदिया: क्या आगामी सत्र में विधेयक लाकर कानूनी रूप देकर ड्रग ट्रायल माफियाओं पर शिकंजा कसा जाएगा?
हार्डिया: मैं चिकित्सा शिक्षा विभाग के प्रमुख सचिव की अध्यक्षता में तीन सदस्यीय समिति गठित करने की घोषणा करता हूं।

अजय सिंह- ड्रग ट्रायल के लिए अनुमति कहां से मिली और कितने मरीजों पर ट्रायल किया गया? क्या उनका क्लीनिकल ट्रायल रजिस्ट्री ऑफ इंडिया में रजिस्ट्रेशन हुआ है? कितने मरीजों का बीमा कराया गया था इसमें से कितने को राशि मिली?
हार्डिया- जो कंपनियां ट्रायल कर रही हैं, उन्होंने अनुमति ली है। जहां तक शिकायतों का सवाल है तो सरकार के पास कोई शिकायत नहीं है। कोई मामला विधायक के पास हो तो जरूर बता दें।

अजय सिंह- आंध्रप्रदेश में ड्रग ट्रायल प्रतिबंधित है। सरकार को चाहिए कि मध्यप्रदेश में भी इसे प्रतिबंधित करे। मरीजों से अंग्रेजी के कागज पर अनुमति के दस्तखत करा लिए जाते हैं।
हार्डिया- अनुज्ञा पत्र हिंदी में है।

प्रताप ग्रेवाल- मैंने सूचना के अधिकार में सहमति पत्र लिए हैं। इसमें ड्रग ट्रायल संबंधी कोई जानकारी नहीं है। वास्तविकता यह है कि फार्म अंग्रेजी में है और करीब पांच से छह पेज का है। यह फार्म किसी पढ़े लिखे को भी समझ नहीं आ सकता।
हार्डिया- विधायक मुझे ये फार्म दें। मैं इसे दिखवा लूंगा। इसमें कोई अनियमितता हुई होगी तो उस पर सख्त कार्रवाई होगी।

ग्रेवाल- एथिक्स कमेटी के सदस्यों के नाम और उनके फोन नंबर अस्पताल और मेडिकल कॉलेज में एक बोर्ड पर लिखे होने चाहिए, ताकि जिन मरीजों पर ड्रग ट्रायल हो रहा है, वे इन्हें अपनी समस्या बता सकें।
हार्डिया- ये सब सेंट्रल एक्ट से संचालित होता है। मैंने यह भी पता किया था कि क्या अन्य राज्यों में इस तरह का कोई कानून है। पता चला कि किसी भी राज्य में ड्रग ट्रायल संचालित करने का कोई कानून नहीं है।

News in PATRIKA on 31th July 2010

शुक्रवार, जुलाई 30, 2010

हमें मरीज की जानकारी नहीं रहती

Justice PD Mulaye
  

ड्रग ट्रायल मामले में एथिकल कमेटी सदस्य जस्टिस मूले की साफगोई
स्वास्थ्य राज्य मंत्री हार्डिया ने गड़बड़ी की जिम्मेदारी कमेटी पर डाली


बहुराष्टï्रीय कंपनियों द्वारा विकसित दवाइयों का एमजीएम मेडिकल कॉलेज से जुड़े अस्पतालों में आने वाले रोगियों पर धोखे से परीक्षण (ड्रग ट्रायल) करने के मामले में रिटायर्ड जस्टिस पीडी मूल्ये की साफगोई से पूरी प्रक्रिया पर सवालिया निशान लग गया है। ट्रायल को मंजूरी देने वाली कॉलेज की एथिकल कमेटी के सदस्य मूल्ये ने कहा है कि हमें मरीजों की कोई जानकारी नहीं रहती है। रजिस्ट्रेशन से जुड़े दस्तावेज देखकर कमेटी केवल अनुमति देती है। इसके बाद डॉक्टर मरीजों के साथ क्या करते हैं, इसके लिए न तो कमेटी जिम्मेदार है और न ही वह इसकी निगरानी करती है।

बुधवार दोपहर भोपाल में स्वास्थ्य राज्य मंत्री महेंद्र हार्डिया ने मीडियाकर्मियों से चर्चा में कहा कि इंदौर के मेडिकल कॉलेज की कमेटी में जस्टिस मूल्ये जैसे लोग शामिल हैं, इसलिए वहां हो रहे ट्रायल पर शंका नहीं की जा सकती है। इस बयान पर 'पत्रिकाÓ ने जस्टिस मूल्ये से विस्तार से चर्चा की।


ट्रेन का टिकट देते हैं, यात्रा की जानकारी नहीं

प्र- एथिकल कमेटी में आप क्या देखते हैं?
उ- हम संबंधित विभाग और कंपनी की अनुमति देखते हैं। इससे अधिक कुछ नहीं।
प्र- जिन शर्तों पर अनुमति देते हैं, उनका पालन कौन करवाता है?
उ- यह हमारा काम नहीं है। हम प्राथमिक अनुमति देते हैं। ट्रायल बाद में शुरू होता है। न तो हम अस्पताल जाते हैं और न ही उस क्लिनिक में जहां ट्रायल का काम चलता है।
प्र- आपको कितने रुपए मिलते हैं?
उ- एक बैठक के 1000 रुपए मिलते हैं। अब तक 12-13 बैठकों में गया हूं।
प्र- आपको नहीं लगता कि ट्रायल में पारदर्शिता बढ़ाई जाना चाहिए?
उ- उसका मुझे कुछ मालूम नहीं। यह काम कॉलेज का है। हम तो केवल कागज देखते हैं।
प्र- मरीजों के साथ क्या हो रहा है, इस पर आपकी कितनी नजर रहती है?
उ- हमारी कमेटी ट्रेन का टिकट देती है। इसके बाद यात्रा शुरू होती है। टिकट देने वाले को बाकी यात्रा की जानकारी नहीं रहती।
प्र- मंत्री हार्डिया कह रहे हैं, आप हैं तो ट्रायल में शंका नहीं की जा सकती?
उ- हम अनुमति देने तक सीमित हैं, इसके बाद क्या होता है, जानकारी नहीं रहती है।
(रिटायर्ड जस्टिस पीडी मूल्ये से चर्चा)



कॉलेज के भीतर से उठे विरोध के स्वर

ड्रग ट्रायल के खुलासे के बाद कुछ डॉक्टरों ने पूरे मामले को ठंडा करने की कोशिश शुरू की, लेकिन इसका विपरीत प्रभाव हुआ। कॉलेज के भीतर से ही कुछ डॉक्टरों ने विरोध शुरू कर दिया है। ट्रायल के घेरे में आए डॉक्टर चाहते हैं कि पूरा कॉलेज उनका साथ दे, परंतु दूसरे सभी लोगों का कहना है जिसने गलती की है वह स्वयं अपनी लड़ाई लड़े।

'ड्रग ट्रायल मसले से पूरे कॉलेज की बदनामी हो रही है। हम चाहते हैं कि इस पूरे मामले को पूरे चिकित्सा जगत से जोड़कर नहीं देखा जाए। जिसने गलती की है, उसे सजा अवश्य मिलना चाहिए। साथ ही इस विषय से जुड़ी सभी भ्रांतियां भी दूर की जाना चाहिए।Ó
- विक्रांत भूरिया, अध्यक्ष, जूनियर डॉक्टर्स एसोसिएशन

'भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद (आईसीएमआर) द्वारा ड्रग ट्रायल के लिए तय किए गए मापदंडों का एमजीएम मेडिकल कॉलेज में पालन नहीं हुआ है। बहुराष्टï्रीय कंपनियां भारत के लोगों को निशाना बना रही है और ताज्जुब की बात तो यह है कि केंद्र व राज्य सरकार ने इसके लिए कोई निगरानी तंत्र तक नहीं बनाया। मरीजों के हित में ट्रायल बंद किया जाना चाहिए।Ó
- डॉ. आनंद राय, अध्यक्ष, मप्र रेसीडेंट डॉक्टर्स एसोसिएशन

'चिकित्सा विज्ञान की प्रगति के लिए ड्रग ट्रायल अनिवार्य है, लेकिन देश में इसके संबंध में बने कानून पर पुनर्विचार करना चाहिए। कानून में कई कमियां है, इसी कारण ट्रायल का दुरुपयोग हो रहा है। अंग प्रत्यारोपण जैसा सख्त कानून लागू किया जाना चाहिए ताकि ट्रायल पर पूरा नियंत्रण रहे।Ó
- डॉ. सुमित शुक्ला, उपाध्यक्ष, मेडिकल टीचर्स एसोसिएशन

'जिन डॉक्टरों पर मरीजों के दुरुपयोग का आरोप लगा है, उन्हें कॉलेज से दूर करके पूरे मामले की जांच की जाना चाहिए। डॉक्टरों पर आरोप सिद्ध न हो तो उन्हें फिर से कॉलेज बुलाया जा सकता है। फिलहाल वे रहे तो जांच प्रभावित हो सकती है क्योंकि वैसे ही ट्रायल मामले में पारदर्शिता की बेहद कमी है।Ó
- शिवाकांत वाजपेयी, अध्यक्ष, मप्र रेडियोग्राफर्स एसोसिएशन



विधानसभा में आज उठेगा मुद्दा
शुक्रवार को विधानसभा में 'पत्रिकाÓ द्वारा उठाए गए ड्रग ट्रायल के मुद्दे पर बहस होगी। रतलाम के विधायक पारस सकलेचा, सरदारपुर के प्रताप ग्रेवाल, इंदौर के सुदर्शन गुप्ता, मंदसौर के यशपालसिंह सिसौदिया समेत करीब सात विधायकों ने इस मसले पर ध्यानाकर्षण प्रस्ताव दर्ज करवाया है।

News in PATRIKA on 30th July 2010

गुरुवार, जुलाई 29, 2010

ड्रग ट्रायल में जा चुकी एक जान



 जबलपुर में कैंसर मरीज की हुई थी मौत
 भोपाल, ग्वालियर में भी अनियमितताएं


बहुराष्ट्रीय कंपनियों की विकसित दवाओं का धोखे से परीक्षण (ड्रग ट्रायल) करने के दौरान प्रदेश में एक महिला मरीज की जान जा चुकी है। जबलपुर के कैंसर अस्पताल में इस मरीज का उपचार चल रहा था। उधर, इंदौर के बाद भोपाल और ग्वालियर के सरकारी मेडिकल कॉलेजों से जुड़े अस्पतालों में भी ड्रग ट्रायल की अनियमितताएं सामने आई हैं।

जबलपुर में अगस्त 2008 में कैंसर रोगियों पर ड्रग ट्रायल शुरू  हुआ था। रेडियोथेरेपी की प्रोफेसर डॉ. पुष्पा किरार और डॉ. अमित जोतवानी ने पेट के कैंसर (कार्टिनोमा स्टमक) के चार रोगियों पर दवा का प्रयोग शुरू किया था। चूंकि यह ट्रायल प्लेसिबो (इलाज के बीच में दवा बंद करके दूसरे मरीजों से तुलना करना) था, इसलिए एक महिला रोगी पर सारी दवाइयां बंद कर दी गईं। इसी दौरान उसकी मौत हुई।

प्लेसिबो ट्रायल अनैतिक
भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद (आईसीएमआर) के मुताबिक मरीज को उपचार के बीच में ऐसी दवा देना जिसमें दवा के बजाए ग्लूकोज या स्टार्च हो (प्लेसिबो) अनैतिक कार्य है। इस संबंध में चिकित्सा जगत की विश्व प्रसिद्ध हेलेंस्की घोषणा को भी केंद्र सरकार ने मानने से इंकार किया है।


'वह बहुत गंभीर थीÓ

 क्या आपने कोई ट्रायल किया है?
 हां, 2008 में शुरू किया था, लेकिन चार मरीजों के बाद ही बंद कर दिया।

बंद क्यों कर दिया?
ïकॉलेज की मान्यता और हमारी डिग्री के कारण कंपनी ने इंकार कर दिया था।

सूचना के अधिकार में आपने जानकारी दी है कि चार में से एक की मौत हो गई?
ïहां, मौत हुई थी। वह महिला बहुत गंभीर अवस्था में थी। चूंकि ट्रायल प्लेसिबो था, इसलिए कुछ मरीजों को दवा नहीं दी जाती है। उसे भी नहीं दी थी।

मौत के कारण ही ट्रायल बंद तो नहीं हुआ?
हमारे यहां इंदौर जैसा मामला नहीं है। मैं खुद भी ट्रायल करना नहीं चाहती थी, इसलिए बंद कर दिया।
(डॉ. पुष्पा किरार से सीधी बात)


भोपाल का हाल
ईसी अहमदाबाद में, ट्रायल भोपाल में

गांधी मेडिकल कॉलेज भोपाल के सर्जरी एचओडी डॉ. एमसी सोनगरा और डॉ. नितिन वर्मा ने 2008 में मूत्र रोग से पीडि़त 40 लोगों पर कैडिला कंपनी की दवा का प्रयोग किया। इसके लिए उन्होंने अहमदाबाद की एक निजी एथिकल कमेटी (ईसी) से मंजूरी ली। आईसीएमआर की गाइडलाइन के मुताबिक यदि सरकारी कॉलेज में एथिकल कमेटी मौजूद हो, तो बाहर की किसी कमेटी से अनुमति नहीं ली जा सकती है।


ग्वालियर में बड़ा कारोबार
3500 लोगों पर थोपा ट्रायल, कमेटी भी अधूरी 

वर्ष 2005 में ड्रग एंड कॉस्मेटिक एक्ट में किए गए संशोधन के मुताबिक ट्रायल को मंजूरी देने वाली एथिकल कमेटी में एक आम आदमी समेत पांच बाहरी व्यक्ति होना आवश्यक है। ग्वालियर के गजराराजा मेडिकल कॉलेज में बनी कमेटी में दो लोग बाहर हैं और इनमें भी आम आदमी नहीं है। यहां न्यूरो सर्जरी के डॉ. आयंगर, स्त्री रोग के डॉ. वी. अग्रवाल, मेडिसिन के डॉ. नवनीत अग्रवाल, धर्मेंद्र तिवारी, चर्मरोग के डॉ. पीके सारस्वत और आर्थोपेडिक्स के डॉ. सिकरवार ने दस कंपनियों के ट्रायल किए गए। इसमें करीब 3500 रोगियों को चुना गया।



ईओडब्ल्यू में बयान शुरू
 ड्रग ट्रायल मामले में तीन सप्ताह में पूरी होगी प्रारंभिक जांच

मरीजों पर बहुराष्ट्रीय कंपनियों की विकसित दवाओं का धोखे से परीक्षण करने (ड्रग ट्रायल) के मामले में आर्थिक अपराध अन्वेषण ब्यूरो (ईओडब्ल्यू) ने भोपाल में बुधवार से बयान लेना शुरू कर दिया है। ब्यूरो ने सबसे पहले शिकायतकर्ता से वे दस्तावेज हासिल किए हैं, जिनके आधार पर शिकायत की गई। 

स्वास्थ्य समर्पण सेवा समिति नाम संगठन ने ईओडब्ल्यू में शिकायत की है कि एमजीएम मेडिकल कॉलेज इंदौर के सात डॉक्टरों ने बहुराष्टï्रीय कंपनियों से सांठगांठ करके ड्रग ट्रायल शुरू किया। इसके एवज में उन्हें अकूत संपत्ति हासिल की। ईओडब्ल्यू आईजी अजय शर्मा ने बताया जांच का दायित्व असिस्टेंट आईजी प्रियंका शर्मा को सौंपा है। उन्होंने शिकायतकर्ता डॉ. आनंद राजे के बयान दर्ज कर लिए हैं। करीब तीन सप्ताह में जांच का कार्य समाप्त कर लिया जाएगा। जिन डॉक्टरों पर आरोप हैं, उनसे भी पूछताछ की जाएगी।

