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रविवार, अगस्त 08, 2010

डॉक्टर को भी पता नहीं रहती दवा

- एमजीएम मेडिकल कॉलेज एथिकल कमेटी चेयरमैन डॉ. केडी भार्गव ने की पुष्टि
- मंजूर किया स्टॉफ की कमी के कारण नहीं कर पाते मरीजों की निगरानी 


बहुराष्टरीय कंपनियों द्वारा विकसित जिन दवाओं का मरीज पर परीक्षण (ड्रग ट्रायल) किया जा रहा है, उनमें से ज्यादातर के नाम तक डॉक्टरों को पता नहीं रहते हैं। दवा एक केमिकल मिश्रण होता है और उसके तत्वों की जानकारी सिर्फ कंपनी को ही रहती है। डॉक्टर तो दवा को एक नंबर से जानते हैं। हालांकि, उन्हें दवा के साइड इफेक्ट की पूरी जानकारी रहती है।
इस बात की पुष्टि एमजीएम मेडिकल कॉलेज के अस्पतालों में ट्रायल को अनुमति देने के लिए बनाई गई एथिकल कमेटी के अध्यक्ष डॉ. केडी भार्गव भी करते हैं। शहर के ख्यात गेस्ट्रोइंटोलॉजिस्ट व कॉलेज के मेडिसिन विभाग के पूर्व एचओडी डॉ. भार्गव ने 'पत्रिकाÓ को बताया इंदौर में डबल ब्लाइंड श्रेणी के ट्रायल चल रहे हैं। इस श्रेणी का अर्थ है जिस दवा का प्रयोग मरीज पर किया जाता है, उसकी जानकारी न तो डॉक्टर को रहती है और न ही मरीज को। प्लेसिबो ट्रायल में भी मरीज को दवा देना बंद कर दिया जाता है। उसे जो गोली दी जाती है, उसमें ग्लूकोज या स्टार्च रहता है,जो बेअसर रहता है। यह प्रयोग दवा के प्रभाव को जानने के लिए किया जाता है।


हैरान करते डॉ. केडी भार्गव के पांच कथन
 एथिकल कमेटी अध्यक्ष डॉ. केडी भार्गव


कथन एक - ड्रग एंड कॉस्मेटिक्स एक्ट में 2005 में किया गया संशोधन ड्रग ट्रायल पर लागू नहीं होता है।
सच्चाई- 20 जनवरी 2005 को भारत सरकार ने एक्ट के दूसरे संशोधन का नोटिफिकेशन किया। इसके शेड्यूल 'वायÓ के तमाम नियम ड्रग ट्रायल के लिए बनाए गए हैं। स्वास्थ्य राज्य मंत्री महेंद्र हार्डिया ने भी विधानसभा में इस एक्ट की बाध्यता की बात कही है।

कथन दो - भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद (आईसीएमआर) की गाइडलाइन ड्रग ट्रायल पर लागू नहीं होती है। हम केवल ड्रग कंट्रोलर जनरल ऑफ इंडिया (डीसीजीआई) द्वारा बहुराष्टरीय कंपनी को मिली अनुमति और क्लिनिकल ट्रायल रजिस्ट्री इंडिया (सीटीआरआई) रजिस्ट्रेशन देखते हैं।
सच्चाई- देश में होने वाले सभी चिकित्सा शोधों के लिए आईसीएमआर सर्वोच्च संस्था है। ड्रग एंड कॉस्मेटिक्स एक्ट संशोधन की लचरता का फायदा उठाकर 2005 के बाद बहुराष्टï्रीय कंपनियों ने धड़ल्ले से ट्रायल शुरू की तो आईसीएमआर ने अक्टूबर 2006 में 120 पेज की गाइडलाइन जारी की। इसकी अनदेखी करना अनैतिक कार्य है।

कथन तीन - राज्य सरकार को ड्रग ट्रायल मामले में हस्तक्षेप करने की जरूरत नहीं है, क्योंकि वह वैसे ही खुद का काम ठीग ढंग से नहीं कर पा रही है।
सच्चाई - राज्य सरकार के विषयों की सूची में एक है स्वास्थ्य। राज्य के नागरिकों की सेहत की सीधी जिम्मेवारी राज्य की ही है। ऐसे में राज्य का नियंत्रण नहीं होने के कारण कंपनियों से मिलने वाले रुपए के चक्कर में नागरिकों की सेहत से खिलवाड़ किया जा रहा है। राज्य का नियंत्रण नहीं होने से निजी क्षेत्र में भी बेकाबू ट्रायल जारी हैं।