ईओडब्ल्यू आईजी के मुताबिक एमजीएम मेडिकल कॉलेज के मेडिसिन विभाग के प्रोफेसर डॉ. अनिल भराणी, प्रोफेसर डॉ. अपूर्व पुराणिक, एमवायएच अधीक्षक डॉ. सलिल भार्गव, पूर्व प्रोफेसर डॉ. अशोक वाजपेयी, नेत्र रोग एचओडी डॉ. पुष्पा वर्मा, शिशु रोग प्रोफेसर डॉ. हेमंत जैन और एमवायएच सहायक अधीक्षक डॉ. वीएस पाल के खिलाफ शिकायत मिली है।


दोषियों पर होगी कार्रवाई : मुख्यमंत्री

मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चौहान ने भोपाल में मीडियाकर्मियों से चर्चा में कहा ड्रग ट्रायल मामले में ईओडब्ल्यू में शिकायत हुई है और वहां जांच भी शुरू हो गई है। जो भी दोषी होगा उसके खिलाफ कार्रवाई की जाएगी। 


देर रात तक उलझा रहा एमजीएम

एमजीएम मेडिकल कॉलेज के अस्पतालों में हुए ड्रग ट्रायल मामले में संभवत: गुरुवार को विधानसभा में ध्यानाकर्षण प्रस्ताव लाया जाएगा। इसकी तैयारी में रात करीब 9.30 बजे तक कॉलेज में कार्य जारी थी। कॉलेज डीन डॉ. एमके सारस्वत के साथ ही कुछ प्रोफेसर और प्रशासनिक अधिकारी जुटे थे, ताकि भोपाल मुख्यालय से पूछे गए हर सवाल का 'माकूलÓ जवाब दे सकें। उधर, भोपाल में संचालक चिकित्सा शिक्षा और प्रमुख सचिव में भी देर रात तक इस मसले पर कार्य चलने की जानकारी मिली है।

News i n PATRIKA on 29th July 2010

बुधवार, जुलाई 28, 2010

एमसीआई को थी ट्रायल घपले की भनक


- देशभर के मेडिकल कॉलेजों को भेजे थे नोटिस
- सात माह बाद भी किसी अफसर ने नहीं दिया ध्यान

 
अस्पताल में आने वाले रोगियों पर दवा आजमाईश के घपले की मेडिकल काउंसिल ऑफ इंडिया (एमसीआई) को भनक लग चुकी थी। इसी कारण सात माह पहले देश के सभी मेडिकल कॉलेजों को एक पत्र लिखा गया था। पत्र में कहा था कि ट्रायल के जरिए आने वाली राशि को जनता के सामने रखा जाए और ऐसे ही ट्रायल किए जाएं जिनके परिणाम देश के लिए हितकर हों। अफसोस जनक यह है कि चिकित्सा शिक्षा की इस सर्वोच्च संस्था को एमजीएम मेडिकल कॉलेज इंदौर जैसे संस्थानों ने कोई तवज्जो नहीं दी। ï

एमसीआई सचिव रिटायर्ड कर्नल डॉ. एआरएन सेतलवाड़ ने 10 दिसंबर 2009 को सभी मेडिकल कॉलेजों को लिखा था कि ट्रायल से आर्थिक लाभ उठाने के लिए डॉक्टर मरीजों को निशाना बना रहे हैं, इसलिए इंडियन मेडिकल काउंसिल नियम 2000 में संशोधन आवश्यक हो गया है। इस संशोधन के बताए अनुसार ही अब कॉलेजों के डॉक्टरों को बरताव करना अनिवार्य है।

'मेरे पास इस तरह के निर्देश आए थे और इसकी जानकारी सभी विभागाध्यक्षों को दे दी गई थी। अब उन्होंने इसका पालन नहीं किया तो कार्रवाई की जाएगी।Ó
- डॉ. एमके सारस्वत, एमजीएम मेडिकल कॉलेज, इंदौर

छह बिंदु जिनका उल्लंघन हुआ

एक-
कोई भी डॉक्टर किसी दवा कंपनी से कोई उपहार नहीं लेगा।
दो-
कोई भी डॉक्टर या उसके परिवार का सदस्य किसी दवा कंपनी के खर्चे से यात्रा नहीं करेगा।
तीन-
ट्रायल की स्थिति में कोई भी डॉक्टर पारदर्शी तरीके से ही कंपनी से रुपए लेगा।
चार-
ट्रायल शुरू करने के पहले ही जनता को विज्ञापन जैसे माध्यम से राशि की जानकारी देना होगी।
पांच-
जो मरीज स्वेच्छा से ट्रायल में शामिल हों, उनकी स्वास्थ्य सुरक्षा का इंतजाम करना होगा।
छह-
दवा कंपनी से किए गए समझौते में ट्रायल के परिणाम को प्रकाशित करने का अधिकार लेना।


डीजीपी को भी भेजी शिकायत
लोकायुक्त और आर्थिक अपराध अन्वेषण ब्यूरो के बाद ड्रग ट्रायल करने वाले मेडिकल कॉलेज के डॉक्टरों के खिलाफ पुलिस महानिदेशक के पास भी शिकायत हुई है। शिकायतकर्ता राजेंद्र के. गुप्ता ने एमजीएम मेडिकल कॉलेज डीन डॉ. एमके सारस्वत, एमवायएच अधीक्षक डॉ. सलिल भार्गव, एथिकल कमेटी अध्यक्ष डॉ. केडी भार्गव के साथ ही करीब चालीस डॉक्टरों और कमेटी सदस्यों के खिलाफ धोखाधड़ी, भ्रष्टाचार और गैर इरादतन हत्या जैसे आरोप दर्ज करने की मांग की है।

भोपाल ईओडब्ल्यू करेगा जांच
स्वास्थ्य समर्पण सेवा समिति संगठन द्वारा की गई शिकायत पर भोपाल पदस्थ असिस्टेंट इंस्पेक्टर जनरल प्रियंका मिश्रा को जांच का जिम्मा सौंपा गया है। उन्होंने इसकी पड़ताल भी शुरू कर दी है। पहले माना जा रहा था कि जांच ईओडब्ल्यू के इंदौर दफ्तर से शुरू होगी। शिकायत में डॉ. हेमंत जैन, डॉ. अपूर्व पुराणिक, डॉ. अनिल भराणी, डॉ. अशोक वाजपेयी, डॉ. सलिल भार्गव, डॉ. पुष्पा वर्मा और डॉ. वीएस पाल को आरोपी बनाया गया है।





आजाद ने मांगे इंदौर ड्रग ट्रायल के तथ्य
- 'पत्रिकाÓ की खबरों पर केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री ने लिया संज्ञान
- भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद से भी की चर्चा





केंद्रीय स्वास्थ्य एवं परिवार मंत्री गुलाम नबी आजाद ने इंदौर के एमजीएम मेडिकल कॉलेज से जुड़े अस्पतालों में मरीजों पर बहुराष्ट्रीय कंपनियों की ïïविकसित दवाओं का धोखे से परीक्षण किए जाने को लेकर 'पत्रिकाÓ में प्रकाशित खबरों को गंभीरता से लिया है। इस संबंध में उन्होंने मंत्रालय से सभी जरूरी तथ्य मांगे हैं। मंत्रालय के एक वरिष्ठ अधिकारी ने इसकी पुष्टि की है।

अधिकारी ने बतायाï इंदौर के एमवाय अस्पताल, चाचा नेहरू बाल चिकित्सालय और चेस्ट सेंटर में पिछले कुछ साल से मरीजों पर दवाओं का धोखे से परीक्षण किए जाने की जानकारी मिली है, जिसे आजाद ने गंभीरता से लिया है। आजाद ने इस संबंध में भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद (आईसीएमआर) के महानिदेशक डॉ. वीएम कटोच से भी चर्चा की। आईसीएमआर मापदंडों के आधार पर ही दवाइयों के क्लिनिकल परीक्षण होते हैं।  


News in PATRIKA on 28th July 2010

रविवार, जुलाई 25, 2010

ईओडब्ल्यू में जांच शुरू

 आईजी ने प्रथम दृष्टया मामले को गंभीर माना



विदेशी दवा कंपनियों से मिलने वाले रुपए के लिए शुरू हुए ड्रग ट्रायल के गोरखधंधे में शामिल डॉक्टरों की आर्थिक अपराध अन्वेषण ब्यूरो (ईओडब्ल्यू) ने जांच शुरू कर दी है। ब्यूरो ने प्रथम दृष्टया मामले को गंभीर माना है। फिलहाल जांच में सात डॉक्टरों के नाम हैं, जो आगे 50 से अधिक तक पहुंच सकते हैं।

'पत्रिकाÓ में प्रकाशित खबरों के आधार पर स्वास्थ्य समर्पण सेवा समिति द्वारा ईओडब्ल्यू में शिकायत की गई थी। ईओडब्ल्यू आईजी अजय शर्मा ने बताया शिकायत को जांच में ले लिया गया है। प्रथम दृष्टया यह बेहद गंभीर मामला दिखता है। आरोपों सच साबित होने पर केस दर्ज किया जाएगा। संभवत: जांच इंदौर ऑफिस भेजी जाएगी।

शिकायतकर्ता डॉ. आनंद राजे ने बताया एमजीएम मेडिकल कॉलेज के मेडिसिन विभाग के प्रोफेसर डॉ. अनिल भराणी, प्रोफेसर डॉ. अपूर्व पुराणिक, एमवायएच अधीक्षक डॉ. सलिल भार्गव, पूर्व प्रोफेसर डॉ. अशोक वाजपेयी, नेत्र रोग एचओडी डॉ. पुष्पा वर्मा, शिशु रोग प्रोफेसर डॉ. हेमंत जैन और एमवायएच सहायक अधीक्षक डॉ. वीएस पाल को आरोपी बनाया है। 


ये हैं आरोप
एक - सरकारी पद का दुरुपयोग करके अनुपातहीन संपत्ति अर्जित की।
दो-  सरकार की जानकारी के बगैर मरीजों की जान आफत में डाली।
तीन- ट्रायल से एमबीबीएस और एमडी/एमएस के छात्रों की पढ़ाई बाधित।
चार- बगैर जानकारी के अवैधानिक तरीके से विदेश यात्राएं की।
पांच - सरकारी खजाने में रुपए न डालकर खुद ने विभिन्न बैंकों में खाते खुलवाए।


लोकायुक्त में एक ओर शिकायत की तैयारी
शुक्रवार को लोकायुक्त में भेजी गई शिकायत के बाद अब दूसरी शिकायत की तैयारी है। स्वास्थ्य समर्पण सेवा समिति ने बताया डॉक्टरों के नाम से आईसीआईसीआई, एडीएफसी, आईडीबीआई, एचएसबीसी, सिटी बैंक के साथ ही कुछ सहकारी बैंकों में भी खाते हैं। इनकी जांच करने से पूरे लेन-देन की जानकारी मिल सकती है। ये डॉक्टर वेस्टर्न यूनियन मनी ट्रांसफर के जरिए रुपए भारत मंगवाते हैं। पहली शिकायत में करीब तीन दर्जन डॉक्टरों और अन्य को आरोपी बताया है


सीटीए की भी हो जांच
उधर, विधानसभा में मामला उठाने वाले विधायकों का कहना है 'पत्रिकाÓ के खुलासे के बाद अब एमजीएम मेडिकल कॉलेज प्रबंधन को वे समझौते भी जगजाहिर करना चाहिए जिनका नाम क्लिनिकल ट्रायल्स एग्रीमेंट (सीटीए) होता है। इससे ही रुपए की असली जानकारी सामने आएगी।


पैसे के लिए बेच रहे देश : हजारे
प्रख्यात सामाजिक कार्यकर्ता अन्ना हजारे ने इंदौर प्रवास के दौरान 'पत्रिकाÓ से चर्चा में कहा विदेशी कंपनियों के लिए जो लोग ड्रग ट्रायल कर रहे हैं, वे पैसे के लिए देश को बेच रहे हैं। उनसे देश को बचाना चाहिए। वे कंपनियों के मुनाफे के लिए ही इस काम में लगे हैं। शोध जैसी कोई बात इसमें नहीं है।

News in Patrika on 26th July 2010

लोकायुक्त भी पहुंची शिकायत

मेडिकल कॉलेज के डॉक्टरों के साथ ही एथिकल कमेटी व सीटीआरआई को भी बनाया आरोपी
ईओडब्ल्यू भोपाल ने भी शुरू कर दी जांच

रोगी को चूहे की तरह प्रयोगशाला मानकर शुरू हुए दवा आजमाईश के खेल 'ड्रग ट्रायलÓ में अब एमजीएम मेडिकल कॉलेज फंसते दिख रहे हैं। आर्थिक अपराध अनुसंधान ब्यूरो (ईओडब्ल्यू) के बाद लोकायुक्त में भी शिकायत पहुंच चुकी है। इसमें एमजीएम मेडिकल कॉलेज से जुड़े दो दर्जन से अधिक डॉक्टरों के साथ ही उस एथिकल कमेटी के सदस्यों को भी आरोपी बनाया गया है, जिन्होंने ट्रायल को हरी झंडी दी।

शपथपत्र पर की गई लोकायुक्त शिकायत में कहा गया है कि मेडिकल कॉलेज डीन डॉ. एमके सारस्वत, एमवायएच अधीक्षक डॉ. सलिल भार्गव ने एथिकल कमेटी के सदस्यों से साथ सांठगांठ करके मरीजों की जान खतरे में डाली है। इसमें केंद्र सरकार और राज्य सरकार के नियमों का ध्यान नहीं रखा गया। विदेशी दवा कंपनियों से आर्थिक लाभ पाने के लिए गंभीर अनियमितताएं की गई। शिकायतकर्ता राजेंद्र के. गुप्ता ने लोकायुक्त को यह भी बताया है कि ड्रग ट्रायल के संबंध में सूचना के अधिकार में कई जानकारियां मांगी गई, लेकिन हमेशा से ही इंकार किया जाता रहा। दस्तावेजों के लिए फिलहाल मामला मुख्य सूचना आयुक्त के समक्ष लंबित है। उधर, सूत्रों का कहना है ईओडब्ल्यू भोपाल में स्वास्थ्य सेवा समर्पण संगठन प्रमुख डॉ. आनंद राजे द्वारा की गई शिकायत पर जांच शुरू कर दी है।

इन पर लगे आरोप
मेडिकल कॉलेज डीन डॉ. एमके सारस्वत, ड्रग कंट्रोलर मप्र राकेश श्रीवास्तव, क्लिनिकल ट्रायल्स रजिस्ट्री इंडिया की डिप्टी डायरेक्टर डॉ. आभा अग्रवाल, एथिकल कमेटी चेयरमैन डॉ. केडी भार्गव, कमेटी सदस्य कुट्टी मेनन, डॉ. जयंतीलाल भंडारी, रिटायर्ड जस्टिस पीडी मूल्ये, एडवोकेट योगेश मित्तल, एमवायएच अधीक्षक डॉ. सलिल भार्गव, उपअधीक्षक डॉ. वीएस पाल, चाचा नेहरू अस्पताल अधीक्षक डॉ. शरद थोरा, चेस्ट सेंटर अधीक्षक डॉ. एम. हरगुनानी, शिशु रोग प्रोफेसर डॉ. हेमंत जैन, मेडिसिन एचओडी डॉ. जीबी रामटेके, प्रोफेसर डॉ. अपूर्व पुराणिक, प्रोफेसर डॉ. अनिल भराणी, एसोसिएट प्रोफेसर डॉ. संजय अवासिया, मेडिसिन कंसलटेंट डॉ. अतुल शेंडे, डॉ. सोनल पगारे, पूर्व एचओडी मेडिसिन डॉ. अशोक वाजपेयी, नेत्ररोग एचओडी डॉ. पुष्पा वर्मा, मनोरोग एचओडी डॉ. रामगुलाम राजदान, मनोरोग कंसल्टेंट डॉ. मनीष पालीवाल, डॉ. उज्जवल सरदेसाई के साथ ही जूनियर डॉक्टर सचिन सेठी, गौरव मोहन, प्रोमिता चौधरी, दीलिप सिंह, मयंक जैन, आशीष जैन, प्रज्ञा जैन, मीना ढोल, अब्दुल मंसूर एवं वरूण कटारिया।


News in Patrika on 25th July 2010

बगैर अनुमति मरीजों पर थोपी ट्रायल

- एमजीएम मेडिकल कॉलेज की ड्रग ट्रायल अवैध
- क्लिनिकल ट्रायल एग्रीमेंट पर सात वर्ष से किसी भी डीन ने नहीं किए हस्ताक्षर


एमवाय अस्पताल, चाचा नेहरू बाल चिकित्सालय और चेस्ट सेंटर में जाने वाले गरीब और जरूरतमंद रोगियों (दूधमुंहे बच्चे भी शामिल) पर विदेशी कंपनियों की दवाइयों के ट्रायल बगैर प्रशासनिक अनुमति के थोपे गए। तीनों अस्पताल एमजीएम मेडिकल कॉलेज के अधीन आते हैं और सात वर्ष से किसी भी डीन ने ट्रायल के समझौते पर हस्ताक्षर नहीं किए हैंï। क्लिनिकल ट्रायल एग्रीमेंट (सीटीए) नाम के इस समझौते पर स्पांसर कंपनी और ट्रायल करने वाले डॉक्टर के साथ ही संस्थान प्रमुख के हस्ताक्षर जरूरी हैं।

केंद्रीय स्वास्थ्य संचालनालय ने ट्रायल को पारदर्शी बनाने के लिए सीटीए के संबंध में स्पष्ट निर्देश जारी किए हैं कि जिस संस्थान में दवा आजमाईश होती है, उसकी जानकारी के लिए थ्रीपार्टी समझौता अनिवार्य है। संस्थान प्रमुख के हस्ताक्षर के बाद ही ट्रायल शुरू की जाना चाहिए। इस लिहाज से एमवायएच, चाचा नेहरू अस्पताल व चेस्ट सेंटर में होने वाले ट्रायल की जानकारी एमजीएम मेडिकल कॉलेज डीन को होना अनिवार्य है, परंतु वर्ष 2003 से अब तक किसी भी डीन ने सीटीए देखा तक नहीं है। फरवरी 2007 से पहले एमवायएच अधीक्षक रहे डॉ. डीके जैन ने जरूर कुछ समझौतों पर हस्ताक्षर किए। इसके बाद के दोनों अधीक्षकों का कहना है हमने कभी किसी समझौते पर हस्ताक्षर नहीं किए। 

इसलिए तो नहीं छुपाते समझौता
सीटीए में ट्रायल के लिए डॉक्टर को दी जाने वाली राशि के साथ ही यह भी बताया जाता है कि कब कितनी राशि किस एकाउंट नंबर में जाएगी। एक मरीज पर आने वाले खर्च, मरीज की बीमा पॉलिसी की राशि के साथ ही यह भी उल्लेख रहता है कि मरीज की तबीयत बिगडऩे पर उसका उपचार कैसे और कहां किया जाएगा।

उठते सवाल
- जब किसी जिम्मेदार अधिकारी ने अनुमति नहीं दी, तो ट्रायल कैसे किए जा रहे हैं?
- बगैर समझौते के किसी आधार पर गरीब मरीजों की जिंदगियों को खतरे में डाला गया?
- एथिकल कमेटी ने भी कभी समझौते के दस्तावेज देखने की कोशिश क्यों नहीं की?
- ट्रायल पर उठे सवालों के बावजूद अब तक चिकित्सा शिक्षा विभाग ने सीटीए दस्तावेज क्यों नहीं मांगे?



बोले डीन

'मैंने आज तक न तो सीटीए देखा है और न ही साइन किए हैं। ट्रायल करने वाले एथिकल कमेटी के सामने पेश होते हैं और वहीं से अनुमति ले लेते होंगे।Ó
- डॉ. एमके सारस्वत, डीन, एमजीएम मेडिकल कॉलेज
(कार्यकाल- 29 जनवरी 2007 से 2 जनवरी 2008 तक और 12 फरवरी 2009 से अब तक)


'सीटीए पर हस्ताक्षर आमतौर पर एमवायएच वाले ही करते हैं। मुझे किसी हस्ताक्षर का अंदाज नहीं।Ó
- डॉ. अशोक वाजपेयी, पूर्व प्रभारी डीन, एमजीएम मेडिकल कॉलेज
(कार्यकाल- 2 जनवरी 2008 से 11 फरवरी 2009 तक)

'ड्रग ट्रायल से जुड़े किसी भी दस्तावेज मैंने हस्ताक्षर नहीं किए हैं। न तो मैंने ट्रायल किए और न ही इसे बढ़ावा दिया।Ó
- डॉ. वीके सैनी, संचालक चिकित्सा शिक्षा, मप्र
(दिसंबर 2009 से 29 जनवरी 2007 तक कॉलेज डीन रहे)


बोले अधीक्षक
'ट्रायल के पहले सीटीए पर हस्ताक्षर किए जाते हैं, लेकिन एमवायएच मामले में आज तक हस्ताक्षर नहीं किए।Ó
- डॉ. सलिल भार्गव, अधीक्षक, एमवायएच
(कार्यकाल- जुलाई 2008 से अब तक)


 'सीटीए के किसी दस्तावेज पर हस्ताक्षर की जानकारी मुझे नहीं है। ट्रायल के किसी कागज से मेरा नाता नहीं रहा।Ó
- डॉ. सीवी कुलकर्णी, एचओडी, पैथोलॉजी, एमजीएम मेडिकल कॉलेज
(फरवरी 2007 से जुलाई 2008 तक एमवायएच अधीक्षक)


'मैंने कुछ समझौतों पर साइन किए थे। वैसे करना डीन को थे, लेकिन ट्रायल हमारे यहां होते थे, इसलिए मैंने किए।Ó
- डॉ. डीके जैन, पूर्व अधीक्षक, एमवायएच
(फरवरी 2007 से पूर्व करीब दो वर्ष तक अधीक्षक रहे)




ड्रग ट्रायल पर तैयार नहीं हुआ जवाब
-  रोगियों को प्रयोगशाला बनाने का मामले में बेहद सावधानी बरत रही सरकार


मरीजों को प्रयोगशाला की तरह इस्तेमाल करने के गोरखधंधे 'ड्रग ट्रायलÓ के बारे में सरकार की पास पहले से कोई जानकारी मौजूद नहीं थी, इसका खुलासा भी अब हो गया है। एक विधायक द्वारा करीब 20 दिन पहले जो प्रश्न विधानसभा में जवाब के लिए लगाया था, उसका जवाब तय तारीख तक तैयार ही नहीं हो सका। सरकार ने विधायक को आश्वस्त किया है कि शीघ्र ही उत्तर पटल पर रख दिया जाएगा।

सरदारपुर के प्रताप ग्रेवाल, रतलाम के पारस सकलेचा और ग्वालियर के प्रद्धुम तोमर ऐसे विधायक हैं जिन्होंने राज्य में पहली बार ड्रग ट्रायल के विषय को उछाला है। तीनों ने ही इंदौर एमजीएम मेडिकल कॉलेज में जारी ड्रग ट्रायल, इसकी अनुमति, इसमें जुड़े डॉक्टर, मरीज, रुपए का लेन-देन, केंद्र-राज्य सरकार की भूमिका जैसे सवाल पूछे हैं। करीब दो सप्ताह से कॉलेज जानकारी जुटा रहा है। शुक्रवार को ग्रेवाल को जवाब मिलना था। उन्होंने जब सदन में इसकी मांग की, तो बताया गया फिलहाल जवाब तैयार नहीं हुआ है। माना जा रहा है कि इस मामले में सरकार की जानकारी शून्य थी और कई बिंदु ऐसे हैं, जिनके बारे में कोई माकूल जवाब ही नहीं मिल रहा है। इसी के चलते बेहद फूंक-फूंककर कदम उठाए जा रहे हैं। इधर, एमजीएम मेडिकल कॉलेज डीन डॉ. एमके सारस्वत का कहना है भोपाल से मांगी गई हर जानकारी भेज दी गई है। सभी प्रश्नों के बिंदुवार जवाब दिए गए हैं।
News in Patrika on 24th July 2010

मरीजों को नहीं दिए सहमति पत्र

भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद के कायदों का जमकर उल्लंघन

पूरे देश में मरीजों को सुरक्षित रखने के लिए भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद (आईसीएमआर) ने अक्टूबर 2006 में जो मापदंड जारी किए थे, उनका इंदौर के डॉक्टरों ने जमकर उल्लंघन किया है। मरीजों को जो जानकारी दी जाना चाहिए, वह दिए बगैर ही दवा और टीकों का प्रयोग शुरू कर दिया गया। इसमें कई रोगियों की जान पर भी बन आई।

आईसीएमआर की 120 पेज की पुस्तक में जो कायदे बनाए हैं, उनकी जानकारी ही कई डॉक्टरों को नहीं है। ट्रायल करने वाले एक डॉक्टर ने बताया हमें तो बस हेलेंस्की घोषणा और स्पांसर कंपनी द्वारा बताए गए नियमों का पालन करते हैं। एक अन्य का कहना है ट्रायल एक बार क्लिनिकल ट्रायल्स रजिस्ट्री इंडिया में रजिस्टर्ड होने के बाद कोई कुछ पूछता ही नहीं है, इसलिए गाइडलाइन पढऩे की आवश्यकता नहीं है। ताज्जुब की बात तो यह है कि इस गाइडलाइन के बारे में अब तक एमजीएम मेडिकल कॉलेज डीन डॉ. एमके सारस्तव को भी जानकारी नहीं थी। उन्होंने बताया मामला उठा है तो गाइडलाइन निकलवाकर अध्ययन कर रहा हूं। अब इसके आधार पर तुलना की जाएगी।


जो किया जाना था, परंतु किया नहीं

- सहमति पत्र की एक कॉपी मरीज को देना।
- मरीज का बीमा करके पॉलिसी उसे देना।
- दवा के साइड इफेक्ट का पूरा खुलासा करना।
- मरीज के अनपढ़ होने पर दो शिक्षित गवाहों के हस्ताक्षर।
- थर्ड पार्टी एग्रीमेंट की गारंटी अर्थात ट्रायल एमवायएच में होने की स्थिति में अधीक्षक का पत्र
- जिस बात पर मरीज सवाल पूछे, उसे सहमति पत्र में अंडर लाइन करने लिखना।
- कोई लिखित सहमित न दे, तो ऑडियो-वीडियो रिकॉर्डिंग करना।
- मानसिक रोगियों के परिजन से कानूनी अनुमति के बगैर जांच नहीं करना। 



प्लेसिबो ट्रायल अनैतिक
आईसीएमआर ने स्पष्ट किया है कि मरीज को उपचार के बीच में ऐसी दवा देना जिसमें दवा के बजाए ग्लूकोज या स्टार्च हो (प्लेसिबो) अनैतिक कार्य है। इस संबंध में विश्व प्रसिद्ध हेलेंस्की डिक्लेरेशन को भी केंद्र सरकार ने मानने से इंकार कर दिया है।





ट्रायल इंदौर में, ईसी पूणे में
- ड्रग ट्रायल के गोखधंधे में निमयों को रखा ताक पर 



विदेशी कंपनी द्वारा मरीजों पर दवा आजमाइश के खेल ड्रग ट्रायल में भारत सरकार के नियमों की जमकर धज्जियां उड़ाने का मामला सामने आया है। डॉक्टरों ने निजी कंपनियों से रुपए लेने की जल्दबाजी में यह भी नहीं देखा कि उन्हें जांचने वाली एथिकल कमेटी कहां की है। ट्रायल के ऐसे कई मामले सामने आए हैं जिसमें डॉक्टर इंदौर के हैं और कमेटी पूणे, बैंग्लूर, चैन्नई की। कमेटी के सामने हाजिर की जरूरत इन डॉक्टरों ने नहीं समझी।

मानसिक रोगियों पर किए गए ट्रायल में ऐसा ही किया गया। एमवायएच के उप अधीक्षक डॉ. वीएस पाल ने पूणे में कंपनी द्वारा गठित की गई एथिकल कमेटी से अनुमति ली। इसके लिए वे कभी पूणे गए भी नहीं। यही हाल एमवायएच अधीक्षक डॉ. सलिल भार्गव का भी रहा। उन्होंने ज्ञानपुष्प रिसर्च सेंटर पर दमा रोगियों पर जो ट्रायल की हैं, उनके लिए इंदौर के बाहर की एथिकल कमेटी से अनुमति ली।

कॉलेज के कर्मचारी भी चपेट में
मेडिकल कॉलेज के कुछ कर्मचारियों पर डॉक्टरों द्वारा ट्रायल करने की जानकारी मिली है। कॉलेज के एकाउंट सेक्शन में कार्यरत एक व्यक्ति पर चेस्ट सेंटर में ट्रायल की गई। वह दमे का रोगी है।




विधानसभा बहस के लिए ध्यानाकर्षण

 ड्रग ट्रायल पर बहस के लिए दो विधायकों ने गुरुवार को विधानसभा अध्यक्ष ईश्वरदास रोहाणी से मुलाकात की है। विधायकों का कहना है कि इस मुद्दे पर अतिरिक्त समय दिया जाना चाहिए क्योंकि यह हर प्रदेशवासी से जुड़ा मुद्दा है। इंदौर एक के विधायक सुदर्शन गुप्ता ने बताया रतलाम के विधायक पारस सकलेचा के साथ मैंने इस मसले पर चर्चा करवाने की आग्रह किया है। विधानसभा अध्यक्ष सैद्धांतिक तौर पर इसके लिए राजी भी हो गए हैं।

विशेषाधिकार हनन की तैयारी
ड्रग ट्रायल में लिप्त कुछ डॉक्टर सरकार को झूठी जानकारी देकर या किसी प्रकार के लेख छपवाकर विधानसभा एवं नागरिकों को भ्रमित करने की कोशिश में लगे हैं। एक जागरूक विधायक ने 'पत्रिकाÓ को बताया जब कोई प्रश्न किसी सदस्य ने पूछा है तो उस पर सदन के पटल पर चर्चा होने तक किसी प्रकार का प्रभाव नहीं डाला जा सकता है। विषय से जुड़ा कोई व्यक्ति ऐसा करता है तब तो यह सीधे-सीधे विशेषाधिकार हनन का मामला है। ड्रग ट्रायल में भी ऐसी कोशिशें हो रही हैं, जिन्हें कामयाब नहीं होने दिया जाएगा।



News in Patrika on 23th July 2010

इलाज के नाम पर करोड़ों का घालमेल

ड्रग ट्रायल का गोरखधंधा: ईओडब्ल्यू पहुंचा मामला


ड्रग ट्रायल का गोरखधंधा अब आर्थिक अपराध अन्वेषण ब्यूरो (ईओडब्ल्यू) पहुंच गया है। डॉक्टरों से ही जुड़े एक संगठन ने शिकायत की है कि गरीब मरीजों को निशाना बनाकर एमजीएम मेडिकल कॉलेज इंदौर से जुड़े अस्पतालों में ऐसी दवाइयों का आजमाइश हो रही है, जो बाजार में उतरी ही नहीं है। राज्य सरकार की जानकारी के बगैर इलाज के नाम पर डॉक्टरों ने करोड़ों का घालमेल किया है। इसकी विस्तृत जांच करके भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम और ड्रग एंड कास्मेटिक अधिनियम के तहत कार्रवाई की जाए।