कथन चार - मरीज की सहमति के लिए उसे हिंदी में बनाया गया पांच से छह पेज का पत्र सौंपा जाता है।
सच्चाई- एमवायएच अधीक्षक डॉ. सलिल भार्गव के हस्ताक्षर से सूचना का अधिकार में प्राप्त हिंदी का सहमति पत्र महज एक पेज का है। इसमें ट्रायल का जिक्र ही नहीं है। बस यह बताया गया है कि डॉक्टर एक अध्ययन कर रहे हैं और इसमें मरीज की जरूरत है।

कथन पांच- क्लिनिकल ट्रायल एग्रीमेंट (सीटीए) पर स्पांसर कंपनी, ट्रायल करने वाले डॉक्टर और मेडिकल कॉलेज डीन के हस्ताक्षर होते हैं। हर बात डीन की जानकारी में रहती है।
सच्चाई- वर्ष 2003 से अब तक के डीन (डॉ. वीके सैनी, डॉ. अशोक वाजपेयी और डॉ. एमके सारस्वत) ने कभी किसी सीटीए पर हस्ताक्षर नहीं किए। मौजूद एमवायएच अधीक्षक डॉ. सलिल भार्गव और उनके पूर्व के डॉ. सीवी कुलकर्णी ने भी इस तरह के किसी एग्रीमेंट की जानकारी होने से इंकार किया है।

कॉलेज को रुपए मिले, तो बंद होंगे ट्रायल
डॉ. भार्गव मंजूर करते हैं ट्रायल के एवज में कंपनियां डॉक्टरों को रुपए देती हैं और उन्हें विदेश भी ले जाती है। यह भी बिल्कुल सच है कि कंपनियों से आनी वाली रकम सीधे कॉलेज के खाते में जमा होने लगे तो डॉक्टर ट्रायल बंद कर देंगे। 

हम बुजुर्ग हैं, कैसे करें निगरानी
डॉ. भार्गव कहते हैं कमेटी के पास स्टॉफ मौजूद नहीं है, इसलिए उन मरीजों की नियमित निगरानी नहीं की जाती है। मैं खुद 72 वर्ष का हो चुका हूं। दूसरे सदस्य पूर्व जस्टिस पीडी मूल्ये और पर्यावरणविद् कुट्टी मेनन भी बुजुर्ग हैं और ऐसे में फुल टाइम इस काम को नहीं दे पाते हैं। इस काम के लिए तनख्वाह पर किसी व्यक्ति को रखने की जरूरत है।


दूसरे सदस्य भी अनजान
एथिकल कमेटी के सदस्य हाईकोर्ट के रिटायर्ड जस्टिस पीडी मूल्ये कहते हैं दवा की अनुमति मुंबई से लेना पड़ती है। सच्चाई यह है कि सीटीआरआई का ऑफिस दिल्ली में है। पर्यावरणविद कुट्टी मेनन और अर्थशास्त्री डॉ. जयंतीलाल भंडारी मंजूर करते हैं कि उन्हें उस रुपए की जानकारी नहीं रहती, जो कंपनी द्वारा ट्रायल करने वाले डॉक्टर को दिया जाता है।


डॉ. भराणी, पुराणिक ने शुरू की ट्रायल
डॉ. भार्गव बताते हैं डॉ. अपूर्व पुराणिक और डॉ. अनिल भराणी अपने क्षेत्र के बेहद काबिल लोग हैं। एक ने न्यूरोलॉजी और दूसरे ने कॉर्डियोलॉजी में एम्स से डीएम किया। जब मैं मेडिसिन का एचओडी बना तब दोनों किसी कांफ्रेंस के सिलसिले में विदेश गए। वहां किसी दवा कंपनी वाले ने उन्हें ट्रायल करने की सलाह दी। इसके बाद ही दोनों ने एमवायएच में यह काम शुरू किया।

News in Patrika on 8th August 2010

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