 स्वास्थ्य समर्पण सेवा संगठन द्वारा भोपाल स्थित ईओडब्ल्यू मुख्यालय में शिकायत की गई है। संगठन प्रमुख डॉ. आनंद राजे ने बताया ट्रायल के नाम पर काला धन राज्य में आ रहा है। ट्रायल करने वाले डॉक्टरों और उनके परिजन के बैंक खातों की जांच की जाए, तो हकीकत उजागर हो सकती है। चूंकि राज्य में ईओडब्ल्यू ही आर्थिक अपराध से जुड़े मामले सुलझाता है, इसलिए शिकायत की।

जीने का अधिकार संकट में
 स्वदेशी जागरण मंच ने शुरू किया विरोध


ड्रग ट्रायल करने वाले डॉक्टरों के खिलाफ स्वदेशी जागरण मंच ने बुधवार को विरोध शुरू कर दिया। मंच ने ट्रायल को जीवन जीने के अधिकार की राह में अड़चन बताया है। इस कार्य में लिप्त डॉक्टरों के विरूद्ध एक सप्ताह में कार्रवाई नहीं होने की स्थिति में संगठन चरणबद्ध आंदोलन करेगा।

मंच के कार्यकर्ताओं ने अपर आयुक्त गौतमसिंह को राष्टï्रपति एवं राज्यपाल के नाम पांच बिंदुओं का ज्ञापन सौंपा। महानगर संयोजक सुरेश बिजौलिया, विभाग संयोजक बलराम वर्मा एवं महानगर सहसंयोजक मनोज लोढ़े ने बताया मेडिकल हब की शक्ल लेते इंदौर में कुछ डॉक्टर मनुष्य के जीवन से खिलवाड़ कर रहे हैं। विदेशी कंपनियों की आड़ में मरीज पर जानलेवा प्रयोग किए जा रहे हैं। बारिकी से पूरे मामले की जांच की जाए तो सारा मामला सामने आ सकता है। केंद्र सरकार को चाहिए क्विंटल्स व बायोटेक नाम की स्पांसर कंपनियों को तत्काल प्रतिबंधित करे और राज्य सरकार को चाहिए कि वह तत्काल एक नियामक आयोग गठन करे जो मामले की पड़ताल कर सके। 


अब खंगाल रहे गाइडलाइन
- मरीजों पर प्रयोग करने से पहले तो नहीं दिया ध्यान
- पलट रहे आईसीएमआर, एम्स के नियमों की किताबें



पांच वर्षों से अस्पताल में आने वाले रोगियों पर दवा आजमाइश (ड्रग ट्रायल) करने वाले डॉक्टर अब उस नैतिक गाइडलाइन की तलाश में है, जो उनका बचाव कर सके। इसके लिए वे भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद (आईसीएमआर) और भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (एम्स) की उन किताबों के पन्ने पलट रहे हैं जिसमें ड्रग ट्रायल के कायदे तय किए गए हैं।

'पत्रिकाÓ द्वारा ड्रग ट्रायल के गोरखधंधे का खुलासा करने और सरदारपुर, रतलाम व ग्वालियर के विधायकों द्वारा विधानसभा में मामला उठाने के बाद डॉक्टरों को नियमों की याद आई है। अब तक वे क्विंटल्स और बायोटेक जैसी स्पांसर कंपनियों द्वारा तय दिशा में काम करते थे। उन्होंने कभी आईसीएमआर के उन नियमों की परवाह नहीं की जो मनुष्य को प्रयोगशाला बनाने से बचाते हैं।

दो धारी तलवार!
आईसीएमआर के मापदंड दो धारी तलवार की तरह हैं। ट्रायल करने वाले डॉक्टर इसमें अपने बचाव की बातें ढूंढ रहे हैं, जबकि चिकित्सा शिक्षा विभाग डॉक्टरों को कटघरे में खड़े करने के तथ्य।


News in Patrika on 22th July 2010

एमवायएच उपअधीक्षक भी ट्रायल में लिप्त

जानकारी छुपाने वालों में डॉ. वीएस पाल शामिल
मनोरोगियों पर आजमाई रामेलटियोन दवा


एमवायएच अधीक्षक डॉ. सलिल भार्गव के बाद उपअधीक्षक डॉ. वीएस पाल द्वारा भी ड्रग ट्रायल की जानकारी छुपाने की बात सामने आई है। उन्होंने सरकार को ट्रायल नहीं करने की जानकारी दी है, जबकि क्लिनिकल ट्रायल्स रजिस्ट्री इंडिया (सीटीआरआई) रिकॉर्ड के मुताबिक 2009 में उन्होंने मनोरोगियों पर ट्रायल किया है। उन्होंने खुद को एमजीएम मेडिकल कॉलेज का प्रोफेसर बताकर ट्रायल अलंकार पाइंट गीता भवन चौराहा स्थित प्रायवेट क्लिनिक पर की।

सीटीआरआई की 29 जून 2010 को अपडेट की गई जानकारी बताती है 9 दिसंबर 2009 को गुरगांव के प्रो. कंचन त्यागी के अधीन देश के 16 डॉक्टरों ने रेनबैक्सी कंपनी के लिए रामेलटियोन दवा का ट्रायल शुरू किया। इसमें डॉ. पाल के साथ ही मनोरोग कंसलटेंट डॉ. अभय पालीवाल भी उनके साथ रहे। डॉ. पाल ने ट्रायल के लिए पूणे स्थित एथिकल कमेटी से ट्रायल की अनुमति ली थी। 

इन्होंने भी छुपाई जानकारी
नेत्ररोग एचओडी डॉ. पुष्पा वर्मा, ïमनोरोग विभागाध्यक्ष डॉ. रामगुलाम राजदान, कंसलटेंट डॉ. मनीष पालीवाल, कंसलटेंट डॉ. उज्जवल सरदेसाई और मेडिसीन के डॉ. अतुल शेंडे ने जानकारी छुपाई है।


'बहुत पुराना मामला हैÓ

क्या आपने किसी दवा का ट्रायल किया है ?
- नहीं तो।
सीटीआरआई रिकॉर्ड बताता है आपने रामेलटियोन दवा इस्तेमाल की?
- पुरानी बात होगी, क्योंकि यह दवा तो अब बाजार में आ चुकी है।
आपने किस एथिकल कमेटी से इजाजत ली थी?
- वह बाहर की थी, लेकिन मैंने ट्रायल नहीं किया है।
सरकारी रिकॉर्ड में तो आपका नाम है?
वह हो सकता है। कई बार चर्चा चलती है, लेकिन काम शुरू नहीं हो पाता।
(डॉ. वीएस पाल से चर्चा) 



मेडिकल कॉलेज डीन की भोपाल से खिंचाई
- ड्रग ट्रायल के गोरखधंधों मामले में सरकार ने लताड़ा


विदेशी दवा कंपनियों से मोटी रकम कमाने के लिए अस्पताल में आने वाले रोगियों पर दवा आजमाइश (ड्रग ट्रायल) करने वाले डॉक्टरों के कारण बदनाम हुए एमजीएम मेडिकल कॉलेज के डीन को सरकार ने जमकर लताड़ लगाई है। सरकाार ने उनसे ड्रग ट्रायल से जुड़े सभी मुद्दों पर विस्तृत जवाब मांगा है। यह भी पूछा है कि उनकी नाक के नीचे ट्रायल का धंधा चलता रहा, फिर भी उन्हें इसकी जानकारी क्यों नहीं मिली?

'पत्रिकाÓ द्वारा ड्रग ट्रायल के गोरखधंधे के खुलासे से मामले में सरकार की अज्ञानता जाहिर हुई है। कॉलेज से जुड़े एमवायएच, चाचा नेहरू अस्पताल और चेस्ट सेंटर में मरीजों पर दवा आजमाइश होती है। इसकी सरकार को कानों-कान खबर नहीं है। सूत्रों के मुताबिक डीन डॉ. एमके सारस्तव से सरकार बेहद नाराज हैं, क्योंकि उनकी जानकारी के बगैर कई डॉक्टर ट्रायल कर रहे हैं। इससे मरीजों के साथ ही कॉलेज की पढ़ाई भी प्रभावित हो रही है। सूत्रों का कहना है कि चिकित्सा शिक्षा विभाग के प्रमुख सचिव आईएस दाणी पूरे घटनाक्रम से बेहद खफा हैं।

एथिकल कमेटी भंग करने की तैयारी
सूत्रों का कहना है एमजीएम मेडिकल कॉलेज की एथिकल कमेटी को भंग करने की तैयारी है। इस कमेटी के सहयोग के कारण ही डॉक्टरों ने ड्रग ट्रायल के धंधे का विस्तार किया है।

वह बाबूगिरी तो यह क्या?
एथिकल कमेटी के सचिव डॉ. अनिल भराणी ने कॉलेज काउंसिल की एक बैठक में कहा था मैं किसी कमेटी में नहीं रहूंगा क्योंकि मैं बाबूगिरी नहीं करना चाहता। यही वजह है कि उन्हें किसी कमेटी में नहीं रखा जाता है। वे कोई जिम्मेदारी भी नहीं लेना चाहते हैं। ड्रग ट्रायल के खुलासे के बाद कॉलेज एक प्रोफेसर ने बताया उन्हें जब बाबूगिरी पसंद नहीं है, तो एथिकल कमेटी की सदस्यता छोड़ क्यों नहीं देते। 

फिर आया ड्रग ट्रायल का सवाल
विधानसभा में इस बार मानो ड्रग ट्रायल से जुड़े सवालों की बरसात हो रही है। मंगलवार को फिर से एक सवाल कॉलेज पहुंचा। इसमें भी कमोबेश वही जानकारी मांगी गई जो पूर्व में मांगी जा चुकी है। पांच वर्षाें में हुई ट्रायल, लिप्त डॉक्टर, सरकार की अनुमति , विदेश यात्रा के साथ ही रुपए का हिसाब भी इसमें पूछा गया है। इसका जवाब तैयार करने के लिए शाम सात बजे तक मशक्कत जारी रही। 


इंदौर का मुद्दा उठाएंगे बाहरी विधायक
- ड्रग ट्रायल में हमारे जनप्रतिनिधियों की बड़ी चूक
- रतलाम, सरदारपुर व ग्वालियर के विधायकों ने खोला मोर्चा



इंदौर के लिए इंदौर के जनप्रतिनिधि कितने सजग और जागरूक है, इसकी कलाई ड्रग ट्रायल के मौजूदा मुद्दे से खुल रही है। जिले में नौ विधायक हैं और इन्हें इस बात से कोई सरोकार ही नहीं कि प्रदेश के सबसे बड़े सरकारी अस्पताल एमवायएच में आने वाले मरीजों की सेहत के साथ डॉक्टर खिलवाड़ कर रहे हैं। कैलाश विजयवर्गीय व महेंद्र हार्डिया को मंत्री होने के नाते छोड़ भी दिया जाए तो शेष सात विधायक इस मसले पर क्या कर रहे हैं, यह किसी से छुपा नहीं है।

हालांकि, इंदौर को फिक्र करने की जरूरत नहीं है। प्रदेश के तीन दूसरे विधायक इंदौर की चिंता कर रहे हैं। रतलाम के पारस सकलेचा, सरदारपुर के प्रताप ग्रेवाल और ग्वालियर के प्रद्धुम्नसिंह तोमर ऐसे विधायक हैं, जिन्हें राज्यभर के मरीजों की फिक्र है। सकलेचा भाजपा से ही हैं, जबकि ग्रेवाल व तोमर कांग्रेस से। तीनों ने ही ड्रग ट्रायल से जुड़े मुद्दे को विधानसभा में प्रश्न के जरिए उठा दिया है।

मंत्री को जानकारी ही नहीं
इंदौर पांच के विधायक महेंद्र हार्डिया स्वास्थ्य राज्य मंत्री हैं और उन्हें यह पता ही नहीं है कि ड्रग ट्रायल क्या होता है। उन्होंने हाल ही में कहा है कि इसकी जानकारी मैं उन्हीं डॉक्टरों से लूंगा, जो ट्रायल कर रहे हैं।

इंदौर के विधायक
सुदर्शन गुप्ता, रमेश मेंदोला, अश्विन जोशी, मालीन गौड़, जीतू जिराती, सत्यनारायण पटेल और तुलसी सिलावट।


 

News in Patrika on 21th July 2010

इनहेलर के ट्रायल से हुआ मोतियाबिंद !

दमे की तकलीफ लेकर 2008 में एमवायएच आया था मरीज
कुछ ही दिन में दूसरी बीमारी ने जकड़ा

एक ऐसा मरीज सामने आया है जिस पर एमवायएच में ड्रग ट्रायल (ऐसी दवा से उपचार जो बाजार में नहीं मिलती) हुआ। मरीज दमे का रोगी था और उपचार के दौरान उस पर डॉक्टरों ने इनहेलर का प्रयोग किया। इसकी वजह से उसे मोतियाबिंद हो गया। मोतियाबिंद का उपचार भी एमवायएच के नेत्ररोग विभाग में ही हुआ।

मरीज को नुकसान होने की आशंका के चलते उसका नाम पता प्रकाशित नहीं किया जा रहा है। दस्तावेज बताते हैं कि दमा की शिकायत पर 2008 में जब मरीज एमवाय अस्पताल पहुंचा तो मेडिसीन विभागाध्यक्ष डॉ. अशोक वाजपेयी ने उसे फार्मेटेरोल और मोमेटासोन दवा से बना इनहेलर दिया। साथ ही कुछ कागजों पर हस्ताक्षर करवाए। इनहेलर के प्रयोग के साथ ही उसे नेत्र रोग विभाग भी भेजा गया, जहां उसकी आंखों की जांच नेत्र रोग विशेषज्ञ डॉ. पुष्पा वर्मा ने की। उपचार शुरू होने के बाद उसे चेस्ट सेंटर शिफ्ट कर दिया गया। बाद में जब भी वह अस्पताल आता, जूनियर डॉक्टर मोटर साइकिल पर बैठाकर उसे एमवायएच से चेस्ट सेंटर ले जाया जाते। कुछ दिन बाद मरीज को मोतियाबिंद हो गया। कारण पूछा तो बताया गया उम्र बढऩे से ऐसा हो जाता है।

डॉक्टरों को मिले 27.54 लाख
सरकारी रिकॉर्ड बताता है कि इनहेलर के इस ट्रायल के बदले प्लो रिसर्च इंस्टीट्यूट ने डॉ. अशोक वाजपेयी और डॉ. संजय अवासिया के खाते में 27.54 लाख रुपए जमा कराए। इसका कुछ हिस्सा दूसरे डॉक्टरों को भी मिला। ट्रायल करीब दो दर्जन मरीजों पर किया गया। वर्ष 07-08 में 1.70 लाख, 08-09 में 11.08 लाख और 09-10 में 11.76 लाख का भुगतान डॉक्टरों को हुआ।


हां, साइड इफेक्ट होते थे
'डॉ. अशोक वाजपेयी के मार्गदर्शन में इनेहलर का ट्रायल किया था। इनहेलर से आंख संबंधी साइड इफेक्ट होते थे, इसीलिए मरीजों को नेत्र रोग विभाग भेजा जाता था। वहां की एचओडी डॉ. पुष्पा वर्मा ट्रायल में साथ थीं और मरीजों को जांचती थी। मरीज का नाम जाने बगैर यह नहीं बता सकता हूं कि मोतियाबिंद हुआ या नहीं।Ó
- डॉ. संजय अवासिया, एसोसिएट प्रोफेसर, मेडिसीन विभाग


डॉ. पुष्पा वर्मा की पोल खुली
डॉ. संजय अवासिया के बयान से नेत्र रोग विभाग की एचओडी डॉ. पुष्पा वर्मा की पोल भी खुल गई है। उन्होंने हाल ही में सरकार को जानकारी भेजी है कि वे किसी ट्रायल में शामिल नहीं रही।

रतलाम के डॉक्टर ने पूछा सवाल
एमवायएच के सूत्र बताते हैं इस ड्रग ट्रायल के संबंध में रतलाम के एक डॉक्टर ने सूचना के अधिकार में जानकारी मांगी, जो उसे नहीं दी गई। डॉक्टर ने इसके लिए चार रिमाइंडर भी भेजे, परंतु बात नहीं बनी। बाद में डॉक्टर ने क्या कार्रवाई की, इसकी जानकारी नहीं मिल सकी है। 

News in Patrika on 21th July 2010

तय हो नैतिक और कानूनी जिम्मेदारी

ड्रग ट्रायल को लेकर आगे आए चिकित्सकीय संगठन


शहर में चल रहे ड्रग ट्रायल के गोरखधंधे में लिप्त डॉक्टरों की भूमिका पर सवाल उठने लगे हैं। ऐसे चुनिंदा डॉक्टरों की वजह से चिकित्सा पेशे से जुड़े वे डॉक्टर भी बदनाम हो रहे हैं, जिनकी ट्रायल में कोई भूमिका नहीं है। एमसीआई के पूर्व उपाध्यक्ष डॉ. भरत छापरवाल इसके लिए पूरी तरह से इथिकल कमेटी को जिम्मेदार मानते हैं। उनका कहना है कि इथिकल कमेटी को ट्रायल से गुजर रहे प्रत्येक मरीज की जानकारी जुटाई जाना चाहिए। ट्रायल कई कडिय़ों से होकर गुजरता है। सभी कडिय़ां ईमानदारी से काम करें, जिसकी भी भूमिका संदिग्ध हो, उसकी ईमानदारी से जांच कराई जाना चाहिए। मरीजों का कंसेंट फॉर्म सूचनात्मक न होकर जानकारीपरक होना चाहिए, ताकि वह अपने भले-बुरे का निर्धारण कर सके। वहीं आईएमए के अध्यक्ष डॉ. अनिल बंडी का कहना है कि नियमों का पालन नहीं करने वाले डॉक्क्टरों की भूमिका को संदिग्ध माना जा सकता है। वे मानते हैं कि मरीजों को ट्रायल की जानकारी देना नैतिक और कानूनी जिम्मेदारी है। ट्रायल कर रहे डॉक्टर यदि ऐसा नहीं कर रहे हैं तो यह गैरकानूनी है।

ऐसे काम से पेशे की बदनामी

यह बात सौ फीसदी सही है कि कुछ डॉक्टरों के गलत ढंग से ड्रग ट्रायल करने के कारण शहर के अन्य चिकित्सकों की बदनामी हो रही है। निर्धारित मापदंडों और मरीज को विश्वास में लेकर उसे पूरी जानकारी देकर ही ट्रायल किया जाना चाहिए। यह वास्तव में मरीज का अधिकार भी है। 
डॉ. जीएस पटेल, पूर्व अध्यक्ष इंडियन पीडिएट्रिक एसोसिएशन

मरीजों से ट्रायल की बात छिपा रहे हैं, मतलब डॉक्टर कंपनी के लिए काम कर रहे हैं। जनहित में किए जाने वाले इस काम के पहले मरीजों को ट्रायल के साथ दवा और उसके साइड इफेक्ट, इंश्योरेंस की जानकारी भी दी जाना चाहिए। चुनिंदा डॉक्टरों के कारण होम्योपैथी व अन्य पैथियां भी बदनाम न हो, इसका ट्रायल कर रहे डॉक्टरों को ध्यान रखना चाहिए।
डॉ. एके द्विवेदी, अध्यक्ष, होम्योपैथी एसोसिएशन

ड्रग ट्रायल कर रहे चिकित्सकों को चाहिए कि वे मरीजों को ट्रायल वाली दवाओं से होने वाले नुकसान और फायदे के बारे में भी बताएं। साइड इफेक्ट होने पर मरीजों के कानूनी अधिकारों की भी जानकारी दी जाना चाहिए। चिकित्सकों की भूमिका पूरी तरह पारदर्शी हो।
डॉ. ओपी तिवारी, सदस्य, एमसीआई



News in Patrika on 20th July 2010

500 पेज में समाया ड्रग ट्रायल का हिसाब

ड्रग ट्रायल का गोरखधंधा

एमजीएम मेडिकल कॉलेज से जुड़े अस्पतालों में पांच वर्ष से जारी ड्रग ट्रायल की पूरी जानकारी 500 से अधिक पन्नों में पूरी हुई। शनिवार को यह जानकारी दो कर्मचारियों के हाथ भोपाल भेजी गई, जिसे विधानसभा के पटल पर रखा जाएगा।

बरसों से एमजीएम मेडिकल कॉलेज में ड्रग ट्रायल हो रहा है और सरकार को इसकी रत्तीभर भी जानकारी नहीं थी। इस बार सरदारपुर के विधायक प्रताप ग्रेवाल ने ड्रग ट्रायल का सवाल पूछा तो मामले में लिप्त सभी डॉक्टरों के कान खड़े हो गए। मेडिकल कॉलेज प्रबंधन ने एक सप्ताह पहले जब इसका जवाब मंत्रालय को भेजा तो वहां से इंकार आ गया कि गोलमाल जवाब नहीं चाहिए, स्पष्ट और पारदर्शी जवाब भेजें।

इसी दौरान 'पत्रिकाÓ ने पूरे मामले का खुलासा किया कि किस तरह से डॉक्टर मरीजों पर चूहा की तरह प्रयोग कर रहे हैं। इसके एवज में विदेशी कंपनियों से उन्हें मोटी रकम भी मिल रही है। इससे सरकार सचेत हुई और मेडिकल कॉलेज डीन डॉ. एमके सारस्वत को तगड़ी फटकार मिली। एक बार फिर से जानकारी तैयार की गई लेकिन इससे भी भोपाल संतुष्ट नहीं हुआ। आखिर में विस्तृत ब्यौरा भेजा गया है, जिसमें ïट्रायल और इसके हिसाब की जानकारी है।

कई तथ्य छुपाए
सूत्रों का कहना है कि अभी भी कॉलेज ने कई तथ्यों को छुपा लिया है। यह नहीं बताया गया है कि जिन मरीजों प्रयोग किए गए, उनकी वर्तमान हालत क्या है? क्या उन पर दवा प्रयोग से विपरीत प्रभाव पड़ा? क्या मरीजों को ट्रायल के खतरों की जानकारी दी गई? कुछ डॉक्टरों ने यह जानकारी भी छुपा ली है कि वे निजी अस्पतालों में जानकर ट्रायल करते हैं।

 


भोपाल करेगा डॉ. भार्गव की जांच
- इंदौर के प्रबंधन पर नहीं भरोसा

एमवाय अस्पताल अधीक्षक डॉ. सलिल भार्गव द्वारा ज्ञानपुष्प रिसर्च सेंटर में खड़ा किया गया करोड़ों का ड्रग ट्रायल के कारोबार की जांच भोपाल के अधिकारी करेंगे। एमजीएम मेडिकल कॉलेज के लचर रवैय्ये को देखते हुए यह फैसला किया गया है।

'पत्रिकाÓ ने खुलासा किया था कि डॉ. भार्गव ने सरकार को अंधेरे में रखकर तीन वर्ष में ड्रग ट्रायल का बड़ा धंधा शुरू कर दिया है। इसके लिए उन्होंने धार कोठी स्थित अपने घर के पास ही ज्ञानपुष्प रिसर्च सेंटर खोला है। यहां वे दमा को रोगियों पर पांच अलग-अलग कंपनियों की दवाइयों के प्रयोग करते हैं और इसके एवज में उन्हें मोटी रकम मिलती है। भोपाल पदस्थ सूत्रों के मुताबिक डॉ. भार्गव की जांच के लिए सचिव स्तर के किसी अधिकारी को नियुक्त किया जा सकता है।

डॉ. भार्गव पर आरोप
- पूर्णकालिक अधीक्षक होने के नाते प्रायवेट प्रेक्टिस की अनुमति नहीं फिर भी कर रहे ड्रग ट्रायल।
- खुद लिप्त इसलिए एमवाय अस्पताल को भी खुले आम ट्रायल का केंद्र बनने दिया। 
- सरकार को भेजे संपंत्ति के ब्यौरे में ज्ञानपुष्प रिसर्च सेंटर का जिक्र नहीं किया।


अन्य डॉक्टर भी घेरे में
मनोरोग विभाग के डॉ. रामगुलाम राजदान, डॉ. अभय पालीवाल, डॉ. उज्जवल सरदेसाई और मेडिसीन के डॉ. अतुल शेंडे ने भी डॉ. भार्गव की तर्ज पर निजी अस्पतालों में जाकर ट्रायल के गोरखधंधे में व्यारे-न्यारे किए हैं। इन्हें भी सरकार शिकंजे में लेगी।


'मैं इस बारे में कुछ नहीं कह सकता हूं। वरिष्ठ अधिकारियों से चर्चा के बाद ही कार्रवाई होगी।Ó
- डॉ. एमके सारस्वत, डीन, एमजीएम मेडिकल कॉलेज

News in Patrika on 19th July 2010

ड्रग ट्रायल का हिसाब-किताब ही नहीं

गरीब मरीज निशाने पर परंतु केंद्र-राज्य में से कोई नहीं कर रहा निगरानी
विदेशाी कंपनियों से तीन वर्ष में पूरे देश में फैलाया देशभर में नेटवर्क 



बरसों से हिंदुस्तानियों पर विदेशी कंपनियां ड्रग ट्रायल के नाम पर 'गुमनामÓ दवाइयों का प्रयोग कर रहे हैं, लेकिन इन कंपनियों से आने वाले धन का न तो केंद्र सरकार के पास और न ही राज्य सरकार के पास कोई हिसाब है। एक अनुमान के मुताबिक वर्तमान में भारत में 1500 करोड़ का कारोबार जारी है, जो 2012 तक बढ़कर 2760 करोड़ तक पहुंचेगा। ताज्जुब तो यह है कि देशभर में ट्रायल करने वाले डॉक्टरों की कभी पड़ताल भी नहीं की गई, जबकि ये देश के गरीब और अनपढ़ मरीजों को अपना निशाना बनाते हैं।

विदेशी कंपनियों ने तीन वर्ष में पूरे देश में नेटवर्क फैलाया है। केंद्र सरकार में उपलब्ध आंकड़े बताते हैं देश में चारों चरणों (फेज वन से फोर) तक के ट्रायल चलते हैं। फेज वन और टू के ट्रायल जानलेवा हैं और इससे मरीज की जान भी जा सकती है। वर्ष 2009 में ही फेज वन की 33 और फेज टू की 53 ट्रायल हुई हैं। सबसे अधिक कारोबार महाराष्टï्र में हो रहा है। कर्नाटक और आंध्रप्रदेश दूसरे-तीसरे स्थान पर हैं। शहरों में बैंग्लूर सबसे आगे है। पूणे और मुंबई इसके बाद आते हैं।

मप्र में इंदौर, राजस्थान में जयपुर गढ़
विदेशी कंपनियों ने मप्र में इंदौर और राजस्थान में जयपुर को गढ़ बनाया है। वर्ष 2006 से 2009 तक इंदौर में क्रमश: तीन, दो, 13 और 38 ट्रायल हुए हैं, जबकि जयपुर में तीन, 11, 36 और 70 ट्रायल हुए हैं।

मौतें भी हुई
ट्रायल जानलेवा होती हैं, लेकिन इसकी आधिकारिक जानकारी किसी के पास नहीं है। जन स्वास्थ्य अभियान जैसे कुछ संगठनों ने अपने स्त्रोतों से जो जानकारी जुटाई है, वह बेहद चौंकाने वाली है। इसके मुताबिक 2007 में 132, 2008 में 229 और 2009 में 308 लोग ट्रायल का शिकार हुए हैं।

सुविधा से बना ली एथिकल कमेटी
ड्रग एंड कॉस्मेटिक अधिनियम के मुताबिक दवा प्रयोग के लिए एथिकल कमेटी से अनुमति लेना अनिवार्य होता है, लेकिन इन कमेटियों पर ही सवाल खड़े हो रहे हैं। सरकारी क्षेत्र में कमेटियों में वे ही लोग सदस्य हैं जो ट्रायल कर रहे हैं, जबकि निजी क्षेत्र में कमेटी के सदस्यों के नाम ही जगजाहिर नहीं किए गए हैं।


कोई जानकारी नहीं

ड्रग ट्रायल के बारे में हमारे विभाग के पास कोई जानकारी नहीं है। न तो हमें ट्रायल की जानकारी है और न ही इससे प्रभावित होने वाले मरीजों की। मामले में कितनी राशि आती-जाती है, इसके बारे में भी कोई रिकॉर्ड उपलब्ध नहीं है।
- राकेश श्रीवास्तव, ड्रग कंट्रोलर, मध्यप्रदेश

बस रजिस्ट्रेशन करते हैं

ट्रायल के लिए रजिस्ट्रेशन करना हमारा काम होता है। इसके बाद हम निगरानी नहीं करते हैं। ट्रायल के लिए एथिकल कमेटियां सर्वाधिक जिम्मेदार हैं। कितना रूपया आता है, इसकी हमारे विभाग के पास कोई जानकारी नहीं होती।
- डॉ. आभा अग्रवाल, डिप्टी डायरेक्टर, क्लिनिकल ट्रायल्स रजिस्ट्री इंडिया



News in Patrika on 18th July 2010

बेहद चतुराई से रोगी को बनाते सब्जेक्ट

ड्रग ट्रायल का गोरखधंधा: फ्री दवाई का लालच देकर जीतते हैं भरोसा


विदेशी कंपनी की दवा को बाजार में उतारने से पहले उसे रोगियों पर आजमाने की विद्या 'ड्रग ट्रायलÓ का जाल बेहद चतुराई से फैलाया जाता है। रोगी को मुफ्त दवाई के लालच से फांसा जाता है और कहा जाता है कि उसे एक प्रोजेक्ट में हिस्सेदार बनाया जा रहा है। प्रोजेक्ट के कुछ कागजों पर उससे साइन लिए जाते हैं और शुरू हो जाती है ड्रग ट्रायल।

शहर के कुछ प्रबुद्ध डॉक्टरों ने 'पत्रिकाÓ को बताया जब कोई जरूरतमंद मरीज अस्पताल में आता है  तो उसे कहा जाता है कि डब्ल्यूएचओ भारत के गरीब मरीजों की मदद करता है और उसी से जुड़ा एक कार्यक्रम अस्पताल में चल रहा है। इस कार्यक्रम में आपको शामिल होना है, तो कुछ कागज साइन करना होंगे। इससे आपको मुफ्त दवा मिलना शुरू हो जाएगी। साथ ही जांचें भी फ्री होंगी। मरीज को लगता है इससे अच्छा क्या होगा। उसके राजी होते ही ताबड़तोड़ एक फाइल बनाई जाती है और उससे साइन करवा लिए जाते हैं। फाइल में मरीज का नाम खत्म हो जाता है और उसे एक नंबर दे दिया जाता है। यहीं से वह मरीज से 'सब्जेक्टÓ (विषय) बन जाता है और विदेशी दवा कंपनी की अज्ञात दवा से उसका इलाज शुरू होता है। यह ऐसी दवा होती है, जो केवल संबंधित डॉक्टर के पास ही होती है, बाजार में नहीं मिलती है।

चूंकि सब्जेक्ट से डॉक्टर को बेहद मोटी कमाई होती है, इसलिए उसका विशेष ध्यान रखा जाता है। समय समय पर उसे फोन करके अस्पताल बुलाते हैं। जांच करवाते हैं और कभी-कभी फलों का रस भी पिलाते हैं। कई बार इलाज के दौरान मरीज की तबीयत बिगड़ जाती है, तो कहा जाता है यह सामान्य बात है।


बीमा करवाते हैं, लेकिन क्लेम नहीं दिलवाते
ट्रायल के नियमों के मुताबिक रोगी उर्फ सब्जेक्ट का बीमा करवान अनिवार्य है। डॉक्टर इसका पालन करते हैं, लेकिन जब रोगी की तबीयत बिगड़ती है या उसकी मौत हो जाती है, तो उसे क्लेम नहीं दिलवाया जाता है। दरअसल, क्लेम देने की स्थिति में परिजन पूछ सकते हैं दवा के कारण मौत हुई है क्या? यही वजह है कि इससे बचने के लिए यह तरीका अपनाया जाता है। बीच में मौत होने पर डॉक्टर सब्जेक्ट नंबर वही रहने देते हैं और मरीज बदल देते हैं।

निजी बैंकों में आती रकम
ट्रायल से आने वाली राशि आमतौर पर निजी बैंकों के जरिए आती है, ताकि सरकार एकदम से निगरानी न कर सके। इसके लिए ट्रायल करने वाले डॉक्टरों ने पति या पत्नी या बच्चों के नाम से खाते खुलवा रखे हैं। 


बचने के लिए यह करें मरीज
- डॉक्टर से बीमारी और दवा दोनों के बारे में पूरी जानकारी लें।
- किसी कागज पर साइन करवाएं तो उसकी फोटोकॉपी अवश्य लें।
- मुफ्त में ऐसी ही दवाई लें, जो बाजार में भी बिकती हो।
- इलाज के दौरान तबीयत बिगड़े तो किसी दूसरे डॉक्टर से संपर्क करें।
- कोई जोर-जबरदस्ती करे तो ड्रग एंड कॉस्मेटिक एक्ट के तहत शिकायत दर्ज करें।


हर डॉक्टर नहीं करता ट्रायल
ट्रायल में शहर के चंद डॉक्टर ही शामिल हैं, शेष डॉक्टर सेवा के इस पवित्र पेशे का मान बढ़ा रहे हैं। वरिष्ठ डॉक्टरों की राय है कि ट्रायल करने वालों के कारण पूरी बिरादरी कटघरे में है और इनसे लोगों को सचेत किया जाना जरूरी है।



चीफ जस्टिस तक शिकायत
- ड्रग ट्रायल के विरोध में सक्रिय हुआ डॉक्टरों का संगठन

ड्रग ट्रायल करने वाले डॉक्टरों के खिलाफ शनिवार को राष्टï्रपति, राज्यपाल, मप्र के चीफ जस्टिस और मानवाधिकार आयोग को शिकायत भेज दी गई। डॉक्टरों से जुड़े एक संगठन ने यह पहल की है। संगठन का कहना है कि चंद डॉक्टरों के कारण पूरी बिरादरी बदनाम हो रही है। डॉक्टरी सेवा का पेशा है और ट्रायल एक धंधा है। इससे मनुष्यों के अधिकारों का हनन हो रहा है।

संगठन का नाम स्वास्थ्य समर्पण सेवा है, जिसके सभी सदस्य मेडिको (डॉक्टर) हैं। संगठन प्रमुख डॉ. आनंदसिंह राजे ने बताया ड्रग ट्रायल के जरिए मरीजों की जान जोखिम में डाली जा रही है। इससे संविधान द्वारा प्रदत्त जीवन का अधिकार खतरे में है। ट्रायल में कई किस्म की आर्थिक अनियममितताएं भी होती हैं। यही वजह है कि सभी स्थानों पर शिकायत भेजी गई है। इस मामले में राज्य सरकार का रूख बेहद लजर है, जबकि राज्य के लोग खतरे में है।

पत्रिका की खबरों का आधार
संगठन ने शिकायत में पत्रिका की खोजपरक खबरों का जिक्र भी किया है। डॉ. राजे ने बताया अखबार ने इस मुद्दे को छेड़कर समूचे चिकित्साजगत के कान खड़े कर दिए हैं। कई डॉक्टरों को पता ही नहीं था कि इलाज के नाम पर यह गोरखधंधा भी चल रहा है।

News in Patrika on 18th July 2010

एमवायएच अधीक्षक ने खोला ट्रायल अस्पताल

तभी तो नहीं होती दूसरों पर कार्रवाई सरकार को रखा अंधेरे में

एमवायएच में आने वाले गरीब और जरूरतमंद मरीजों को चूहा मानकर विदेशी कंपनियों की दवाइयों का इस्तेमाल पर रोक लगाने के लिए जिम्मेदार डॉक्टर ही इस गोरखधंधे में लिप्त है। अस्पताल अधीक्षक ने ड्रग ट्रायल के लिए अपने घर के पास एक रिसर्च सेंटर खोला और इसमें धड़ल्ले से ट्रायल होती है। इसके लिए उन्होंने न तो सरकार के अनुमति ली है और न ही कमाई का खुलासा किया। 

एमवायएच अधीक्षक डॉ. सलिल भार्गव 76, धार कोठी पर ज्ञानपुष्प रिसर्च सेंटर फॉर चेस्ट एंड एलर्जी डिसीसेज नाम का सेंटर खोला है। क्लीनिकल ट्रायल्स रजिस्ट्री ऑफ इंडिया (सीटीआरआई) के रिकॉर्ड के मुताबिक डॉ. भार्गव वर्तमान में पांच ड्रग ट्रायल कर रहे हैं। ट्रायल प्रोजेक्ट दो करोड़ से अधिक के होने का अनुमान है।
सरकार को भेजी झूठी जानकारी
डॉ. भार्गव ने राज्य सरकार को बताया है कि उन्होंने 2005 से 08 तक सीओपीडी और डायबिटीक नेफ्रोपेथी से जुड़े ट्रायल में 43 मरीजों पर 4.5 लाख रुपए का कारोबार किया, जबकि सीटीआरआई का रिकॉर्ड उनकी कलाई खोल रहा है।

हां, मेरा ही है ज्ञानपुष्प सेंटर

प्र- ज्ञानपुष्प सेंटर से आपका क्या ताल्लुक है?
उ- वह मेरा ही है और मैं वहां प्रेक्टिस करता हूं।
प्र- आपको तो प्रेक्टिस की अनुमति नहीं है?
उ- मैं नॉन प्रेक्टिसिंग एलाउंस नहीं लेता हूं, इसलिए प्रेक्टिस करता हूं।
प्र- इस पर ड्रग ट्रायल्स होते हैं?
उ- हां, कुछ होता है, लेकिन इसकी जानकारी आपको किसने दी।
प्र- वहां पांच ट्रायल चल रहे हैं और सरकार को जानकारी नहीं दी गई?
उ- सरकार ने बस सरकारी अस्पताल की जानकारी मांगी, जो दे दी है। पांच ट्रायल चल रहे हैं।
प्र- क्या आप अस्पताल में चल रहे ट्रायल को बचा रहे हैं?
उ- नहीं, इस बारे में मैं डीन से बात कर रहा हूं। वे कहेंगे तो कार्रवाई होगी।
(एमवायएच अधीक्षक डॉ. सलिल भार्गव से चर्चा)


दमा रोगियों पर डॉ. भार्गव का दांव
- मार्च 2009 से फैलाया जाल 
एमवायएच अधीक्षक डॉ. सलिल भार्गव दमा के रोगियों पर ट्रायल करते हैं। वैसे तो वे 2005 से ही इस मामले में जुड़े हैं, लेकिन मार्च 2009 से ïवे पूरी तरह इस कारोबार में जुट गए।

डॉ. भार्गव के पांच ट्रायल

एक -
7 मार्च 2009 से सिवीयर अस्थमा रोगियों पर सिप्ला कंपनी के लिए इन्हेलर का ट्रायल। स्वयं प्रिंसीपल इन्वेस्टिगेटर। अंडर में देश के दूसरे 14 अस्पतालों में ट्रायल जारी।

दो -
21 अप्रैल 2009 से सिवीयर अस्थमा रोगियों पर यूके की मुंडीफार्मा कंपनी के लिए ट्रायलशुरू किया। इसमें प्रिंसीपल इन्वेस्टिगेटर डॉ. विवेक मल्होत्रा है।

तीन-
2 मई 2009 से सीओपीडी (क्रोनिक ऑब्सट्रक्टिव्ह पल्मोनरी डिसीस) रोग के लिए विदेशी कंपनी बोहरिंगर इंगेलहिम फार्मास्यूटिकल्स कंपनी की गोली और इन्हेलर का ट्रायल शुरू किया। डॉ. पूजा अग्रवाल उनकी प्रिंसीपल इन्वेस्टिगेटर है।

चार -
6 जून 2009 से ब्रोंकियल अस्थमा के लिए केडिला हेल्थकेयर के लिए 10 मिली ग्राम की गोली का प्रयोग शुरू किया। डॉ. रविंद्र मित्तल उनके प्रिंसीपल इन्वेसिटगेटर हैं।

पांच -
14 अप्रैल 2010 से अस्थमा रोगियों के लिए यूके की कंपनी मुंडीफार्मा रिसर्ज के लिए ट्रायल शुरू किया। डॉ. अताली शेख उनकी प्रिंसीपल इन्वेस्टिगेटर है।

अपराध पर अपराध
- पूर्णकालिक अधीक्षक होने के नाते प्रायवेट प्रेक्टिस की अनुमति नहीं फिर भी कर रहे ड्रग ट्रायल।
- खुद लिप्त इसलिए एमवाय अस्पताल को भी खुले आम ट्रायल का केंद्र बनने दिया।
- सरकार को भेजे संपंत्ति के ब्यौरे में ज्ञानपुष्प रिसर्च सेंटर का जिक्र नहीं किया।

दूसरों को संरक्षण
एमवायएच के कई कमरों में गुपचुप तरीके से ट्रायल का धंधा चल रहा है। 'पत्रिकाÓ के खुलासे के बावजूद प्रबंधन इन पर कोई कार्रवाई नहीं कर रहा है। माना जा रहा है कि डॉ. भार्गव के संरक्षण में ही यह कारोबार फल-फूल रहा है।



ताबड़तोड़ हुई एथिकल कमेटी की बैठक

- खंगाले नियम कायदे, हिसाब की जानकारी भी मांगी
अप्रमाणिक दवाई गरीब और अनपढ़ मरीजों पर आजमाने के खेल 'ड्रग ट्रायलÓ को अनुमति देने वाली एमजीएम मेडिकल कॉलेज की एथिकल कमेटी की शुक्रवार दोपहर करीब एक बजे ताबड़तोड़ बैठक हुई। कमेटी के स्वतंत्र सदस्यों ने कॉलेज में चल रहे ट्रायल के बारे में विस्तार से जानकारी मांगी और नियम भी खंगाले। करीब दो घंटे की विस्तृत चर्चा के बाद कमेटी मरीजों को अपने हाल पर छोड़कर रवाना हो गई।
पर्यावरणविद् कुट्टी मेनन, अर्थशास्त्री डॉ. जयंतीलाल भंडारी और एडवोकेट योगेश मित्तल के साथ ही कमेटी चेयरमैन डॉ. केडी भार्गव भी बैठक में पहुंचे। गोपनीयता रखने के लिए बैठक एमजीएम मेडिकल कॉलेज के बजाए एमवायएच के चौथी मंजिल स्थित मेडिसीन प्रोफेसर डॉ. अनिल भराणी के कक्ष में हुई। डॉ. भराणी ही कमेटी के सचिव भी हैं। कमेटी ड्रग ट्रायल पर उठ रहे सवालों के जवाब जानना चाहती थी। ट्रायल के नाम पर आने वाली राशि और मरीजों से मुलाकात के प्रश्न भी उठे। कमेटी में आम आदमी शामिल नहीं होने की जिज्ञासा पर ट्रायल कर रहे डॉक्टरों ने समïझाया आम आदमी मतलब नॉन मेडिको (जो डॉक्टर नहीं है) होता है। ड्रग एंड कॉस्मेटिक एक्ट की अनदेखी करके कमेटी भी संतुष्ट हो गई। कमेटी को यह भी बताया गया कि जिन मरीजों पर प्रयोग होता है, उनमें केवल बीपीएल ही नहीं है, कुछ मध्यमवर्गीय लोगों भी शामिल हैं। विधानसभा के सवालों में उलझे होने का बहाना बनाकर अस्पताल अधीक्षक डॉ. सलिल भार्गव बैठक में नहीं पहुंचे। 
पर्यावरणविद् मेनन ने 'पत्रिकाÓ को बताया वैसे तो पहले भी बैठकें होती रही हैं, लेकिन आज हम लोग मीडिया में उठ रहे सवालों के जवाब तलाशने के लिए एकत्रित हुए थे। इसमें सभी विषयों पर चर्चा हुई है। हम मानते हैं कि इसमें और अधिक पारदर्शिता की आवश्यकता है। डॉ. भंडारी ने बताया मैं वैज्ञानिक शोध के पक्ष में हूं और कमेटी में भी यही बात उठी। कुछ बातें कमेटी जानना चाहती थी, जिनके ट्रायल करने वाले सदस्यों ने संतोषजनक जवाब दिए हैं।

आंखों के रोगी भी निशाना
- डॉ. पुष्पा वर्मा के नाम ट्रायल रजिस्टर्ड, काम शुरू नहीं फिर भी हुआ रुपए का आदान प्रदान
एमजीएम मेडिकल कॉलेज के नेत्ररोग विभागाध्यक्ष डॉ. पुष्पा वर्मा ने राज्य सरकार को जानकारी दी है कि वे ड्रग ट्रायल नहीं करती हैं, लेकिन उनके खाते में ट्रायल के नाम पर रुपए का आदान-प्रदान हुआ है। उधर, भारत सरकार का रिकॉर्ड कहता है कि वे 2005 से एमवायएच में आने वाले नेत्र रोगियों पर ट्रायल कर रही हैं। मई 2010 में भी उन्होंने क्यूंटल्स रिसर्च इंडिया मुबंई से टेक्सास की एल्कोन रिसर्च कंपनी के आईड्राप की ट्रायल हाथ में ली है। इस ड्राप की बूंदे वे कंजेक्टेवाइटिस के रोगियों पर आजमाती हैं। उन्होंने 10 नवंबर 2005 और 7 फरवरी 2006 को कुछ सहमति पत्रों पर मरीजों के हस्ताक्षर भी लिए हैं। उनके द्वारा 8 दिसंबर 2007 का क्वंटेल्स रिसर्च इंडिया कंपनी के सीनियर क्लीनिकल रिसर्च एसोसिएट फ्रांसिस विज को लिखे पत्र में इसका जिक्र है। डॉ. वर्मा को इस काम के लिए कुछ राशि भी प्राप्त हुई है।

रुपया तो ट्रेनिंग का मिला था
प्र. ट्रायल से आप इंकार कर रही हैं, जबकि रिकॉर्ड कुछ ओर कहता है?
उ. मैंने ट्रायल के लिए आवेदन दिया था, लेकिन अनुमति नहीं मिली।
प्र. दवा कंपनी ने आपको राशि भी दी है ?
उ. वे तो ट्रेनिंग कार्यक्रम के लिए मिले थे। प्रोजेक्ट तो आया ही नहीं।
प्र. सीटीआरआई ने 21 मई 2010 से आपको एडनोवायरल कंजक्टेवाइटिस में इन्वेस्टिगेटर बताया है?
उ. वह सही है, लेकिन मैंने अभी तक ट्रायल शुरू नहीं किया है। मेरे पास एक भी मरीज रजिस्टर्ड नहीं है।
(डॉ. पुष्पा वर्मा से चर्चा)
 News in Patrika on 17th July 2010

बाले-बाले होते ड्रग ट्रायल के फैसले

एथिकल कमेटी के सचिव डॉ. अनिल भराणी भी कर रहे ट्रायल
एमजीएम मेडिकल कॉलेज में बनी कमेटी की बुनावट पर उठे सवाल


अप्रमाणिक दवाई मरीजों पर आजमाने के खेल 'ड्रग ट्रायलÓ को अनुमति देने वाली एमजीएम मेडिकल कॉलेज की एथिकल कमेटी भी सवालों के घेरे में है। इस कमेटी के सचिव ऐसे डॉक्टर हैं, जो स्वयं ड्रग ट्रायल में शामिल हैं, जबकि ड्रग एवं कास्मेटिक एक्ट के मुताबिक ऐसा नहीं किया जा सकता।
 
एथिकल कमेटी के सचिव डॉ. अनिल भराणी है। वे मेडिसीन विभाग के प्रोफेसर भी हैं। वे 2005 से अब तक 237 मरीजों पर करीब 44 लाख की ट्रायल कर चुके हैं। दिल के रोगियों पर हो रहे उनके ट्रायल में डॉ. अपूर्व पुराणिक, आशीष पटेल, सोनल पगारे भी भागीदार रहे हैं।

आम आदमी भी नहीं रखा
कानून में स्पष्ट है कि कमेटी में पांच नॉन मेडिको (जो डॉक्टर न हों) प्रतिनिधि रहें। इसमें एक आम आदमी होना चाहिए। वर्तमान में रिटायर्ड जस्टिस पीडी मूल्ये, पर्यावरणविद कुट्टी मेनन, अर्थशास्त्री डॉ. जयंतीलाल भंडारी एवं एडवोकेट योगेश मित्तल चार ही सदस्य हैं। सामान्य व्यक्ति कोई नहीं है।

आज तक नहीं देखे मरीज
ट्रायल करने वाले डॉक्टरों ने आज तक किसी मरीज से कमेटी सदस्यों से मुलाकात नहीं करवाई है। कुट्टी मेनन कहते हैं केवल दवा और दवा कंपनियों की जानकारी दी जाती है। आज तक किसी मरीज से नहीं मिले। 

गोपनीयता का हथकंडा
ट्रायल के गोरखधंधे का खुलासा किए जाने के बाद इसमें लिप्त लोगों ने गोपनीयता को अपना हथियार बनाना शुरू कर दिया है। एथिकल कमेटी ने एमजीएम मेडिकल कॉलेज डीन को पत्र लिखकर गुहार लगाई है कि ट्रायल की पूरी जानकारी देने को लोग तैयार हैं, लेकिन जानकारी गोपनीय रखी जाए। कमेटी के इस प्रस्ताव से सेंट्रल ट्रायल्स रजिस्ट्री इंडिया (सीटीआरआई) के उस नियम का मजाक उड़ रहा है, जिसका गठन ही ट्रायल को पूरी तरह पारदर्शी बनाने के लिए हुआ। 

अपने ट्रायल में वोट नहीं करता
जब मेरे ड्रग ट्रायल के बारे में विचार होता है, तो मैं राय नहीं देता हूं और न ही किसी मसले पर वोट ही करता हूं। कमेटी में एक सामान्य व्यक्ति का जो प्रस्ताव है, उसका अर्थ नॉन-मेडिको होता है और ऐसे व्यक्ति को हमने कमेटी में रखा है। वह फार्मेकोलॉजी का प्रोफेसर भी हो सकता है और कोई सामाजिक सदस्य भी।
- डॉ. अनिल भराणी, सचिव, एथिकल कमेटी, एमजीएम मेडिकल कॉलेज


क्या करें...में उलझा एमजीएम
दो जिज्ञासु विधायकों के सवालों से एमजीएम मेडिकल कॉलेज में भारी उथल-पुथल हो गई है। ड्रग ट्रायल से जुड़े सवालों के जवाब से प्रोफेसरों को कैसे बचाएं, इसी गहमागहमी में गुरुवार को रात आठ बजे तक मेडिकल कॉलेज में काम चलता रहा। संभवत: शुक्रवार सुबह एक व्यक्ति को जानकारी से साथ भोपाल रवाना किया जाएगा। कॉलेज चाहता था कि फैक्स से जानकारी भेजी जाए, लेकिन संचालक चिकित्सा शिक्षा ने ऐसा करना से इंकार कर दिया। मेडिकल कॉलेज डीन डॉ. एमके सारस्वत ने इस बारे में कुछ भी कहने से इंकार किया।

News in Patrika on 16th July 2010

बुधवार, जुलाई 21, 2010

मरीजों के साथ जानलेवा धोखाधड़ी

 - ड्रग ट्रायल का गोरखधंधा
- सहमति पत्र में नहीं होता दवा प्रयोग का जिक्र

एमजीएम मेडिकल कॉलेज से जुड़े अस्पतालों में चल रहे ड्रग ट्रायल के गोरखधंधे में यहां आने वाले रोगियों के साथ जानलेवा धोखाधड़ी की जा रही है। ट्रायल में जुड़े डॉक्टर मरीज से जिस सहमति पत्र पर हस्ताक्षर करवाते हैं, उसमें दवा प्रयोग का जिक्र ही नहीं होता है। मरीज बस यही जानता है कि डॉक्टर साहब कोई पढ़ाई कर रहे हैं।
ड्रग ट्रायल में लिप्त डॉक्टरों का तर्क रहा है कि मरीज को भरोसे में लेकर ही प्रयोग शुरू करते हैं, लेकिन उनके इस दावे की पोल सूचना का अधिकार ने खोल दी। 'पत्रिकाÓ के मौजूद दस्तावेजों में स्पष्ट है कि रोगी से जिन पांच बिंदुओं पर सहमति ली जाती है, उनमें ड्रग ट्रायल शब्द ही नहीं रहता है।


सहमति पत्र के पांच बिंदु
- पुष्टि करता हूं सूचना पत्र पढ़ लिया है।
- भागीदारी स्वैच्छिक है और ïकानूनी बंधन में नहीं हूं।
- मेरी जानकारी जगजाहिर नहीं की जाएगी।
- अध्ययन की जानकारी पर अधिकार नहीं जताऊंगा।
- अध्ययन में भाग लेने के लिए सहमत हूं।


एथिकल कमेटी भी अंधेरे (?) में

'जानकारी नहीं है कि सहमति पत्र में ड्रग ट्रायल का जिक्र नहीं है। हमें इस पर ध्यान देना था। मरीज को पता होना अत्यंत आवश्यक है कि उस पर प्रयोग हो रहा है।Ó
- कुट्टी मेनन, पर्यावरणविद् एवं सदस्य एथिकल कमेटी

'ट्रायल के तय मापदंडों का पालन होना चाहिए। मैं पूछूंगा कि सहमति पत्र में ट्रायल का जिक्र क्यों नहीं होता? हमें दवा और उसके असर की जानकारी देते हैं, लेकिन राशि के बारे में कुछ नहीं बताया जाता है।Ó
- डॉ. जयंतीलाल भंडारी, अर्थशास्त्री एवं सदस्य एथिकल कमेटी


एथिकल कमेटी की बुनावट

अध्यक्ष -
प्रो. केडी भार्गव, रिटायर्ड प्रोफेसर, एमजीएम मेडिकल कॉलेज

सचिव -
प्रो. अनिल भराणी, प्रोफेसर, मेडिसीन विभाग

न्याय व सामाजिक क्षेत्र के प्रतिनिधि -
रिटायर्ड जस्टिस पीडी मूल्ये, पर्यावरणविद कुट्टी मेनन, अर्थशास्त्री डॉ. जयंतीलाल भंडारी, एडवोकेट योगेश मित्तल

साइंटिफिक कमेटी- 
इसमें कॉलेज के करीब 20 प्रोफेसर 


15 जुलाई को पत्रिका में प्रकाशित

ये कैसे अस्पताल

एमवायएच, चेस्ट सेंटर और चाचा नेहरू अस्पताल में प्रशासन की अनुमति के बगैर संचालित हो रहे ऑफिस
कई बाहरी लोग महीनों से कर रहे काम, फैक्स, टेलिफोन की भी नहीं ली अनुमति
ड्रग ट्रायल का गोरखधंधा

निर्माणाधीन केमिकल फार्मूले (दवा) के मरीजों पर प्रयोग के लिए एमजीएम मेडिकल कॉलेज से जुड़े तीन अस्पतालों में ऐसे दफ्तर खुले हैं, जो ड्रग ट्रायल के केंद्र हैं। इनमें करीब तीन दर्जन लोग काम करते हैं, जिन्हें ड्रग ट्रायल करने वाले डॉक्टर ही तनख्वाह देते हैं। इन दफ्तरों में कम्प्यूटर, स्केनर, प्रिंटर के साथ ही फैक्स और अलग से लैंड लाइन फोन भी लगे हैं। इस सबकुछ के लिए किसी से भी इजाजत नहीं ली गई।
कैमरा देखते ही भागखड़े हुए

एक
चेस्ट सेंटर के एक कोने में बने कमरा नंबर छह में पल्मोनरी फंक्शन लेब में ड्रग ट्रायल होता है। इसमें किसी को झांककर देखने की अनुमति भी नहीं है। कैमरा देखते ही काम कर रहे संजयसिंह चौहान ने कमरा बंद कर लिया और मेडिसिन विभाग के जूनियर डॉक्टर को बुलाने भागा। डॉक्टर ने कहा इन्हें कमरे में मत जाने देना। संजय ने बताया मैं यहां डॉक्टर साहब का काम करता हूं।

दो
एमवाय अस्पताल की तल मंजिल स्थित डॉ. अपूर्ण पुराणिक के चेंबर के बाहर वाले कमरे में बक्सों के ठेर रखे हुए हैं। विदेशों से दवाइयां इन्हीं में पैक होकर यहां पहुंचती है। उनके कर्मचारियों ने बताया अंदर तो फैक्स और टेलिफोन भी लगे हैं। इसकी जानकारी एमवायएच अस्पताल प्रबंधन को दे रखी है।

तीन
एमवायएच की चौथी मंजिल के कमरा नंबर 419 बी में तीन से चार एवजी काम करते हैं। कमरे का दरवाजा खुलते ही बंद हो जाता है। कैमरा देखते ही राकेश नाम के कर्मचारी ने कहा यहां फोटो मत खींचो। उसने अपने चेहरे को हाथ से दबाने की कोशिश भी की। बाहर निकलते हुए अरविंद खुद को ईसीजी टेक्नीशिन बताता है। फोटो लेने पर भागकर पास के ही एक कमरे में जाकर वहां मौजूद जूनियर डॉक्टरों को बताता है। वे बाहर आकर मोबाइल लगाना शुरू कर देते हैं।

 चार
चाचा नेहरू बाल चिकित्सालय के कमरा नंबर 14 में दो युवतियां और चार युवक कार्यरत थे। वहां से फाइलों से भरे बक्सों को बाहर किया जा रहा था। मौजूद आशीष दुबे ने विरोध किया आप किसकी अनुमति से फोटो खींच रहे हैं। जब उनसे प्रतिप्रश्न हुआ आप किसकी अनुमति से यहां काम कर रहे हो, तो वे चुप हो गए। उन्होंने तत्काल कर्मचारी को कहा कमरा बंद कर लो।


संजय नाम का कोई व्यक्ति हमारा कर्मचारी नहीं है और न ही किसी को फैक्स या टेलीफोन लगाने की अनुमति दी गई है।
- डॉ. एम. हरगुनानी, अधीक्षक, चेस्ट सेंटर

हमारे यहां वैक्सीन पर ड्रग ट्रायल हो रहा है और इसी के दस्तावेजी काम के लिए कुछ नॉन मेडिको लोग काम करे हैं। वे हमारे कर्मचारी नहीं है।
- डॉ. शरद थोरा, अधीक्षक, चाचा नेहरू बाल चिकित्सालय

मुझे जानकारी नहीं है कि अस्पताल में कोई गैर व्यक्ति भी कार्यरत है। अस्पताल में किसी ने अलग से फैक्स या टेलिफोन लगा रखे हैं, तो यह अवैधानिक है। मुझसे किसी ने भी इजाजत नहीं ली है।
- डॉ. सलिल भार्गव, अधीक्षक, एमवाय अस्पताल

मुझे अभी तक किसी ने जानकारी नहीं दी है। इस संबंध में मैं अस्पताल अधीक्षकों से पूछताछ करूंगा।
- डॉ. एमके सारस्वत, डीन, एमजीएम मेडिकल कॉलेज

उठते सवाल
- अस्पताल के मरीजों की सुरक्षा के लिए क्या इंतजाम किए गए हैं?
- महीनों से अनजान लोग अस्पताल में काम कर रहे हैं, फिर भी अनदेखी क्यों की गई?
- दफ्तरों में हो रहे बिजली खर्च के लिए कौन है जिम्मेदार?




शोध के नाम पर धोखा


एमजीएम मेडिकल कॉलेज के जूनियर डॉक्टर ड्रग ट्रायल को अपने शोध का विषय बताकर पेश कर रहे हैं। कॉलेज की ही एक प्रोफेसर ने इसकी पुरजोर विरोध भी किया है। उन्होंने कहा है यह शोध नहीं है, बस ट्रायल है। इसमें पीजी छात्रों को नहीं जुडऩा चाहिए।
जनवरी 2009 में कॉलेज काउंसिल की बैठक में थीसिस रिव्यू कमेटी की चेयरमैन डॉ. प्रीति तनेजा ने ड्रग ट्रायल का मसला उठाते हुए कहा था कि पीजी छात्र ट्रायल को रिसर्च की तरह पेश कर रहे हैं, जबकि इसकी इजाजत नहीं है। इस पर तत्काल बंदिश लगना चाहिए। डॉ. तनेजा का विरोध कुछ दिन चर्चा में रहा और बाद में इस कार्य में शामिल कुछ प्रोफेसर ने कॉलेज डीन कक्ष के सामने वाले हॉल में रंगरोगन, टाइल्स और कुलर का इंतजाम करवाकर मामला शांत कर दिया।

इन विभागों में सबसे अधिक ट्रायल
मेडिसिन, आर्थोपेडिक्स, नेत्ररोग, शिशु रोग, न्यूरोलॉजी, चेस्ट और सर्जरी विभागों में ड्रग ट्रायल सर्वाधिक होते हैं। कैंसर अस्पताल में भी कुछ कंपनियों के प्रस्ताव लंबित हैं।

दवा कंपनियां व संस्थाएं
पेनेशिया बायोटेक, मर्क शॉप एण्ड डोम, नोवर्टिस, एलजी लाइफ साइंस, जॉन्सन एण्ड जॉन्सन, सिरम इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया, क्रूसिल, नोवर्टिस, फॉरेडिल, इनहेल्ड मोमेटेसोन फ्यूरेट, फॉर्मेट्रॉल कॉम्बीनेशन और फॉर्मेट्रॉल, टेलावेंसीन वर्सेस वेन्सोमायसिन, ऑस्ट्रेलियन मेडिकल काउंसिल, सेंट जोंस मेडिकल कॉलेज बैंग्लूरू, मैक मास्टर यूनिवर्सिटी कनाड़ा, केडिला फार्मास्यूटिकल्स, बीएमएस, पीपीडी, सर्वियर, ड्यूक मेडिकल यूनिवर्सिटी, सेंक्यो फार्मा डेवलपमेंट, नोवर्टिस।


एक प्रोफेसर उठा चुकी हैं मुद्दा
जनवरी 2009 में कॉलेज काउंसिल की बैठक में थीसिस रिव्यू कमेटी की चेयरमैन डॉ. प्रीति तनेजा ने ड्रग ट्रायल का मसला उठाते हुए कहा था कि पीजी छात्र ट्रायल को रिसर्च की तरह पेश कर रहे हैं, जबकि इसकी इजाजत नहीं है। इस पर तत्काल बंदिश लगना चाहिए। यह बात कुछ दिन चर्चा में रही और बाद में सांठगांठ में शामिल कुछ डॉक्टरों ने कॉलेज डीन कक्ष के सामने वाले हॉल में रंगरोगन, टाइल्स और कुलर का इंतजाम करवा दिया।

एक वर्ष में दस जूडॉ को विदेश यात्रा
ड्रग ट्रायल के धंधे में विदेशों में जाकर दवा के असर की रिपोर्ट पेश करना होती है। सरकारी सेवा में होने के कारण सिनीयर कंसल्टेंट बगैर अनुमति के नहीं जा सकते हैं, इसलिए वे अपने मातहत पढ़ाई कर रहे जूनियर डॉक्टरों को भेजते हैं। सूत्रों के मुताबिक एक वर्ष में दस से अधिक जूडॉ विदेश जा चुके हैं। डॉ. सचिन सेठी, गौरव मोहन, प्रोमिता चौधरी, दीलिप सिंह, मयंक जैन, आशीष जैन, प्रज्ञा जैन, मीना ढोले, अब्दुल मंसूर, वरुण कटारिया इनमें शामिल हैं। इनमें से कुछ अब कॉलेज छोड़ चुके हैं।


(14 जुलाई को पत्रिका में प्रकाशित)
- रिपोर्टर शैलेष दीक्षित से सहयोग

मरीजों को बना दिया चूहा

- ड्रग ट्रायल के नाम पर एमजीएम मेडिकल कॉलेज के अस्पतालों में गोरखधंधा
- 5  वर्ष में 6 डॉक्टरों ने 1521 मरीजों पर प्रयोग कर किया 2 करोड़ का करोबार


ड्रग ट्रायल का मतलब
किसी भी दवा या टीके को बाजार में उतारने से पहले उसके प्रभाव को मरीज पर प्रयोग करके देखना ही ड्रग ट्रायल है। विपरीत प्रभाव से इसमें मरीज की जान जाने का खतरा रहता है। 


एमजीएम मेडिकल कॉलेज से जुड़े अस्पतालों में आने वाले मरीज यहां के डॉक्टरों की नजर में चूहे से कम अहमियत नहीं रखते हैं। डॉक्टर विदेशी कंपनियों से मिलकर रोगियों पर दवाइयों और टीकों के डोज इस्तेमाल किए जा रहे हैं। इसके एवज में उन्हें मोटी रकम भी मिलती है। पांच वर्ष में ही छह डॉक्टरों ने ड्रग ट्रायल के नाम पर 1170 बच्चों समेत 1521 मरीजों पर प्रयोग करके दो करोड़ का कारोबार किया। सूत्र बताते हैं कि इसके अलावा भी कई  ऐसी दवाइयां भी इस्तेमाल की जा रही है जिन्हें ड्रग कंट्रोलर जनरल ऑफ इंडिया (डीसीजीआई) ने अनुमति नहीं दी है।  ड्रग ट्रायल पर निगरानी के लिए एक इथिकल कमेटी मौजूद है, उसे केवल दवाइयों और कंपनियां के नाम की ही जानकारी दी जाती है। मरीज कौन है, रुपया कितना आता है और इसका हिसाब कैसे रखा जाता है, यह कमेटी नहीं जानती।


सरकार अनभिज्ञ
ड्रग ट्रायल के हिसाब किताब से राज्य सरकार पूरी तरह अनभिज्ञ है। यहां तक कि कॉलेज प्रबंधन को भी पूरी जानकारी नहीं है कि कौन डॉक्टर किस दवाई के ट्रायल में शामिल है।

इन विभागों में ट्रायल के प्रमाण
मेडिसिन, शिशु रोग, सर्जरी, मनोरोग, नेत्ररोग, आर्थोपेडिक, कम्युनिटी मेडिसिन, रेडियोथैरेपी।

पांच वर्ष में किसने क्या किया

डॉ. हेमंत जैन, प्रोफेसर, शिशु रोग विभाग
राशि- 56  लाख 
अवधि-  2005 से अब तक
मरीज- 1170
रोग - बच्चों में ब्रोंकराइटिस, पोलियो, बीपी, हेपेटाइटिस बी, टीटनेस।

डॉ. अनिल भराणी, प्रोफेसर, मेडिसिन विभाग
राशि- 44 लाख
अवधि- 2005 से अब तक
मरीज - 237
रोग- कोरोनरी सिंड्रोम, विटामिन से लकवा, सेकंड स्ट्रोक, स्टेबल एंजाइमा, हार्ट अटैक। 
(डॉ. अपूर्व पुराणिक, डॉ. आशीष पटेल, डॉ. सोनल पगारे भी भागीदार)

डॉ. अपूर्व पुराणिक, प्रोफेसर, मेडिसिन विभाग
राशि- 42 लाख 
अवधि- 2007 से अब तक
मरीज - 39
रोग- पार्किंसन्स, सिवीयर डेमेंशिया, अलझाइमर।


डॉ. अशोक वाजपेयी, पूर्व एचओडी, मेडिसिन (हाल ही में वीआरएस)
राशि- 41.37 लाख
अवधि- 2005 से अब तक
मरीज - 28
रोग- सीओपीडी, अस्थमा, निमोनिया। 
(एसो. प्रोफेसर संजय अवासिया भी भागीदार)

डॉ. सलिल भार्गव, अधीक्षक, एमवायएच
राशि-4.5 लाख
अवधि- 2005 से 08 तक
मरीज - 43
रोग- सीओपीडी, डायबिटीक नेफ्रोपेथी। 

डॉ. शरद थोरा, एचओडी, शिशु रोग
राशि-  2 लाख।
अवधि - 2007-08
मरीज- चार
रोग- पांच वर्ष तक के बच्चों में ब्लड प्रेशर।


इथिकल कमेटी जिम्मेदार 

ट्रायल की 10 प्रतिशत राशि कहां है?
डॉक्टर अपने विभाग को देते हैं। आंकड़ा मुझे नहीं पता।
 पूरी प्रक्रिया पारदर्शी क्यों नहीं है?
 हिंदी में बने सहमति पत्र पर मरीज के साइन होने के बाद ही ट्रायल होती है।
 मरीज के बजाए आप हिसाब में रूचि ले रहे हैं?
 यह काम इथिकल कमेटी देखती है। सवाल कमेटी से पूछें।
(एमजीएम मेडिकल कॉलेज डीन डॉ. एमके सारस्वत से चर्चा)


कुछ विधायकों के सक्रिय हो जाने के कारण फिलहाल मामला बेहद गरम है, इसलिए अभी इस पर बात नहीं करना चाहता हूं। वैसे भी यह बहुत विस्तृत विषय है और इसे ढंग से समझा जाना चाहिए। इतना जरूर कह सकता हूं, जो ट्रायल ईथिकल कमेटी की मंजूरी से हो रहे हैं, वे डीसीजीआई से स्वीकृत हैं।
- डॉ. केडी भार्गव, चेयरमैन, इथिकल कमेटी, एमजीएम मेडिकल कॉलेज







(14 जुलाई को पत्रिका में प्रकाशित)
- रिपोर्टर शैलेष दीक्षित से सहयोग

दवा आजमाइश के खेल में गुम रोगी

 बिगड़ी तबीयत दुरस्त करवाने के इरादे से डॉक्टर की शरण में जाने वाले रोगी खतरे में है। खतरा भी उस डॉक्टर से जिसे वह भगवान मान रहा है। डॉक्टर मरीज पर मरीज पर ऐसी दवा आजमाने की जल्दी में है, जो बाजार में आई ही नहीं। दवा बनाने वाली विदेशी कंपनी दवा आजमाईश (ड्रग ट्रायल) के एवज में डॉक्टर को मोटी रकम देती है। इस रकम के लालच में डॉक्टर मरीज को चूहा मानकर आजमाईश में जुट चुके हैं। यह काम सरकारी के साथ ही प्रायवेट अस्पतालों और क्लिनिकों में धड़ल्ले से चल रहा है। 


हिंदुस्तानियों को चूहा मानकर विदेशी कंपनियां ड्रग ट्रायल के नाम पर गुमनाम दवाइयों का प्रयोग करके देश के चंद डॉक्टरों की जेबें भर रही हैं, लेकिन केंद्र और राज्य दोनों ही सरकारों के पास इसका कोई लेखा-जोखा उपब्ध नहीं है। देशभर में ट्रायल करने वाले डॉक्टरों की न तो पड़ताल की गई और न ही इसके लिए कोई व्यवस्था बनी है, जबकि ये डॉक्टर देश के गरीब और अनपढ़ मरीजों को अपना निशाना बनाते हैं। एक अनुमान के मुताबिक वर्तमान में ट्रायल का भारत में 1500 करोड़ का कारोबार जारी है, जो 2012 तक बढ़कर 2760 करोड़ तक पहुंच जाएगा। 

बात मध्यप्रदेश की औद्योगिक राजधानी और तेजी से मेडिकल हब के रूप में विकसित होते शहर इंदौर की करें तो पता चलता है कि एमजीएम मेडिकल कॉलेज से जुड़े अस्पतालों में आने वाले मरीज यहां के डॉक्टरों की नजर में चूहे से ज्यादा अहमियत नहीं रखते हैं। देशी-विदेशी दवा कंपनियों में निर्माणाधीन दवा और टीके मरीजों पर धड़ल्ले से इस्तेमाल हो रहे हैं। कंपनियां डॉक्टरों को चुनती हैं और इसके बाद शुरू हो जाता है खेल। पांच वर्ष में ही छह डॉक्टरों ने ड्रग ट्रायल के नाम पर 1170 बच्चों समेत 1521 मरीजों पर प्रयोग करके दो करोड़ का कारोबार किया। सूत्रों के मुताबिक, कई ऐसी दवाओं के प्रयोग भी हो रहे हैं जिन्हें भारत सरकार से अनुमति नहीं है। वैसे तो निगरानी के लिए एथिकल कमेटी (नैतिक समति) है, पर उसे दवाओं व कंपनियां के नाम की ही जानकारी दी जाती है। मरीज, राशि और हिसाब की जानकारी उसे कम ही होती है। कमेटी की अनदेखी का फायदा उठाकर शिशु रोग विशेषज्ञ डॉ. हेमंत जैनï ने ५६ लाख कमाए और ब्रोंकाइटिस, पोलियो, बीपी, हेपेटाइटिस बी, टिटनेस से पीडि़त बच्चों पर प्रयोग कर दिए। दिल के रोगी मेडिसिन प्रोफेसर डॉ. अनिल भराणी, न्यूरोलॉजी से पीडि़त डॉ. अपूर्व पुराणिक, दमे के रोगी डॉ. अशोक वाजपेयी, डॉ. संजय अवासिया व डॉ. सलिल भार्गव, आंखों का मर्ज लेकर आए डॉ. पुष्पा वर्मा और हड्डी चटकने के कारण अस्पताल पहुंचे डॉ. प्रदीप भार्गव के लिए कमाई का जरिया बने। सभी ने दवा आजमाई और लाखों रुपए जुटा लिए। यही हाल निजी अस्पतालों का भी है। टोटल, सीएचएल अपोलो, चोइथराम, चरक, ग्रेटर कैलाश जैसे अस्पतालों में यह धंधा जोरों पर है। कुछ मनोचिकित्सक तो अपने क्लिनिक से यह काम चला रहे हैं।

लगभग ऐसा ही दृश्य दूसरे शहरों और राज्यों का भी है। दरअसल, विदेशी कंपनियों ने क्विंटल और बायोटेक जैसी स्पांसर एजेंसियों के जरिए तीन वर्ष में पूरे देश में नेटवर्क फैला लिया है। केंद्र सरकार के आंकड़े बताते हैं देश में चारों चरणों तक के ट्रायल चलते हैं। सभी जानलेवा हैं, लेकिन फेज वन और टू अधिक खतरनाक हैं। वर्ष 2009 में ही फेज वन की 33 और फेज टू की 53 ट्रायल हुई हैं। सबसे अधिक कारोबार महाराष्टï्र में हो रहा है। कर्नाटक और आंध्रप्रदेश दूसरे-तीसरे स्थान पर हैं। शहरों में बैंगलूरु सबसे आगे है। पूणे और मुंबई इसके बाद आते हैं। इन शहरों में बड़े पैमाने पर ड्रग ट्रायल किए जाते हैं। विदेशी कंपनियों ने मप्र में इंदौर और राजस्थान में जयपुर को गढ़ बनाया है। वर्ष 2006 से 2009 तक इंदौर में क्रमश: तीन, दो, 13 और 38 ट्रायल हुए हैं, जबकि जयपुर में तीन, 11, 36 और 70 ट्रायल हुए हैं। 

वैसे, भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद (आईसीएमआर) ने मरीजों का दवा आजमाइश से बचाने के लिए 2006 में गाइडलाइन बनाई थी। इसमें जिक्र था कि जिस मरीज पर दवा का प्रयोग शुरू होगा, उसे पूरी जानकारी दी जाएगी। यह भी बताया जाएगा कि दवा के विपरीत प्रभाव से उसकी जान भी जा सकती है। अफसोस इस गाइडलाइन का रत्तीभर भी पालन देश में नहीं हो रहा है। राशि ही इतनी मोटी मिलती है कि डॉक्टर बगैर सोचे-समझे प्रयोग करना शुरू कर देता है। केंद्र सरकार द्वारा गठित क्लिनिकल ट्राइल्स रजिस्ट्री इंडिया (सीटीआरआई) में रजिस्ट्रेशन करवाने और दवा कंपनी की मदद के लिए बनाई जाने वाली एथिकल कमेटी से अनुमति लेने के बाद डॉक्टर धड़ाधड़ प्रयोग शुरू कर देता है। उसे किसी का डर भी नहीं है, क्योंकि उसकी निगरानी का न तो राज्यों ने और न ही केंद्र ने कोई इंतजाम किया है। मप्र के ड्रग कंट्रोलर राकेश श्रीवास्तव कहते हैं कि उन्हें न तो ट्रायल की जानकारी है और न ही इससे प्रभावित होने वाले मरीजों की। राज्य के स्वास्थ्य मंत्री महेंद्र हार्डिया तो पूछते हैं यह ड्रग ट्रायल क्या होता है?  सीटीआरआई की उप संचालक डॉ. आभा अग्रवाल का व्यक्तव्य भी चौंकाता है। वे कहती हैं ट्रायल के लिए रजिस्ट्रेशन करना हमारा काम होता है। इसके बाद हम निगरानी नहीं करते हैं। ट्रायल के लिए एथिकल कमेटियां सर्वाधिक जिम्मेदार हैं। कितनी राशि आती है और कैसे डॉक्टर को मिलती है, इसकी कोई जानकारी नहीं। यह भी पता नहीं है कि दवा आजमाइश से मरीज पर क्या असर होता है।

डॉक्टर इस बात को जानते हैं कि ट्रायल जानलेवा होती हैं, लेकिन वे इसे हमेशा से ही छुपाते रहे हैं। मौतों की आधिकारिक जानकारी किसी के पास नहीं है। जन स्वास्थ्य अभियान जैसे कुछ संगठनों ने अपने स्त्रोतों से जो जानकारी जुटाई है, वह चौंकाने वाली है। इसके मुताबिक देशभर में वर्ष 2007 में 132, 2008 में 229 और 2009 में 308 लोगों की ट्रायल के दौरान मौत हुई है।

दवा आजमाइश के इस खेल में सबसे बड़ा सवाल मानव के जीवन जीने के अधिकार का है। कुछ डॉक्टर उसका यह हक छीन रहे हैं और मनुष्य को इसका पता भी नहीं चलता। रुपए के खातिर शुरू हुआ यह खेल समय रहते रुकना चाहिए। बेहद जरूरी है कि भारत सरकार अपने नागरिकों को दलाल रूपी डॉक्टरों से बचाने के लिए सख्त कानून बनाए। वर्ष 2005 की तरह ड्रग एंड कॉस्मेटिक एक्ट में संशोधन करने से हल नहीं निकलेगा क्योंकि उस संशोधन के बाद तो ट्रायल को बढ़ावा मिला।